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बेहद दिलचस्प है संयुक्त बिहार की पहली गहने की दुकान की कहानी, जानिए

101 वां स्थापना दिवस मना रही है इस आभूषण दुकान की कहानी काफी रोचक है। संयुक्त बिहार की पहली गहने की दुकान के संचालक ध्यान खींचने के लिए तांबा पीटते थे।

By Rakesh RanjanEdited By: Published: Sat, 09 Feb 2019 02:09 PM (IST)Updated: Sat, 09 Feb 2019 02:09 PM (IST)
बेहद दिलचस्प है संयुक्त बिहार की पहली गहने की दुकान की कहानी, जानिए
बेहद दिलचस्प है संयुक्त बिहार की पहली गहने की दुकान की कहानी, जानिए

जमशेदपुर, जेएनएन। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम के जमशेदपुर में छगनलाल दयालजी ज्वेलर्स एक जाना पहचाना नाम है। सौ साल पुरानी यह दुकान इस वर्ष 08 से 18 फरवरी तक अपनी स्थापना का 101 वां वर्ष मना रही है। इस दुकान के खुलने की कहानी बेहद दिलचस्प है। ध्यान खींचने के लिए दुकान में तांबा पीटा जाता था।

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गुजरात के धरोल गांव से एक कारीगर काम की तलाश में वर्ष 1911 में जमशेदपुर शहर पहुंचा। उनका नाम था छगनलाल दयालजी। औद्योगिक शहर होने के कारण उन्हें यहां रोजगार मिलने की उम्मीद थी। बिष्टुपुर बाजार के अंदर टीन के शेड में एक छोटी-सी दुकान खोली। लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए हथौड़ी से तांबा पीटते रहते थे। आवाज से लोगों का ध्यान उन्होंने अपनी ओर खींचा। वह गुजरात से स्वर्ण आभूषणों की कारीगरी सीख कर यहां आए थे। अपनी मेहनत के बूते उन्होंने वर्ष 1918 में पहली दुकान खोली। तब यह दुकान केवल जमशेदपुर शहर ही नहीं, बल्कि संयुक्त बिहार की पहली स्वर्ण आभूषण की दुकान थी। आज छगनलाल दयालजी के एक नहीं बल्कि इसी शहर में तीन दुकानें चल रही हैं।

विश्वसनीयता के बूते बनाई अपनी पहचान

वर्ष 1935 में जब बिष्टुपुर में भगवानजी नरसी बिल्डिंग बनी तो छगनलाल दयालजी ने अपनी दुकान यहां शिफ्ट कर ली। उस समय प्रदेश में स्वर्ण आभूषण विक्रेताओं का नाम बहुत खराब था। छगनलाल ने इसे बदलने का बीड़ा उठाया। विश्वनीयता को अपनी पहचान बनाई। सोने और चांदी के आभूषणों में शुद्धता का ख्याल रखा। साथ ही ग्राहकों को यह विकल्प दिया कि उनके आभूषणों में तीन वर्षों के अंदर कोई भी खराबी आती है तो वे उसे ठीक कर देंगे। फिर क्या उनका ये आइडिया चल निकला। वर्ष 1951 में भारत सरकार ने देश में वैल्युअर की सूची जारी की तो उसमें छगनलाल दयालजी संस्थान का भी नाम शामिल था। आलम यह रहा कि आयकर विभाग जहां भी छापेमारी करता और यदि स्वर्ण आभूषण बरामद होते तो उसकी पहचान और कीमत के आकलन के लिए यहीं से स्वर्णकार बुलाए जाने लगे।

तीसरी पीढ़ी के हाथों में है अब यह दुकान

छगनलाल दयालजी के बाद उनके आठ बेटों में से एक शशिकांत अडेसरा ने पिता के व्यापार को आगे बढ़ाया। आज उनके बेटे और भतीजे इस संस्थान और उसकी विश्वसनीयता को आगे बढ़ा रहे हैं। इनमें चेतन आडेसरा, मनीष आडेसरा व पीयूष आडेसरा शामिल हैं। इनके द्वारा बनाए गए स्वर्ण और डायमंड के आभूषण मानक के मामले में पूरे देश में विश्वसनीयता बनाए हुए हैं। डायमंड की क्वालिटी के लिए इन्हें इंटरनेशनल जेमोलॉजिक इंस्टीट्यूट से अवार्ड भी मिल चुका है।


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