Muharram 2021: आने वाला है आंसुओं का त्यौहार, जानें कब है रोने का पर्व
आंसुओं का भी त्यौहार होता है। यह सुनकर आप भी हैरत में होंगे। ज्यादातर खुशियों को ही त्यौहार जाना जाता है। लेकिन त्यौहार आंसू के भी होते हैं। मोहर्रम ऐसा ही पर्व है। लोग कोशिश करते हैं कि अपने देवता हुसैन के लिए ज्यादा से ज्यादा आंसू बहाएं।
रांची [मुजतबा हैदर रिजवी]। आंसुओं का भी त्यौहार होता है। यह सुनकर आप भी हैरत में होंगे। ज्यादातर खुशियों को ही त्यौहार जाना जाता है। लेकिन, त्यौहार आंसू के भी होते हैं। मोहर्रम ऐसा ही पर्व है। जब आंसू बहाए जाते हैं। लोग कोशिश करते हैं कि अपने देवता हुसैन के लिए ज्यादा से ज्यादा आंसू बहाएं। यही उनके लिए पुण्य का काम होता है। दुनिया की एक कौम है जो हर साल आंसुओं का यह पर्व मनाती है।
एक मुहर्रम से लेकर 8 रबी उल अव्वल यानी 67 दिनों तक यह पर्व चलता है और शिया मुसलमान सुबह से देर रात तक एक के बाद दूसरी जगह आयोजन कर इमाम हुसैन का जिक्र करते हैं। उनकी कुर्बानी। उनकी मुसीबत का जिक्र करते हैं और आंसू बहाते हैं। इसीलिए दुनिया शियों को रोने वाली कौम भी कहने लगी है। रोने वाली यह कौम झारखंड में भी निवास करती है। शिया झारखंड के रांची जमशेदपुर समेत कई जिलों में मौजूद हैं।
पलामू का हुसैनाबाद शियों के लिहाज से सबसे समृद्ध कस्बा है। यहां इन्होंने बड़े बड़े इमामबाड़े बनाए हैं। इमामबाड़ा वह जगह होती है जहां पर शिया मुसलमान इकट्ठा होकर हुसैन अलैहिस्सलाम का जिक्र करते हैं और उनकी मुसीबतों पर रोते हैं। इस जिक्र को मजलिस कहते हैं। मजलिस के 2 हिस्से होते हैं। मजलिस बयान करने वाला शख्स पहले हिस्से में इमाम हुसैन और उनके नाना पैगंबर हजरत मोहम्मद मुस्तफा और हजरत अली के बारे में जानकारी बयान करता है और आखिरी हिस्से में इमाम हुसैन की कुर्बानी बयान की जाती है। इसे मासाएब कहते हैं। आप सोच रहे होंगे कि जिक्र सुनकर लोगों के आंसू कैसे निकल आते हैं। शहादत के कई वाक्यात होते हैं। जैसे कि इमाम हुसैन पर पानी बंद कर दिया गया था। यानी उन्हें फरात नदी से पानी नहीं लेने दिया गया। उनके यहां तीन दिन से पानी खत्म हो गया था। इमाम हुसैन का 6 महीने का एक बच्चा असगर था।
3 दिन की भूख प्यास की वजह से बच्चे की मां का दूध सूख गया था। बच्चा भी प्यासा था। इस बच्चे को लेकर इमाम हुसैन यजीदी फौज के सामने आए और कहा कि हमें पानी ना दो लेकिन इस बच्चे को पिला दो। बच्चा प्यास से तड़प रहा है। जब सामने से कोई जवाब नहीं आया तो इमाम हुसैन ने बच्चे को इराक की तपती गर्मी में रेत पर यह कहकर लिटाया कि अगर तुम समझते हो कि तुम इस बच्चे को पानी दोगे तो हुसैन खुद पी लेंगे। तो मैं इस बच्चे को दूर लिटा देता हूं और आकर इसे पानी खुद पिला दो। लेकिन, फिर इमाम ने फौरन बच्चे को उठा लिया। सामने से किसी ने पानी तो नहीं दिया उस भारी तीर से 6 महीने के बच्चे का गला भेद दिया जो ऊंट का गला छेदने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। यह वाकया जब मौलाना बयान करते हैं तो लोगों के दिल पिघल जाते हैं। या फिर इमाम हुसैन की 4 साल की मासूम बच्ची का वाकया जो अपने बाप के सीने पर रोज सोती थी।
