यहां प्रसव के बाद जच्चा-बच्चा को कर देते हैं घर से बाहर, नई जिंदगी से भी नहीं करते प्यार
बिरहोरों में ऐसी प्रथा है कि सर्दी हो या गर्मी घर से बाहर रहकर परंपरा का अनुपालन जरूरी है। अंधविश्वास में सदियों से बिरहोर समाज इस परंपरा को ढो रहा है।
चतरा, [जुलकर नैन/लक्ष्मण दांगी]। दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज मां बनना या किसी का पिता बनना होता है। घर में नवजात के आगमन के बाद अमूमन शहर में बच्चा होने के बाद पूरा घर व परिवार उल्लास में जुट जाता है। नवजात को प्यार करने लोग उमड़ पड़ते हैं, लेकिन बिरहोर समाज जच्चा-बच्चा को लिए अछूत मानते हुए घर की सीमा से सप्ताह भर के लिए बाहर कर देते हैं।
चाहे हाड़ हिला देने वाली ठंड हो, चिलचिलाती धूप हो अथवा मूसलाधार बारिश प्रसव के बाद बिरहोर समाज का जच्चा-बच्चा सप्ताह भर घर से बाहर टेंट में रहने को मजबूर होता है। इस दौरान दोनों अछूत माने जाते हैं उनसे व्यवहार भी उसी अनुरूप किया जाता है। अशिक्षा और अंधविश्वास की बुनियाद पर खड़ी इस कुप्रथा को बिरहोर समाज अब भी अपनाए हुए है।
हाल में संगीता बिरहोरिन ने भी इस सामाजिक कुप्रथा का अनुपालन करने के बाद ही घर में प्रवेश पा सकी है। कड़ाके की ठंड में वह सात दिनों तक बाहर रही। उसके लिए यह जिंदगी की कठिन परीक्षा के समान थी। जिले के गिद्धौर प्रखंड के जपुआ बिरहोर टोला निवासी राजकुमार बिरहोर की पत्नी संगीता ने जनवरी माह में एक बच्ची को जन्म दिया था।
प्रसव गिद्धौर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में हुआ। प्रसव के बाद से वह सात दिनों तक घर से बाहर रही। नवजात को लेकर घर से कुछ दूरी पर खुले आसमान के नीचे प्लास्टिक की घेराबंदी कर गुजारी। परिवार वाले वहीं पर उसे खाना- खुराक देते रहे। उनका कहना है कि यह सब परंपरा का हिस्सा है।
बिरहोर समाज इस परंपरा को सदियों से ढो रहा है। टोले के 65 वर्षीय बहरा बिरहोर कहते हैं कि इसमें नया कुछ नहीं है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। प्रसूता उसी का निर्वहन करती हैं। 60 वर्षीया नैकी बिरहोरिन कहती हैं कि ठंड हो, बरसात अथवा गर्मी- प्रसूता को सात दिनों तक बाहर में रहना ही है।
जागरूकता का अभाव है। बिरहोर समाज पुरानी सोच को ढो रहा है। उनके बीच जागरूकता को लेकर काम नहीं हुआ है। उन्हें जागरूक करने की आवश्यकता है। डा. सविता बनर्जी, सामाजिक कार्यकर्ता, चतरा।