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..तो इसलिए कांग्रेस को निरंतर नीचा दिखा रहे झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन

यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इन जांचों से निकले निष्कर्ष से तय होगा कि झामुमो की भविष्य की राजनीति की दिशा क्या होगी? फिलहाल देखना यह होगा कि राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर राजग के समीप जाने की उनकी कोशिश का क्या फलाफल होता है?

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 01 Jul 2022 01:22 PM (IST)Updated: Fri, 01 Jul 2022 01:28 PM (IST)
..तो इसलिए कांग्रेस को निरंतर नीचा दिखा रहे झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन
हर मोर्चे पर हेमंत कांग्रेस की राजनीतिक लाइन से इतर कदमताल करते नजर आ रहे

रांची, प्रदीप शुक्ला। महाराष्ट्र के बाद सबकी नजरें झारखंड पर जमने वाली हैं। यहां भी गठबंधन सरकार में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। सत्ता की बागडोर संभाले झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के कार्यकारी अध्यक्ष मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बार-बार कांग्रेस को नीचा दिखा रहे हैं। कांग्रेस की सहमति से राष्ट्रपति चुनाव में जब यशवंत सिन्हा को विपक्ष का साझा प्रत्याशी बनाया गया तो उस बैठक में मौजूदगी के बावजूद झामुमो ने सिन्हा के नामांकन समारोह से न केवल दूरी बनाई, बल्कि उसी दिन नई दिल्ली में हेमंत सोरेन केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर यह संदेश दे आए कि उनका दल राजग की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के साथ है। हालांकि अभी तक इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन यह लगभग तय ही माना जा रहा है। आदिवासी केंद्रित राजनीति करने वाले झामुमो के इस कदम से कांग्रेस में कोई हरकत नहीं है। यह राष्ट्रीय स्तर पर लगातार हाशिये में जा रही कांग्रेस के राज्य में राजनीतिक क्षरण का संकेत है, क्योंकि बगैर उसके समर्थन के प्रदेश में हेमंत की सरकार नहीं चलने वाली। इसके बावजूद हर मोर्चे पर हेमंत कांग्रेस की राजनीतिक लाइन से इतर कदमताल करते नजर आते हैं।

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हालिया राज्यसभा चुनाव भी इसका उदाहरण है, जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से नई दिल्ली में मुलाकात करने के बाद रांची लौटकर हेमंत ने एकतरफा अपनी पार्टी की उम्मीदवारी का एलान कर दिया। क्या आने वाले दिनों में झामुमो बगैर कांग्रेस की बैसाखी के राजनीतिक मैदान में उतरने की तैयारी में है या वह भाजपा में भी अपने लिए कुछ संभावनाएं देख रहा है? इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। झामुमो और कांग्रेस का झारखंड में जनाधार एक है। वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच सीटों के तालमेल को लेकर बात नहीं बनी तो भाजपा ने बाजी मार ली। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में दोनों दलों ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया। इसका फायदा दोनों को हुआ। सीटों की संख्या बढ़ी और कभी सबसे बड़ी पार्टी रही भाजपा पीछे छूट गई। सरकार बनाने के बाद कांग्रेस की स्थिति छोटे भाई वाली रही।

हेमंत सोरेन (बाएं) ने इसी सप्ताह नई दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से की मुलाकात। फाइल

ढाई साल में झामुमो ने अपने राजनीतिक एजेंडे को खूब आगे बढ़ाया। राष्ट्रपति चुनाव में भी यह देखने को मिल रहा है। राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुमरू को समर्थन देना झामुमो के जनाधार को भा रहा है तो मोर्चा राजग के साथ जाने को तैयार है। वैसे इसे झामुमो के लिए एक बेहतर राजनीतिक अवसर के तौर पर भी देखा जा रहा है। हेमंत सोरेन के शासनकाल के अब ढाई वर्ष बचे हैं। एक लंबा समय कोरोना के प्रतिबंधों में गुजरा है। राज्य की वित्तीय स्थिति ठीक नहीं है। हर बात पर केंद्र पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में वह मध्यम मार्ग की राजनीति को अपना सकते हैं जो झारखंड के पड़ोसी राज्य ओडिशा की बड़ी मजबूती है। वहां नवीन पटनायक बड़ी होशियारी से मुख्य विपक्षी दल भाजपा से रणनीतिक तौर पर निपटते हैं। राज्य में उनकी पार्टी बीजद का सीधा मुकाबला भाजपा से है, लेकिन वे कई मुद्दों पर आगे बढ़कर केंद्र के साथ खड़े नजर आते हैं। उनकी इस रणनीति से भाजपा उन्हें अधिक निशाने पर लेने से हिचकती है और ओडिशा का हित प्रभावित नहीं होता। हेमंत सोरेन भी कमोबेश इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं।

एक धड़ा यह भी मानता है कि भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में बुरी तरह फंसे होने के कारण वह भाजपा के करीब जाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। भाजपा की शिकायत पर भारत निर्वाचन आयोग उनकी विधानसभा की सदस्यता समाप्त करने संबंधी मामले की सुनवाई कर रहा है। उनके भाई विधायक बसंत सोरेन की विधायकी भी खतरे में है। राज्य में ईडी की बड़े पैमाने पर कार्रवाई चल रही है। ये तमाम प्रकरण भी उनके भाजपा विरोध की राजनीति से पीछे हटने का कारण बन सकते हैं। अगर वे इस झंझावात से बाहर निकल पाते हैं तो झारखंड की राजनीति में नया समीकरण देखने को मिल सकता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो झामुमो के लिए आने वाले दिन राजनीतिक चुनौतियों से भरे होंगे।

[स्थानीय संपादक, झारखंड]


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