Chhath-Puja: सामाजिक समानता का सनातन उत्सव है छठ महापर्व
Chhath Puja 2019. चार दिनों के पर्व पर समाज में सामूहिकता का निर्माण होता है। बिना किसी कर्मकांड और आडंबर के महापर्व संपन्न होता है।
रांची, [दिव्यांशु]। सोशल प्लेटफॉर्म पर शुभकामना देकर डिजिटल होते त्योहारों वाले सामूहिक एकांत के इस दौर में छठ शायद एकमात्र बचा हुआ पर्व है जब हम समूह में होते या रहते हैं। दुर्गापूजा, दीवाली, होली को हमने फेमिनिस्ट और इनवायरमेंटल डिस्कोर्स में तब्दील कर दिया है। जबकि, छठ का मूल स्वभाव है कि यह पर्व अपने नाम के साथ सह अस्तित्व, नारी सशक्तीकरण और इको फ्रेंडली पर्यावरण के साथ जीवन के लिए जरूरी विकास का अहसास कराता है।
लोकपर्व छठ अब भले शिकागो से लेकर सिंगापुर तक फैल गया हो लेकिन कांच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाय का समुधुर गीत जब गूंजता है तो बिहार, यूपी समेत पूर्वांचल के एक-एक किसान की श्रद्धा और समृद्धि का भार भी जीवंत हो जाता है। इसी तरह केरवा से फरेला घवद से ओह पे सुग्गा मेडऱाय सुनते ही सस्टेनेबल डेवलपमेंट और बॉयोडायवर्सिटी के नाम पर दुकानदारी करने वाले आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक प्रायोजित सारे मॉडल पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन से बाहर निकलने का रास्ता तलाशने लगते हैं।
सालों से परिवार में छठ करते और देखते आ रहे झारखंड बार काउंसिल के पूर्व चेयरमैन और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राजीव रंजन कहते हैं कि जेंडर इक्ललिटी या लैंगिक समानता के लिए बात करने वालों को छठ गीत सुनना चाहिए। व्रती गीत गातीं हैं कि रुनकी झुनकी बेटी हे मांगीला पढ़ल पंडितवा दामाद। अल्ट्रासाउंड के जरिए लिंग परीक्षण पर रोक लगाकर सरकार भले ही आज अपनी पीठ थपथपाती हो लेकिन समाज सदियों से बेटी की कामना भगवान भास्कर से करता रहा है।
छठ इसका सबसे बड़े उदाहरण है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी और सप्तमी के दिन मनाया जाने वाले यह त्योहार आडंबर रहित है। सूर्य को तो हम हर दिन अघ्र्य देते हैं, यह इकलौता अवसर होता है जब हम सूर्य को संज्ञा सहित अघ्र्य देते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छ भारत अभियान राजनीतिक विमर्श के केंद्र में होकर वाद विवाद का विषय बनता है। जबकि हमारी छठ मइया सुतेली ओसरवा लट देली छितराय होकर स्वच्छ भारत की सबसे बड़ी प्रतीक सदियों से बनी हुई हैं।
आडंबर रहित इस त्योहार में पंडित जी का पतरा नहीं बल्कि व्रती का अचरा ही सबसे महत्वपूर्ण है। लोकगीतों और लोकमन से लोकजीवन को उत्सव रूप में मनाने की परंपरा है छठ। बांस के सूप में केला, नारियल, स्थानीय वनस्पति, आटा और गुड़ से बने ठेकुआ रखकर नदी या तालाब के किनारे खड़े होकर अर्घ्य देते व्रती को देखकर संपूर्ण सात्विकता की प्रतिमा साकार हो जाती है। कोई आर्टिफिशियल कंपोजिशन छठ के लिए स्वीकार्य नहीं है। दूसरे त्योहारों में आप तमाम भौतिक प्रसाधन खड़े कर सकते हैं पर छठ की पहली शर्त ही मौलिकता है। यह पूर्ण रूप से इको फ्रेंडली त्योहार है।
छठ सनातन का छठिहार है
लगभग 50 सालों से छठ कर रहीं सेवानिवृत्त शिक्षिका रीता झा कहती हैं कि छठ सनातन का छठिहार है। झारखंड में हमारी नदियां ऐसी हैं जिनसे हम संवाद कर सकते हैं। कोयल, शंख, मयूराक्षी इन नामों से ही ध्वनि का बोध होता है। प्रकृति से इसी संवाद का नाम है छठ। दो विपरीत ध्रुवों को साधना यानि अस्ताचलगामी सूर्य और उदीयमान भास्कर को अघ्र्य देने का अनुपम त्योहार है छठ।
प्रकृति का यही संतुलन हमें अपने जीवन में भी रखना होता है। घाट सबके लिए एक होते हैं। सूर्य सबके लिए एक समय पर उगते हैं। घाट तक जाने का रास्ता सबके लिए एक होता है। डूबते सूर्य को अर्घ्य देकर हम उनसे विनती करते हैं कि हमारी संतति के लिए विहान बनकर इसी दौर में, इसी जगत में फिर से आइए।