बची रहे समाज की संस्कृति, इसलिए लगती हैं कक्षाएं
आधुनिकता की चकाचौंध से आदिवासी उरांव समाज में डर है कि उनकी पारंपरिक रीति-रिवाज संस्कृति सभ्यता व संस्कार लुप्त ना हो जाए। इसकी चिता शहर में रहने वाले उरांव समाज के लोगों को अधिक है। हालांकि यह समाज अपनी परंपराओं और पहचान को बचाए रखने के लिए पहल शुरू कर चुका है। इसके लिए बाकायदा कक्षाएं लगती हैं ताकि अगली पीढ़ी इनकी परंपरा रीति-रिवाज व नैतिकता को लेकर आगे बढ़े।
दिलीप कुमार, जमशेदपुर : आधुनिकता की चकाचौंध से आदिवासी उरांव समाज में डर है कि उनकी पारंपरिक रीति-रिवाज, संस्कृति, सभ्यता व संस्कार लुप्त ना हो जाए। इसकी चिता शहर में रहने वाले उरांव समाज के लोगों को अधिक है। हालांकि यह समाज अपनी परंपराओं और पहचान को बचाए रखने के लिए पहल शुरू कर चुका है। इसके लिए बाकायदा कक्षाएं लगती हैं ताकि अगली पीढ़ी इनकी परंपरा, रीति-रिवाज व नैतिकता को लेकर आगे बढ़े।
मानगो के शंकोसाई रोड नंबर पांच, सीतारामडेरा के उरांव बस्ती और बिरसानगर जोन नंबर छह में लगने वाली विशेष कक्षाओं में समाज के बच्चों को अपनी पारंपरिक सभ्यता, रीति-रिवाज व संस्कृति की जानकारी देने के साथ उसे अपनाने के लिए प्रेरित किया जाता है। कक्षा शुरू होने के बाद इसका फायदा भी सामने आने लगा है। अब समाज के बच्चे व युवा सामाजिक कार्य, पर्व-त्योहार में न केवल शामिल होने लगे बल्कि पारंपरिक वेशभूषा में रीति-रिवाजों का पालन भी करने लगे हैं।
यूं हुई परंपरा बचाने की शुरुआत
सरना स्थल पर और अखाड़े में होने वाली पूजा के मौके पर समाज के लोग साल में एक बार ही एकत्र होते थे। इसके बाद कोई पूजा स्थलों की ओर नहीं जाता था। बच्चे अपने धर्म व संस्कृति से विमुख होते जा रहे थे। इसको देखते हुए 15 वर्ष पूर्व समाज के दिवंगत बुधु लकड़ा, दिवंगत मंगल मिज, दिवंगत जतरु लकड़ा, एतवा खाखा, मुंशी तिर्की, सोमा खलखो, बधना तिर्की समेत कई लोगों ने मानगो शंकोसाई के सरना सथल व अखड़ा में सप्ताह में एक दिन पूजा का आयोजन करने का निर्णय लिया। जहां बच्चों को समाज की परंपरा, संस्कृति व सभ्यता की भी जानकारी दी जाने लगी।
तीन स्थानों पर लगती है विशेष कक्षाएं
मानगो के शंकोसाई में शुरू हुई कक्षा के बाद समाज के सीतारामडेरा और बिरसानगर शाखा ने भी बच्चों के लिए विशेष कक्षा शुरू की। फिलहाल लौहनगरी के तीन स्थानों में बच्चों के लिए विशेष कक्षाएं लगाई जा रही हैं। इनमें मानगो के शंकोसाई रोड नंबर पांच स्थित सरना स्थल में हर रविवार को, सीतारामडेरा सरना स्थल में हर रविवार को और बिरसानगर जोन नंबर छह स्थित सरना स्थल में हर गुरुवार को कक्षाएं चलती हैं।
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हमें आधुनिक बनना चाहिए, लेकिन अपने संस्कारों को नहीं भूलना चाहिए। संस्कृति और रीति-रिवाज हमारे जीवन में बहुत महत्व रखते हैं। इसके बगैर आने वाले समय में हमारा पतन स्वभाविक है। आधुनिकता की होड़ में संस्कृति, संस्कार व शिष्टाचार का पाठ पढ़ाने के लिए सरना स्थल में बच्चों के लिए विशेष कक्षाएं लगाई जा रही है।
- राकेश उरांव, जिलाध्यक्ष, आदिवासी उरांव समाज, पूर्वी सिंहभूम
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संस्कारों से व्यक्ति के चरित्र का पता लगाया जा सकता है। आज के समय में इसकी कमी दिखाई देती है। इसका एक कारण धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यो में कम समय देना भी हो सकता है। बच्चों को अपने धर्म, परंपरा और संस्कृति की जानकारी मिले और वे उसे अपनाएं, इसके लिए सरना स्थल पर लगने वाली विशेष कक्षाएं अपने उद्देश्य में सफल होती दिख रही हैं।
- लक्ष्मण मिज, आदिवासी उरांव समिति, मानगो