Jharkhand Politics: झारखंड में आदिवासी सलाहकार परिषद के गठन पर बढ़ेगा विवाद
नई नियमावली के तहत गठित टीएसी की दो बैठकों में भाजपा के नामित विधायक शामिल नहीं हुए हैं। आगे भी यह गतिरोध जारी रहने के आसार हैं। अगर इस पर तकरार बढ़ी तो सत्तारूढ़ खेमा इसे आदिवासियों के खिलाफ राजनीति करार देकर राजभवन की घेराबंदी कर सकता है।
रांची, प्रदीप शुक्ल। आदिवासी सलाहकार परिषद के गठन में राजभवन की भूमिका खत्म करने को लेकर राज्यपाल रमेश बैस द्वारा सवाल उठाए जाने के बाद यह मुद्दा एक बार फिर तूल पकड़ने लगा है। भाजपा पहले से ही परिषद के गठन की प्रक्रिया को असंवैधानिक बताकर गठबंधन सरकार को घेरती आ रही है। अब राज्यपाल के रुख से उसके तेवर और कड़े हो सकते हैं। हालांकि सत्ता पक्ष भी इस मुद्दे पर झुकने के मूड में नहीं दिख रहा और वह इसे आदिवासी सियासत से जोड़ने की कोशिश में है।
राज्यपाल की टिप्पणी पर झामुमो और कांग्रेस ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का निर्णय राज्य के आदिवासियों के हित में है और वह अपने कर्तव्य व अधिकार क्षेत्र को बेहतर ढंग से समझते हैं। मतलब साफ है, जैसे-जैसे यह मामला बढ़ेगा, राज्य में टकराव के साथ-साथ कटुता भी बढ़ेगी। झारखंड की राजनीति आदिवासी तबके के इर्द-गिर्द घूमती है। इसकी बड़ी वजह विधानसभा की कुल 81 सीटों में से 28 विधानसभा क्षेत्रों का अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होना भी है।
झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस से शिष्टाचार मुलाकात करते सीएम हेमंत सोरेन (बाएं)। जागरण आर्काइव
पांचवीं अनुसूची के तहत आने वाले झारखंड में आदिवासी सलाहकार परिषद (टीएसी) का प्रविधान है। जनजातीय समुदाय की समस्याओं के समाधान के उद्देश्य से इसका गठन किया गया है। परिषद आदिवासियों के लिए योजनाओं से लेकर आदिवासी क्षेत्रों के विकास का खाका तैयार करती है। परिषद के अध्यक्ष मुख्यमंत्री होते हैं। विधायकों समेत आदिवासी समुदाय से जुड़े प्रबुद्ध लोग इसके सदस्य बनाए जाते हैं। पहले टीएसी के गठन के लिए राज्यपाल की सहमति आवश्यक थी, लेकिन हाल में सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार ने नई नियमावली बनाकर इस बाध्यता को समाप्त कर दिया। गठन के बाद जब इसकी फाइल राजभवन को भेजी गई तो तत्कालीन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने फाइल वापस लौटा दी थी। अब नए राज्यपाल रमेश बैस ने भी नई नियमावली को लेकर अपनी आपत्ति सार्वजनिक की है।
आशंका जताई जा रही है कि नई परिस्थितियों में इस मुद्दे पर राजभवन और गठबंधन सरकार के बीच टकराव बढ़ सकता है। राज्यपाल ने कहा है कि वह टीएसी के गठन को लेकर कानूनी परामर्श ले रहे हैं। जाहिर है, इस मामले में राजभवन अपनी भूमिका स्पष्ट करेगा तो टीएसी को फिर से गठित करने की नौबत आ सकती है। राजभवन के इस रुख से झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राजद की गठबंधन सरकार असहज है। पूरे प्रकरण पर राजनीतिक बयानबाजी भी आरंभ हो गई है। सत्ता पक्ष ने दलील दी है कि टीएसी के गठन में राज्यपाल की अनुमति आवश्यक नहीं है। इस बाबत पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ का हवाला दिया जा रहा है, जहां पूर्व में भाजपा की रमन सिंह सरकार ने इस व्यवस्था को लागू किया था।
झारखंड सरकार ने भी इसी तर्ज पर एकीकृत बिहार के कानून को बदलकर सारे अधिकार मुख्यमंत्री में निहित कर दिए। हालांकि राज्यपाल ने इस दलील को लगभग ठुकरा दिया है। उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ में नई नियमावली जरूर बनी है, लेकिन राज्यपाल की भूमिका को खत्म नहीं किया गया है। उसकी गलत तरह से व्याख्या की जा रही है। इस तनातनी को आदिवासी समुदाय और उससे जुड़े नफा-नुकसान की तरफ मोड़ा जा रहा है। सत्ता पक्ष ने फिलहाल संयम दिखाया है, लेकिन यह टकराव में तब्दील हुआ तो बंगाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जहां राजभवन संग तकरार की खबरें अक्सर सुर्खियां बनती हैं। पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ सत्ता पक्ष पूर्व में मोर्चा खोल चुका है।
इधर सत्ता हाथ से फिसलने के बाद विपक्षी खेमे में बैठी भाजपा को भी इसी बहाने सरकार पर हमलावर होने का मौका मिल गया है। भाजपा ने राज्यपाल के रुख को सही ठहराते हुए टीएसी की नई नियमावली को गलत बताया है। भाजपा ने टीएसी की बैठकों से भी दूरी बना रखी है। फिलहाल सबकी नजर राज्यपाल के रुख पर है।
[स्थानीय संपादक, झारखंड]