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ग्रामीणों का दर्द नहीं जानते, हमदर्दी की दावेदारी

राजधानी राची से 58 किलोमीटर दूर सिल्ली के मोदीडीह में लोगों ने सरकार के बारे में अपनी बात कहा।

By JagranEdited By: Published: Mon, 22 Apr 2019 05:07 AM (IST)Updated: Mon, 22 Apr 2019 06:33 AM (IST)
ग्रामीणों का दर्द नहीं जानते, हमदर्दी की दावेदारी
ग्रामीणों का दर्द नहीं जानते, हमदर्दी की दावेदारी

मोदीडीह (सिल्ली) से विनोद श्रीवास्तव

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राजधानी राची से 58 किलोमीटर दूर सिल्ली के मोदीडीह में दैनिक जागरण की चौपाल सजी है। लगभग 120 घरों वाला मोदीडीह आदिवासी बहुल गांव है। गिनती के कुछ पक्के मकान हैं। गांव के अंदर की सड़क बेहाल है। पानी की भी किल्लत की बात ग्रामीण साझा करते हैं। गांव छोटा है, ग्रामीणों की जनप्रतिनिधियों से आस भी छोटी-छोटी है। ग्रामीणों की यह आम शिकायत है कि चुनाव के वक्त नेताओं का जमावड़ा लग जाता है। चुनाव के समय ग्रामीणों के सबसे बड़े हमदर्द बन जाने वाले नेताओं का अगले पांच साल तक अता-पता नहीं चलता। ग्रामीणों की समस्याओं और जन प्रतिनिधियों से उनकी नाराजगी की लंबी फेहरिश्त है।

निर्मल उरांव यहां के वार्ड सदस्य हैं। सरकार की डिलीवरी मैकेनिज्म से वे खासा नाराज हैं। कहते हैं, ग्रामीण सरकार की योजनाओं की आस में उन तक पहुंचते हैं। वे मामले को आगे भी बढ़ाते हैं, परंतु ऊपर जाकर सब डंप हो जाता है। अमर कुमार महली इस बीच हमसे जुड़ते हैं, कहते हैं गांव की आर्थिक स्थिति की बात करें तो यहां के लगभग 50 फीसद परिवार अंत्योदय की श्रेणी में आते हैं, परंतु उनका कार्ड रद कर लाल कार्ड थमा दिया गया। जरूरतमंदों को सरकार भूल गई, सक्षम लोग जनवितरण प्रणाली का लाभ उठा रहे हैं। पहले हर महीने की 26 तारीख को ग्रामसभा का आयोजन होता था। अब तीन महीने, छह महीने पर इसकी बैठक होती है। जिसकी ऊपर तक पहुंच है, काम हो जाएगा, शेष मामले में लीपापोती तय है।

वासुदेव उरांव कहते हैं, हम ग्रामीणों की आस बहुत छोटी है। पिछली बार चुनाव में जब नेताओं का जमावड़ा लगा था। सड़क बनाने, पानी की टंकी बिठाने और गांव के इकलौता तालाब के सौंदर्यीकरण का दिलासा दिया था, परंतु सब ढाक के तीन पात। अगर इस तालाब का जीर्णोद्धार हो जाता तो आसपास के चार पांच टोलों की सौ एकड़ से अधिक भूमि को पानी मिल जाता। आदमी, जानवर सभी इस तालाब का इस्तेमाल करते हैं। सरकार ने मछली पालन का ठेका बाहरी को तो जरूर दे दिया, परंतु अगर मेढ़ भी टूट जाए तो गांव वाले ही बनाएंगे।

लखीदास उरांव का दावा है कि 95 फीसद ग्रामीण अपने सांसद का नाम तक नहीं जानते, फिर पहचानने की बात ही बेमानी है। जीतकर गए, फिर कभी झांकने तक नहीं आए। इस बार चुनाव मैदान में कौन खड़ा है, चौपाल में शामिल इक्के-दुक्के लोग ही बता पाते हैं। सुकनू 65 की हो चुकी है। वृद्धावस्था पेंशन के लिए डेढ़ वर्ष से परेशान हैं, 10 से 12 बार आवेदन दे चुकी है, पर उसका दर्द समझने वाला कोई नहीं है। सत्यनारायण युवा हैं, मजदूरी की तलाश में रोज सिल्ली, मुरी से लेकर रांची तक की दौड़ लगाते हैं। कहते हैं यह सही है कि जनहित में सरकार की कई योजनाएं चल रही हैं, परंतु सुदूर क्षेत्रों तक उसकी पहुंच आज भी नहीं के बराबर है। वे सवाल करते हैं कि सरकार का इतना लंबा-चौड़ा तंत्र है, फिर वह कैंप लगाकर ग्रामीणों की सुध क्यों नहीं लेती?

फूलचंद उरांव कहते हैं, चुनाव आ रहा है। एक बार फिर एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ होगी। सारे दल ग्रामीणों को अपनी ओर जबरन खींचने की कोशिश करेंगे। तरह-तरह के प्रलोभन मिलेंगे, पैसे-कौड़ी का खेल भी चलेगा। यह दशकों से होता आया है, इस बार फिर होगा। तोड़ने के लिए फिर लोक-लुभावन वादे किए जाएंगे। न गांव की तस्वीर बदलेगी, न ग्रामीणों की तकदीर। चौपाल में शामिल शत फीसद लोग गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना, आयुष्मान भारत, उज्ज्वला, सामाजिक सुरक्षा पेंशन जैसी योजनाओं की लगभग सबको दरकार है। टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ चुनिंदा लोगों को इनमें से कुछ योजनाओं का लाभ मिला है, शेष को आज भी इंतजार है।


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