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झारखंड के प्रभारी रहे कांग्रेस के नेता आरपीएन सिंह के भाजपाई होने के निहितार्थ

कांग्रेस के एक खेमे में आरपीएन के जाने से बहुत उत्साह है। यह खेमा यहां तक आरोप लगा रहा है कि वह भाजपा के इशारे पर पिछले एक साल से झारखंड में गठबंधन सरकार को गिराने की साजिश रच रहे थे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 28 Jan 2022 11:11 AM (IST)Updated: Fri, 28 Jan 2022 11:13 AM (IST)
कांग्रेस के नेता आरपीएन सिंह अब भाजपा को प्रदान करेंगे मजबूती। फाइल फोटो

रांची, प्रदीप शुक्ला। दो दिन पहले तक कांग्रेस के झारखंड प्रभारी रहे पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह के भाजपा का दामन थाम लेने के बाद राज्य की गठबंधन सरकार में बाहर से तो फिलहाल सबकुछ ठीक-ठाक नजर आ रहा है, लेकिन अंदरखाने खदबदाहट है। राज्य में कांग्रेसी विधायकों की महत्वाकांक्षाओं से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से लेकर कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व तक भलीभांति वाकिफ है और इस पूरे घटनाक्रम पर गहरी नजर जमाए हुए है। राज्य के सिसायी तापमान को भांपने के लिए राहुल गांधी ने प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर को दिल्ली तलब कर वर्तमान हालात पर विस्तार से चर्चा की है। सभी दलों की अब उत्तर प्रदेश के चुनाव पर भी निगाह टिक गई है, क्योंकि राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा आम है कि अगर वहां भाजपा की सत्ता में वापसी होती है तो झारखंड में भी बड़ा उथल-पुथल हो सकता है।

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आरपीएन सिंह का बेशक झारखंड के मतदाताओं पर सीधे कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है, लेकिन पिछले चार साल से पार्टी के प्रदेश प्रभारी के रूप में कार्य करते हुए संगठन पर उनकी गहरी पकड़ रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के साथ गठबंधन से लेकर पार्टी के टिकट बांटने तक में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कांग्रेस के विधायकों पर भी उनका खासा असर है। खासकर पिछड़ा वर्ग के उन नेताओं से आरपीएन के संबंध काफी प्रगाढ़ हैं, जिन्हें टिकट दिलाने से लेकर जिताने तक में उन्होंने काफी मेहनत की थी। कुछ अपवाद छोड़ दें तो राज्य की मौजूदा पूरी टीम आरपीएन की स्वीकृति से ही बनी है। प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर का नाम उन्होंने ही बढ़ाया था। वहीं, चारों कार्यकारी अध्यक्ष भी उनकी पसंद से ही चुने गए थे।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर कह रहे हैं कि आरपीएन के भाजपा में जाने का कोई असर नहीं पड़ने वाला। उन्हें कांग्रेस ने पूरा मान-सम्मान दिया, लेकिन उन्होंने गलत निर्णय लिया। पार्टी पूरी तरह एकजुट है। आरपीएन के मुखर विरोधी पूर्व सांसद व केंद्रीय मंत्री फुरकान अली और उनके विधायक बेटे डा. इरफान अंसारी तो आरपीएन को भाजपा का घुसपैठिया तक करार दिया। 

हेमंत सोरेन के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार पूरी मजबूती से चल रही है, लेकिन यह सच भी किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेसी विधायक लगातार दिल्ली दौड़ लगाकर केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष खुद और पार्टी की उपेक्षा का आरोप लगाते रहे हैं। डा. इरफान अंसारी तो पूर्व में गठबंधन टूटने और सरकार अस्थिर होने तक की खुलेआम चेतावनी देते रहे हैं। तमाम प्रतिक्रियाओं के बीच कई विधायक पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे विधायकों पर पार्टी की निगाह है। उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में चुनाव और उनके परिणामों के बाद एक बार फिर झारखंड की राजनीति में हलचल हो सकती है। चुनावी राज्यों में कांग्रेस की स्थिति क्या रहती है इस पर विधायकों की नजर रहने वाली है, खासकर उत्तर प्रदेश में। पार्टी के एक धड़े का मानना है कि अगर वहां भाजपा सत्ता में वापसी करती है तो आरपीएन सिंह और मजबूत होंगे। इसके बाद भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व झारखंड पर नजरें जमा सकता है।

सत्ता में होने के बावजूद कई कांग्रेसी विधायक बहुत खुश नहीं हैं। कैबिनेट की खाली एक सीट पर भी कांग्रेसी विधायकों की नजर है। यह मांग भी उठती रही है कि कांग्रेस कोटे के मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा कर अब तक फेल साबित हुए लोगों को बाहर कर नए विधायकों को मंत्रिमंडल में मौका दिया जाए। पूर्व में एक-दो मंत्रियों पर कैबिनेट से बाहर होने की चर्चाएं होती रही हैं। ऐसे में झारखंड में कांग्रेस के नए प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडेय के सामने काफी चुनौतीपूर्ण हालात रहने वाले हैं।

राज्य में गठबंधन सरकार को सत्ता संभाले दो साल से ज्यादा समय गुजर गया है। कोविड के चलते पैदा हुई विपरीत परिस्थितियों के कारण विधायक चाहकर भी अपने क्षेत्रों में कोई बड़ी छाप नहीं छोड़ पाए हैं। 20 सूत्री कमेटियों के गठन में देर से भी कांग्रेस विधायक खासे नाराज हैं। चुनाव के वक्त कांग्रेस ने जो वादे किए थे वे भी अभी तक पूरे नहीं हुए हैं। इसके विपरीत झामुमो के संकल्प एक-एक कर धरातल पर उतर रहे हैं। कांग्रेसियों को इसका अहसास है कि उनके वोट बैंक पर धीरे-धीरे झामुमो की पैठ बढ़ती जा रही है। कांग्रेसी इसे स्वीकार भी कर रहे हैं, लेकिन वह ऐसी स्थिति में नहीं है कि अपनी ही सरकार के खिलाफ खड़े हो सकें। एक-दो विधायकों ने पूर्व में सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए हैं, लेकिन उन्हें भी नेतृत्व ने चुप करवा दिया। कई ऐसे कारक हैं, जिनमें राज्य की राजनीति में आरपीएन के भाजपाई होने के निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं।

[स्थानीय संपादक, झारखंड]


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