इमाम जब मैदान-ए-जंग में अकेले रह जाते हैं और जंग में उतरने के लिए जाते हैं। तो वह बच्ची घोड़े का पैर पकड़ लेती है और कहती है कि मेरे पिता को मैदान में ना ले जा। बेटी बोलती है कि सुबह से वह देख रही हूं कि जो भी मैदान में गया है। वापस नहीं आया। ऐ घोड़े, अगर बाबा वापस नहीं आया, तो मैं रात को किसके सीने पर सोऊंगी। इमाम जब देखते हैं तो उतर कर अपनी बच्ची को सीने से लगाते हैं और उसे समझाते हैं कि वह इंसानियत की खातिर अपनी कुर्बानी देने जा रहे हैं। अपनी बच्ची से कहते हैं कि बेटी अपने बाप को इजाजत दे दो कि वह अपनी जान कुर्बान करे। बेटी कहती है ठीक है बाबा आप जाइए। लेकिन एक बार जमीन पर लेट जाइए। मैं आखरी बार आपके सीने पर लेट लूं। हुसैन जमीन पर लेटते हैं और उनकी मासूम बच्ची उनके सीने पर लेट कर अपनी हसरत पूरी करती है और फिर उठकर कहती है ठीक है बाबा अलविदा।
इमाम हुसैन की शहादत के बाद जब यजीदी फौज हुसैन के कैंप पर धावा बोलती है। तो इस बच्ची को तमाचे मारे जाते हैं और उसके कान से वह झुमके नोच लिए जाते हैं, जो हुसैन ने उसी साल अपनी बेटी को पहनाए थे। लहूलुहान चेहरा लिए बच्ची अपने बाप को याद करती हुई इधर-उधर तड़पती है। यह बयान जो भी सुनता है दर्द से सीना फट जाता है और खुद ब खुद आंसू निकलते हैं। इसीलिए इस त्यौहार को आंसुओं का त्यौहार कहते हैं।
मासाएब मुसीबत का बहुवचन है। मसाएब सुनकर ही लोग रोते हैं और यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। एक मजलिस खत्म होती है तो दूसरी जगह मजलिस शुरू होती है। मजलिस के बाद मातम होता है। यह मातम मजलिस का ही एक हिस्सा है, जो अब आम बोलचाल में भी पहुंच गया है। कहीं कोई मुसीबत में है तो कहते हैं वहां मातम है। कोई किसी की मुसीबत में हाल-चाल लेने गया तो कहते हैं कि वह मातम पुर्सी में गया। 10 मोहर्रम आशूर का दिन कहा जाता है। आशूर अरबी लब्ज है। इसका मतलब है 10। यानी मोहर्रम की दसवीं तारीख को ही इमाम हुसैन को इराक के कर्बला शहर में शहीद किया गया था। इस दिन उनकी याद में ताजिया बनाकर निकाली जाती है।
ताजिया ताजीयत शब्द से बना है। ताजिया का मतलब होता है मुसीबत झेल रहे शख्स से हमदर्दी का इजहार करना। कोई बीमार है तो लोग उसके यहां ताजीयत पेश करने जाते हैं। इसी से ताजिया बना है। इसमें इमाम हुसैन के मकबरे की नकल बनाई जाती है। 10 मोहर्रम को हर साल ताजिया के जुलूस निकलते हैं और फिर ताजियों को नदी किनारे ले जाकर नदी में विसर्जित किया जाता है। रांची में यह जुलूस कर्बला चौक से निकलता था। कर्बला चौक के इमामबाड़े और शियों के घरों में मजलिसें आयोजित कर इमाम हुसैन पर आंसू बहाने का सिलसिला जारी है। कोरोना काल में फिलहाल जुलूस नहीं निकल रहे हैं।