यहां शादी के लिए होती खास शर्त, पहले बनाइए पत्तों की झोपड़ी तभी होगी शादी
marriage. युवाओं को शादी करने से पूर्व इस बात का सुबूत देना पड़ता हैं कि वे परिवार रखने और भरण-पोषण करने के काबिल हैं। इसके लिए उन्हें एक कुंबा बनाने को कहा जाता है।
जमशेदपुर [ दिलीप कुमार] । यहां शादी के लिए आदि काल से चली आ रही परंपरा जीवित है। शादी के इच्छुक युवक को खास शर्त पूरी करनी होती है। शर्त पूरी करने में विफल रहे तो शादी होने से रही है। यह शर्त है कुंबा बनाना। कुंबा यानी पत्ते की झोपड़ी।
दरअसल, झारखंड में अब भी कई ऐसी आदिम जनजातियां हैं जिन्हें पक्के मकानों और चहल-पहल में रहना पसंद नहीं। ऐसी ही एक जनजाति है सबर। घने जंगल में पेड़ों की टहनियों पर मचान बनाकर, पत्तों से कुंबा (झोपड़ी) बनाकर या गुफाओं में ही रहना अधिक पसंद करते हैं। सरकार विलुप्त होती इस आदिम जनजाति को मुख्यधारा से जोडऩे के लिए कई प्रकार की योजनाएं चला रही है। पक्के मकान देकर जंगल किनारे उन्हें बसाया जा रहा है।
साल के पत्तों से बनता कुंबा
इस समुदाय में कई रोचक परंपराएं आज भी प्रचलित हैं। ऐसी ही एक परंपरा युवकों की शादी को लेकर है। युवाओं को शादी करने से पूर्व इस बात का सुबूत देना पड़ता हैं कि वे परिवार रखने और भरण-पोषण करने के काबिल हैं। इसके लिए उन्हें एक कुंबा बनाने को कहा जाता है। यह साल के पत्तों से बनाया जाता है। शर्त यह होती है कि एक बूंद पानी कुंबा के भीतर नहीं जाना चाहिए। कुंबा के ऊपर कन्या पक्ष के लोगों द्वारा पानी डाला जाता है। अगर पानी अंदर चला जाता है तो उस युवक से बेटी की शादी नहीं करते हैं।
पानी नहीं चूने की होती शर्त
जिस कुंबा से पानी नहीं चूता है, यह माना जाता है कि युवक शादी कर परिवार चलाने लायक हो गया है। वह अपनी पत्नी को घर बनाकर दे सकता है। उसकी सुरक्षा कर सकता है। कोल्हान के सुदूर गांवों में अब भी यह परंपरा कायम है। लेकिन बदलते समय के साथ यह तेजी से लुप्त होता जा रहा है। एक चिंताजनक बात यह भी है कि सरकार के लाख कोशिश के बावजूद दिन ब दिन इस समुदाय की संख्या घटती जा रही है। इनके बसेरो का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। जंगल के बाहर यह समुदाय अपनी परंपराएं नहीं निभा पा रहा है।
वनोत्पाद ही जिंदगी का सहारा
आदिम जनजातियों की अद्भूत परंपरा को जीवित रखने के लिए सबसे पहले उनको उनका वास्तविक अधिकार देना होगा। वे आदिकाल से वन में निवास करते आए हैं। कंद, मूल और वनोत्पाद के सहारे ही जिंदगी गुजर बसर करते आए हैं। अब वन विभाग नित्य नए कानून बनाकर उनको वास्तविक जीवन से दूर, वनों से बाहर कर रहा है। विलुप्त होती आदिम जनजातियों को उनकी प्रकृति के हिसाब से रहने का इंतजाम करना होगा।
- सुकलाल पहाडिय़ा, कोषाध्यक्ष, पीजीटी डेवलपमेंट ट्रस्ट