कालचक्र में फंसकर इतिहास बन गए जमशेदपुर के सिनेमा हॉल
जमशेदपुर शहर में सिनेमा हाल के बसने और उजड़ने की रोचक कहानी आपके दिल को छू जाएगी। इतिहास से भी रूबरू कराएगी।
वीरेंद्र ओझा, जमशेदपुर : अपनी लौहनगरी का इतिहास करीब 110 वर्ष ही पुराना है। टाटा स्टील की स्थापना 1907 में हुई थी। शुरुआती दौर में जैसे-तैसे शहर का ढांचा खड़ा किया गया। 1925-30 के दौर में मनोरंजन के लिए क्लब खोलने की प्रक्रिया शुरू हुई, जहां शनिवार व रविवार की शाम को प्रोजेक्टर से सिनेमा दिखाया जाता था। यहां कंपनी के अधिकारी व बड़े ठेकेदार फिल्मों का लुत्फ उठाते थे। कुछ वर्ष के बाद शहरवासियों के लिए मैदान में प्रोजेक्टर लगाकर रविवार को फिल्में दिखाई जाती थीं। शहर में कई ऐसे मैदान थे, जिनका नाम ही सिनेमा और रेडियो मैदान पड़ गया।
ऐसे ही समय में शहर के एक दूरदर्शी ठेकेदार सैयद तफज्जुल करीम ने वर्ष 1936 में जमशेदपुर टॉकीज खोला। उस वक्त मूक फिल्में चलती थीं, लिहाजा एक आदमी माइक से फिल्म की रनिंग कमेंट्री करता था। इसके बावजूद जब लोग ऊबने लगते थे, तो सिनेमा रोककर फिर नाच कराया जाता था। एक-दो साल बाद नाच की आवश्यकता कम होने लगी, क्योंकि वर्ष 1938 में पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' आई। सिनेमाघर भी टीन की दीवार और बोरे या टाट से बने थे। इसमें सिनेमा चलता चलता था। बोलती फिल्मों के आने से जब दर्शक बढ़ने लगे, तो वर्ष 1938 में ही शहर के एक पारसी परिवार (भरूचा) ने बिष्टुपुर में रीगल टॉकीज, वर्ष 1939 में एसटी करीम ने ही बर्मामाइंस में स्टार टॉकीज, वर्ष 1942 में जुगसलाई निवासी हरिनारायण पारिख ने साकची में बसंत, एसटी करीम ने वर्ष 1957 में करीम टॉकीज और वर्ष 1975 में बिष्टुपुर में नटराज टॉकीज खुला।
इसी बीच जुगसलाई में गोशाला टॉकीज और परसुडीह में श्याम टॉकीज भी खुले, लेकिन बंद हो गए। एक समय गम्हरिया का राधा सिनेमा और ओल्ड पुरुलिया रोड मानगो में पार्वती टॉकीज भी खासा लोकप्रिय था, लेकिन जब शहर में बड़े-बड़े सिनेमाघर खुल गए तो दर्शकों के अभाव में ये बंद हो गए। नब्बे के दशक में टीवी की लोकप्रियता ने शहर में सिनेमा की चमक को धुंधला करना शुरू कर दिया, तो बिहार सरकार द्वारा सिनेमाघरों को मनोरंजन शुल्क निश्चित करके रूपहले पर्दे पर काला पर्दा डाल दिया। कालचक्र का पहिया ऐसा घूमा कि दर्शकों की कम होती संख्या और टैक्स की मार से त्रस्त सिनेमाघर बंद हो गए। हालांकि एक बार फिर शहर में मल्टीप्लेक्स के अलावा मानगो में एक सिनेमाघर नई तकनीक से सिनेमाप्रेमियों के एक वर्ग को आकर्षित कर रहा है। फिलहाल शहर से सटे टाटा-रांची राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-33) पर तीन स्क्रीन वाला आइलेक्स और बिष्टुपुर में छह स्क्रीन वाला पीएम मॉल है, जहां युवाओं की अच्छी-खासी भीड़ उमड़ रही है। मल्टीप्लेक्स से एक बार फिर सिनेमा का क्रेज लौटता हुआ दिख रहा है।
------------
फोकटिया सिनेमा का भी था क्रेज
50-60 के दशक में शहरवासियों में फोकटिया सिनेमा का काफी क्रेज था। टाटा स्टील अपने कर्मचारियों के मनोरंजन के लिए रविवार को शहर के विभिन्न मोहल्लों में सिनेमा दिखाती थी। किसी मैदान में 35 एमएम के पर्दे पर फिल्म दिखाई जाती थी। हालांकि 1970-80 के दशक में यह भी बंद हो गया, लेकिन इसकी वजह से आज भी कई मोहल्लों के मैदान सिनेमा या रेडियो मैदान के नाम से लोकप्रिय हैं।
---------
नब्बे के दशक में खूब खुले वीडियो पार्लर
नब्बे के दशक में एक दौर ऐसा भी आया, जब सिनेमाहॉल होते हुए वीडियो पर फिल्में देखने का चलन बढ़ा। बड़े व संभ्रांत लोगों के घर में वीसीपी-वीसीआर से सिनेमा चलने लगा, तो व्यवसायिक उपयोग के लिए जगह-जगह वीडियो पार्लर खुल गए। कई सामुदायिक भवनों-परिसरों में नियमित शो चलने लगे, तो कुछ लोगों ने किराये पर घर, हॉल या भवन लेकर वीडियो पार्लर चलाना शुरू किया। धीरे-धीरे इसने मिनी थियेटर का रूप ले लिया, जहां बाकायदा बुकिंग काउंटर खुल गए। सिनेमा के पोस्टर तक लगने लगे। हालांकि यह भी बिना किसी वजह या विकल्प के बंद हो गया। स्मार्टफोन पर फिल्में देखने का शौक अब जाकर चढ़ा है, लेकिन बड़े पर्दे का कोई विकल्प नहीं है। शायद यही कारण है कि स्मार्टफोन सुलभ होने के बावजूद नई पीढ़ी मल्टीप्लेक्स का रूख कर रही है।