रांचीः गीत-संगीत की शिक्षा भी जरूरी
पद्मश्री मुकुंद नायक किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। गीत-संगीत के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए इन्हें पद्मश्री से नवाजा गया और अभी संगीत नाटक अकादमी अवार्ड देने की घोषणा की गई है।
पद्मश्री मुकुंद नायक किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। गीत-संगीत के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए इन्हें पद्मश्री से नवाजा गया और अभी संगीत नाटक अकादमी अवार्ड देने की घोषणा की गई है। गांव के अखड़ा से संगीत सीखा और इसे विश्व पटल पर ले गए। अमेरिका, जापान आदि देशों में झारखंड के नागपुरी गीत और झूमर नृत्य को पहुंचाया। कुंजबन संस्था के माध्यम से नृत्य-संगीत के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। युवाओं को भी जोड़ रहे हैं।
शिक्षा और कला के बीच होता है मजबूत रिश्ता
शिक्षा हमें संस्कारित करती है। ज्ञान देती है। हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। शिक्षा का मूल उद्देश्य भी यही है। रोजगार एक माध्यम है। शिक्षा और कला के बीच एक मजबूत रिश्ता है। कला हमें मानवीय बनाती है। समाज और दुनिया को देखने का एक अलग नजरिया प्रदान करती है। कला मेरे लिए साधना है। आज जो भी हूं, उसका श्रेय ग्रामीण अखड़ा को जाता है, जहां बैठकर हमें पारंपरिक ज्ञान मिला। मांदर बजाया। गीत सीखे। नृत्य सीखा। ओरल एजुकेशन का सबसे बड़ा केंद्र होता था ग्रामीण अखड़ा। यहां बड़े-बुजुर्ग अपनी ज्ञान परंपरा को अगली पीढ़ी को सौंपते थे। अगली पीढ़ी फिर अपनी आने वाली पीढ़ी को। यह परंपरा अब लुप्त हो रही है। पुराने समय में भी यही परंपरा था। उस समय डिग्री का महत्व नहीं, ज्ञान का महत्व था। अब डिग्री की बात सब करते हैं। ज्ञान पीछे छूट गया है। शिक्षा का जो मूल उद्देश्य था ज्ञान, जो अब दिखाई नहीं पड़ता। स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय खूब खुल रहे हैं लेकिन क्या वह ज्ञान का केंद्र बन पा रही हैं?
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परंपरा का परिमार्जन आवश्यक
आज ग्रामीण अखड़ा की परंपरा लगभग खत्म हो गई है। इसका अब परिमार्जन कर पुनजीर्वित करने की जरूरत है। उस ज्ञान परंपरा को बचाने की जरूरत है, जो बुजुर्गों के पास है। उनके पास जो ज्ञान है, वह किताबों में नहीं मिलेगा। भौगौलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और अपने समय-समाज के बारे में उनके पास जो ज्ञान है, उसका आदर करते हुए ग्रहण करने की जरूरत है। हम अखड़ा को आधुनिक रूप देकर हजारों सालों की थाती को बचा सकते हैं, जो अब धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं।
डिग्री नहीं, ज्ञान की बात हो
आज हमारी शिक्षा डिग्री आधारित हो गई है। हम थोक में डिग्री बांट रहे हैं। वह अपने विषय का ज्ञाता है या नहीं, इसकी परवाह नहीं। अंकों से शिक्षा की गुणवत्ता आंक रहे हैं। इसमें परिवर्तन करने की जरूरत है। पश्चिम में ज्ञान की गुणवत्ता इसलिए बची हुई है कि वहां ज्ञान का महत्व है, डिग्री का नहीं। इसलिए, वहां से जो लोग डिग्री लेकर आते हैं, उनमें गुणवत्ता भी होती है। हमें इस दिशा में काम करना चाहिए।
पारंपरिक ज्ञान का लें लाभ
रांची विश्वविद्यालय में परफार्मिंग आर्ट का विभाग खुला है। इंदिरा गांधी कला केंद्र की शाखा भी खुली है, लेकिन कभी इन्होंने यहां के कलाकारों को बुलाकर व्याख्यान नहीं करवाया। यहां अनेक पारंपरिक कलाकार मौजूद हैं। झारखंड में नृत्य की इतनी शैलियां हैं, इतनी बोलियां हैं, गीत हैं, वाद्य यंत्र हैं, इनके बारे में शायद ही कभी जानकारी दी गई हो। यहां भी डिग्रीहोल्डर ही बुलाए जाते हैं। जब कला के क्षेत्र में यह हाल है, दूसरे क्षेत्रों में कल्पना कर सकते हैं। इसी तरह जल बचाने की दिशा में पद्मश्री सिमोन उरांव ने काम किया। उनके ऊपर अमेरिका से रिसर्च करने के लिए आए लेकिन अपने रांची विवि से किसी छात्र ने उनके काम में रुचि नहीं ली और न ही विश्वविद्यालय ने। अमेरिका को पता चल गया, लेकिन बेड़ो गांव से 40 किमी दूर रांची विवि को पता नहीं चल पाया कि ऐसे ज्ञानी अपने पास हैं। इस तरह अनेक क्षेत्र में ऐसे लोग हैं। इनके ज्ञान का लाभ विश्वविद्यालय को लेना चाहिए। उनका व्याख्यान कराना चाहिए। अपने आधुनिक शिक्षा के साथ पारंपरिक ज्ञान का भी अनुसरण करना चाहिए। दोनों के समन्वय से ही शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है और शिक्षा के मूल उद्देश्य की प्राप्ति हो सकती है।
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