Weekly News Roundup Ranchi: रंगभेद नीति पर हाथियों की पीड़ा, हमें हमारे हाल पर छोड़ दो
Jharkhand Political Updates. हाथियों का एक प्रतिनिधिमंडल इस सिलसिले में आला हुजूर से मिलने वाला है।
रांची, [आनंद मिश्र]। हाथियों की बिरादरी इन दिनों डिप्रेशन से गुजर रही है। इनका पूरा समाज हैरान और परेशान है। जिसे देखो नित नए खिलवाड़ बनाने पर तुला हुआ है। पिछले वाले विकास पुरुष ने पंख लगा कर उड़ा दिया था तो नए ने तीर धनुष वाले हुजूर को इनका रंग नहीं भाया। गलती इनकी भी नहीं है। ये तो अफसरों का खेल है। जो स्याह को सफेद बनाने की कला खूब जानते हैं। तो हो गया सफेद हाथी। ये भी न सोचा कि इन पर क्या बीतेगी। लेकिन यह सीधे-सीधे इनकी जमात पर हमला है। रंगभेद नीति का मामला बनता है। सुना है हाथियों का एक प्रतिनिधिमंडल इस सिलसिले में आला हुजूर से मिलने वाला है, अपनी पीड़ा लेकर। ज्ञापन देगा और कहेगा, हमें हमारे हाल पर छोड़ दो, चाहे राजकीय पशु का दर्जा ले लो।
रफू चलेगा, पैबंद नहीं
रफू तक तो चलता है लेकिन पैबंद अपनी झलक दिखा ही देता है। ये बदरंग सा पैबंद साफ दिखता है और खिल्ली भी खूब उड़वाता है। तो हुजूर को ऐसी घोषणा करने की जरूरत ही क्या थी, जिसका काम रफू से न चलें। विज्ञापन का पैबंद बात संभालने की जगह बिगाड़ रहा है। ये काम करेगा भी नहीं, क्योंकि विज्ञापन वाली सरकार का दौर बीत चुका है। अब मानवता की रक्षा की दुहाई दें या सरकार का असली मर्म समझाने का जतन। बात तो बिगड़ ही चुकी है। लखटकिया अध्यादेश के अध्याय कुछ इस कदर बिखरे हैं कि बटोरते नहीं बन रहे। कमल टोले वालों को भी लॉकडाउन में बड़ा मुद्दा हाथ लग गया है। हाथ-पैर धोकर पूरी टोली, सरकार के पीछे हो ली है। तो नसीहत यही है कि, बैकफुट हो लो। क्योंकि, वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोडऩा अच्छा...।
हमाम में सभी बिना मास्क के
लखटकिया कानून लागू हुआ हो या न हो, तकादा जरूर शुरू हो गया है। चिंता न करें, सरकारी सिस्टम से इसका कतई लेना-देना नहीं है। वह वैसे ही सुस्त है, जैसा उसे होना चाहिए। लेन-देन राजनीतिक दलों के बीच शुरू हुआ है। सरकारी खजाने की चिंता में दुबले हुए जातें हैं सभी। तगादा कमल दल की ओर से हाथ वाले खेमे के तीन शूरवीरों की बिना मास्क वाली तस्वीर साझा की गई है। तीन लाख की टिप्पणी के साथ। जवाब भी तिगड़ी के बगलगीरों ने कुछ तस्वीरों को पोस्ट करते हुए दिया है। कुल जमा 10 चेहरे दिखाए गए हैं, बिना मास्क वाले और थमा दिया है 10 लाख का नोटिस। इस नसीहत के साथ कि अपने तीन लाख घटा कर सात लाख जमा करा दें। तो इस सियासी लड़ाई में एक बात तो साफ हो गई है कि हमाम में सभी के मुंह नंगे हैं। बिना मास्क के।
नई किताब
लम्हों की खता। टाइटल किसी समानांतर सिनेमा के नाम का बोध करता है। सत्यजीत रे या श्याम बेनेगल जैसे चर्चित निर्देशक के निर्देशन में बनी फिल्म का। लेकिन यह फिल्म नहीं है, किताब है। इसके लेखक भी किसी सामानांतर सिनेमा के मजे हुए निर्देशक से कम तजुर्बा नहीं रखते। चारा वालों से जिक्र करेंगे तो बताएंगे, विस्तार से। लौह नगरी के थिंक टैंक की लेखनी ही उनका मारक हथियार है। उनकी नई किताब तमाम विवादों को अपने पन्नों में समेटे बस हाजिर है। आने से पहले ही खूब सुर्खियां बटोरी हैं। मार्केटिंग ही इतनी जोरदार की, वह भी बिना टका खर्च किए। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियों की क्लास लें तो सेल का ग्राफ मंदी के दौर में भी आकाश छुएगा। फंडा है, विवाद को हवा दो, रिजल्ट खुद ही सामने आ जाएगा। पिछले दिनों लौह नगरी में जो हुआ उसे कृपया किताब की मार्केटिंग से जोड़कर न देखें।