Shardiya Navratri 2019: बेहद खास होता है रांची में नवरात्र, जानें कहां-कैसी हो रही तैयारी Ranchinews
शुरुआत में रांची में नवरात्र के दौरान महिलाओं का आना वर्जित था। महिलाओं के लिए नवमी के दिन सिर्फ एक घंटा तय था। उस समय सभी पुरुष बाहर चले जाते थे।
रांची [नीलमणि चौधरी] । दक्षिणी छोटानागपुर में दुर्गा पूजा का इतिहास करीब दो हजार साल पुराना है। इसकी शुरुआत नागवंशीय महाराज फनी मुकुट राय के समय हुई। महाराज फनी मुकुट राय की शादी पंचकोट पुरुलिया के राजकुमारी के साथ हुई थी। पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा धूमधाम से मनायी जाती है। कहा जाता है कि ससुराल में दुर्गा पूजा मनाते देख महाराज के मन में भी माता के प्रति जागृत हुई। इसके बाद उन्होंने अपने महल में मां दुर्गा की पूजा-अर्चना शुरू की।
बाद में साल 1900 में रातू गढ़ बनने के बाद यहां भी मां दुर्गा की भव्य पूजा शुरू हुई जो आज भी जारी है। प्रत्येक साल दुर्गा पूजा एवं काली पूजा के मौका पर रातू किला को आम लोगों के लिए खोल दिया जाता था। महाराज आमजन के साथ मिलजुल का दुर्गोत्सव मनाते थे। आज भी यह परंपरा कायम है।
दूसरी ओर रांची में रह रहे बांग्ला समाज के लोगों के प्रयास से सर्वप्रथम जिला स्कूल में नवरात्र का आयोजन किया गया। इसके पीछे जिला स्कूल के शिक्षक पंडित गंगाचरण वेदांत वागिश की प्रेरणा बतायी जाती है। यही पूजा बाद में अलबर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गाबाटी में होने लगी। दुर्गाबाटी में पिछले 137 साल से नवरात्र का आयोजन किया जाता है। यहां की पूजा में बांग्ला संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। देखा-देखी अन्य स्थानों पर भी नवरात्र का आयोजन होने लगा। महानगर दुर्गा पूजा समिति के अध्यक्ष प्रदीप राय बाबू के अनुसार पूरे जिले में करीब 310 और शहरी क्षेत्र में 147 स्थानों पर प्रतिमा स्थापित कर माता की पूजा की जाती है।
महालया पर दुर्गाबाटी में महिषासुरमर्दिनी का जीवंत मंचन
137 साल पहले 1883 में नवरात्र के आयोजन को लेकर दुर्गाबाटी बनायी गई थी। इसी साल से यहां पूजा आरंभ हुई। उस समय दुर्गाबाटी खपरैल का था। जैसे-जैसे समिति समृद्ध हुई आयोजन भव्य होता गया। लेकिन पूजा पद्धति में किसी प्रकार का बदलाव नहीं किया गया है। उसी समय से महालया पर महिषासुर मर्दिनी का जीवंत मंचन किया जाता है। मंचन को देखने सैकड़ों लोग जुटते हैं।
दुर्गाबाटी के सचिव गोपाल भट्टाचार्य के अनुसार जिला स्कूल से जब दुर्गाबाटी में पूजन आरंभ हुआ तो आयोजन को लेकर एक समिति भी बनायी गई। इसका नाम श्रीश्री हरि सभा रखा गया था। अधिवक्ता देवेंद्र लाल बसु को पहला सभापति बनाया गया था। वहीं, सब इंस्पेक्टर नवकृष्ण राय को सचिव बनाया गया। उस समय देवेंद्र लाल बसु ने सबसे ज्यादा 51 रुपया का सहयोग दिया था। धीरे-धीरे बांग्ला समाज के लोग दुर्गाबाटी से जुडऩे लगे। शुरुआती समय में दुर्गाबाटी में भी बकरे और भैंसे की बलि दी जाती थी। समिति से जुड़े डॉ पूर्णचंद्र मिश्र शुरू से ही बलि प्रथा का विरोध करते थे। बाद में 1927 से दुर्गाबाटी में बलि बंद कर दिया गया। अभी जहां शास्त्री मार्केट है वहां पांच दिनों का भव्य मेला लगता था। 1926 से स्थायी दुकानें लगनी शुरू हुई। इसी साल से दुर्गाबाटी में विजयादशमी के दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुआ। कोलकाता से नामचीन कलाकार अपनी प्रस्तुति देने आते थे। इसके काफी दिनों के बाद हिनू, डोरंडा आदि में पूजा शुरू हुई।
शुरुआत में पूजा में नहीं आ सकती थीं महिलाएं
पूजा समिति से जुड़ी डॉ पंपा सेन विश्वास के अनुसार शुरुआत में नवरात्र आयोजन में महिलाएं नहीं आती थीं। सिर्फ पुरुष ही भाग लेते थे। बाद में नौवीं के दिन एक घंटे के लिए महिलाओं के दुर्गाबाटी खाली कर दिया जाता था। रात आठ बजे से नौ बजे तक महिलाएं पूजा-अर्चना करती थीं। इस समय आयोजन स्थल पर पुरोहित को छोड़कर कोई पुरुष सदस्य नहीं रहता था। नौ बजे के बाद महिलाओं को विदा करने के बाद पुरुष वापस आयोजन स्थल पर आते थे। 1921 के बाद कुछ उदारवादियों के प्रयास से महिलाएं भी पूजा में आने लगी। हालांकि उदारवादियों को तब काफी विरोध का सामना करना पड़ा था।
चारण कवि मुकुंद दास को सुनने उमड़ती थी भीड़
1926 में सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुआ। स्थानीय कलाकारों के अलावा कोलकाता से भी नामचीन कलाकारों को बुलाये जाने लगा। उस समय के प्रसिद्ध चारण कवि मुकुंद दास को सुनने के लिए लोगों की भारी भीड़ जुटती थी। दूर दूर से लोग कवि मुकुंद दास को सुनने आते थे।