यहां एक से एक धुरंधर बैठे हैं आस्तीन में... कभी खोलकर तो देखिए; पढ़ें सियासत की अंदरुनी हलचल
जो डर गया समझो मर गया। वाकई सबकुछ इसी डर का खेला है। ठीक वही खेला जो पड़ोसी बंगाल में हुआ अभी-अभी। न निगलते बन रहा है न उगलते। वहां भी हाकिम इसी मोड में डराए जा रहे थे जिस फार्मूले पर झारखंड में काम चल रहा है।
रांची, राज्य ब्यूरो। झारखंड की राजनीति एक बार फिर से गरमा गई है। यहां मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमलावर हैं। वहीं भाजपा भी सीधे-सीधे झामुमोनीत सरकार से टकरा रही है। राज्य ब्यूरो के प्रभारी प्रदीप सिंह के साथ पढ़ें सत्ता के गलियारे से...
हाकिमों पर निशाना
एक बड़ा मशहूर फिल्मी डायलाग है, जो डर गया, समझो मर गया। वाकई सबकुछ इसी डर का ''''खेला'''' है। ठीक वही ''''खेला'''' जो पड़ोसी बंगाल में ऐसा हुआ अभी-अभी। न निगलते बन रहा है न उगलते। वहां भी हाकिम इसी मोड में डराए जा रहे थे, जिस फार्मूले पर झारखंड में काम चल रहा है। कहा जा रहा था कि ये गए और हम आए। बाद में मत कहिएगा कि बताए नहीं थे। लेकिन किस्मत का फेर देखिए, पासा पलट गया और हुकूमत पलटने का दावा करने वाले असली ''''खेला'''' होने का रोना रोने लगे। खैर, अपने झारखंड में भी इसी की पुनरावृति हो रही है। रोज हाकिम हड़काए जा रहे हैं। एक सप्ताह में दो-दो धुरंधरों ने कह डाला कि समझ लीजिएगा कि हम आए तो क्या होगा? वैसे इनका लोड कोई ले नहीं रहा। पता चल गया कि इनके ''''खेला'''' में कुछ दम बचा नहीं है।
मोहरे पर आफत
सत्तारूपी शतरंज में मोहरे सबसे आगे रहते हैं और वही सबसे पहले वीरगति को भी प्राप्त होते हैं। ऐसे प्यादे की कमी नहीं, जो हाकिम को बचाने के लिए अपना सिर आगे घुसेड़ आए। तब नहीं समझा था कि कभी अच्छे दिन जाएंगे। आगे के लिए एडवांस तक ले रखा था। मजाल थी कि कोई सिर उठाए। अलग से आफिस लगा दिया था फोन तक टेप करने के लिए। जब चाहें जिसका बैंड बजा देते थे। इनकी खुफियागिरी के आगे सब पानी भरते थे, लेकिन सबसे बड़े खिलाड़ी की नजर पड़ते ही इनकी प्रतिभा कुंद पड़ गई। तड़ीपार पहले ही हो चुके थे, अब एक और पुराना केस खोलने की तैयारी चल रही है। जल्दबाजी में कुछ ज्यादा ही व्यक्तिगत बोल गए थे एक बार। वैसे बोलने और करने में तो इनका कोई सानी नहीं है सूबे में। ज्यादा प्रेम दिखाने का फल तो भुगतना ही पड़ता है देर-सवेर।
वह अंग्रेजों का जमाना गया, जब 100 साल के लिए बनते थे पुल। अपने यहां तो जरा सा पत्ता हिला और हल्की बूंदाबांदी हुई कि ये ताश के पत्ते की तरह हिलने को आतुर हो जाते हैं। इनकी क्वालिटी के खूब चर्चे हैं सत्ता के गलियारे में और इसकी छड़, गिट्टी, बालू का अनुपात एक अलग ही खेल है। वैसे इस खेल में हाथी निकल रहा है और पकड़ने वाले पूंछ धर रहे हैं। सभी लगा रहे अपने-अपने हिसाब से अंदाज। एक्सपर्ट की रिपोर्ट का कोई इंतजार नहीं। जिसको जो गणित भा रहा है, वह उसे ही समझा रहा है। अब इस आपाधापी में सारे के सारे ''''कोनार'''' को भूल गए। इसकी मजबूती को कमजोर करने के लिए चूहों को बता दिया था जिम्मेदार और हो गए थे फारिग। वैसे अभी तक इसका राज भी एक अबूझ पहेली ही है।
दुश्मनी लाख सही खत्म न कीजे रिश्ता, दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहिए। वैसे कोविड काल में तो इसके भी जोखिम हजार हैं। हाथ मिलाया नहीं कि जानलेवा चीनी वायरस का खतरा दिल-दिमाग में मंडराने लगता है। वैसे ऐतिहासिक पार्टी इसके एकदम उलटा है। यहां ऐसा घालमेल है कि पता ही नहीं चलता कि कौन खंजर छुपाए है आस्तीन में। मिलते हैं इतनी गर्मजोशी से कि कोरोना भी बिल में छिप जाए, लेकिन दफा होते ही ऐसे विशेषण से नवाजते हैं कि पूछो मत। एक से बढ़कर एक धुरंधर बैठे हैं यहां, कोई किसी से कम नहीं। ज्यादातर इसी इंतजार में है कि अगला जाए तो वह कुर्सी पर कब्जा जमाए। ऐसे में गुट-खेमे का पता ही नहीं चलता। इस हाल से हलकान-परेशान एक खांटी कांग्रेसी को इसका डर सता रहा है कि हाल कहीं पड़ोसी बंगाल जैसा न हो जाए। न कोई रहेगा, ना मचेगी कुर्सी के लिए मारामारी।