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मशरूम उत्पादन बना पोषण सुरक्षा और रोजगार का साधन, स्‍वाद और प्रोटीन से है भरपूर

हाल के दिनों में झारखंड सरकार के द्वारा विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत गांवों में मशरूम उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे गांव के लोगों में पोषण की कमी को पूरा करने में मदद मिल रही है।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Published: Sat, 02 Jan 2021 12:15 PM (IST)Updated: Sat, 02 Jan 2021 12:15 PM (IST)
मशरूम उत्पादन बना पोषण सुरक्षा और रोजगार का साधन, स्‍वाद और प्रोटीन से है भरपूर
अपने घर में मशरूम का उत्‍पादन करते ग्रामीण। जागरण

रांची, जासं। रांची के बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में सभी प्रकार के मशरूम उत्पादन की तकनीकी जानकारी दी जाती है। कोरोना संक्रमण के कारण लाॅकडाउन के बाद से विवि में सभी प्रकार के प्रशिक्षण बंद थे। कुछ दिनों पहले ही में पशुपालन को लेकर दस दिनों का पहला प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। इसके बाद जल्द ही विवि में मशरूम उत्पादन के प्रशिक्षण की शुरुआत होने वाली है। इसमें झारखंड के आलावा दूसरे राज्य के लोग भी प्रशिक्षण लेकर मशरूम का व्यावसायिक उत्पादन सीखने आते हैं।

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हाल के दिनों में राज्य सरकार के द्वारा विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत गांवों में मशरूम उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे न केवल गांव के लोगों में पोषण की कमी को पूरा करने में मदद मिल रही है, बल्कि ग्रामीण उसे हाट में बेचकर पैसे भी कमा रहे हैं। पिछले वर्ष विश्वविद्यालय की मशरूम उत्पादन इकाई में सितंबर से जनवरी माह तक रांची, खूंटी, सिमडेगा, रामगढ़, लातेहार, पलामू, बोकारो एवं हजारीबाग जिले के अलावा होशियारपुर (पंजाब) एवं मुंगेर (बिहार) के करीब 160 लोगों ने प्रशिक्षण लिया।

मशरूम विभिन्न प्रकार के होते हैं। इनमें सफेद बटन मशरूम (अगेरिकस बाइस्पोरस) की खेती मध्य सितंबर से मध्‍य मार्च तक, धान पुआल खुम्ब (वोल्वेरिएला प्रजातिया) की मई से मध्य अगस्त तक, आयस्टर मशरूम (प्लूरोट्‌स प्रजातियां) का अगस्त से अप्रैल तथा दुधिया मशरूम (कैलोसाइबी इण्डिका) की खेती मार्च से मध्य अगस्त माह तक की जाती है। रांची जिले के ठाकुरगांव के जय कुमार ने विश्वविद्यालय से प्रशिक्षण लेने के बाद आसपास गांवों के 25 महिला–पुरुष को मशरूम की खेती से जोड़ा है।

उन्होंने गांव में 10 लोगों का समूह बनाकर मां अम्बे सेवा संस्थान बनाया और मशरूम का उत्पादन शुरू किया। जय कुमार का कहना है कि संस्थान के पूरे उत्पाद का गांव में खपत हो जाता है। प्रोटीन युक्त स्वादिष्‍ट आहार की वजह से गांव के लोग मशरूम की सब्जी को खाना पसंद करने लगे हैं। वे अब आसपास के गांवों के लोगो से समन्वय बनाकर मशरूम की व्यावसायिक खेती को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं।

बीएयू की मशरूम उत्पादन इकाई के प्रभारी डाॅ. नरेंद्र कुदादा बताते हैं कि बढ़िया स्वाद, पौष्टिक गुण तथा सस्ता प्रोटीन स्‍त्रोत होने से मशरूम को ग्रामीण इलाकों में पसंद किया जाने लगा है। कम जगह और थोड़ी लागत से मशरूम की खेती में अधिक से अधिक लाभ लिया जा सकता है। थोड़ी मेहनत से ही 70 - 80 दिनों के मशरूम का उत्पादन होने लगता है। मशरूम का बीज उपलब्ध होने पर स्थानीय उपलब्ध सामग्रियों से ही इसका आसानी से उत्पादन किया जाना संभव है। इसकी खेती को बढ़ावा देकर ग्रामीण क्षेत्रों में पोषण एवं आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।

डॉ. कुदादा ने बताया कि मशरूम की खेती में स्पांन (बीज) का विशेष महत्त्व है। इसे विश्वविद्यालय से रु. 30/- प्रति 300 ग्राम की दर से खरीदा जा सकता है। स्पांन (बीज) उत्पादन के 15 दिवसीय प्रशिक्षण का शुल्क 10 हजार रुपये प्रति व्यक्ति है। मशरूम की खेती के लिए तीन दिवसीय एवं सात दिवसीय प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें सफ़ेद बटन मशरूम, आयस्टर मशरूम, दूधिया मशरूम, धान पुआल मशरूम और गुलाबी मशरूम की खेती का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है।


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