शहरनामा : शिक्षा, सत्याग्रह और प्रेम का संयोग
एक पढ़े-लिखे नेताजी शिक्षा योद्धा के रूप में अपनी पहचान बनाने में जुटे थे। उन्हें इसमें छत्तीस के आंकड़े वालों का भी साथ मिल गया। बस फिर क्या था शांतिपूर्वक आंदोलन शुरू कर दिया।
By Rakesh RanjanEdited By: Published: Mon, 11 Feb 2019 12:34 PM (IST)Updated: Mon, 11 Feb 2019 12:34 PM (IST)
v style="text-align: justify;">जमशेदपुर, जेएनएन। एकबारगी शिक्षा, सत्याग्रह और प्रेम का संबंध नहीं दिखता, लेकिन ऐसा भी हो सकता है। यह उन्हें अवश्य मालूम हो गया होगा, जिन्होंने पिछले दिनों इस घटनाक्रम को नजदीक से देखा-सुना होगा। एक पढ़े-लिखे नेताजी शिक्षा योद्धा के रूप में अपनी पहचान बनाने में जुटे थे। उन्हें इसमें छत्तीस के आंकड़े वालों का भी साथ मिल गया। बस फिर क्या था शांतिपूर्वक आंदोलन शुरू कर दिया, लेकिन दूसरी तरफ अशांति और भय का माहौल पैदा हो गया।
दूसरा पक्ष इतना भयाक्रांत हो गया कि उसे शांतिपूर्वक बैठे लोग भी आतंकवादी लगने लगे। ऐसा माहौल पैदा कर दिया जैसे उसके सामने भस्मासुर बैठ गया है। हरवे-हथियार लेकर उस जमीन पर टूट पड़े, तो नेताजी की शांति भी फुर्र हो गई। हल्ला ऐसा मचा कि उन्हें लाठी-डंडे से कूट दिया गया। अस्पताल के बिस्तर पर भी लेट गए, लेकिन मर्ज पता करने में डॉक्टरों के भी पसीने छूट गए।
इतने भर से मिल गया आराम
आखिरकार उन्हें एक-दो टैबलेट देकर विदा कर दिया गया। उन्हें भी इतने भर से आराम मिल गया। बात यहीं खत्म नहीं हुई, बल्कि यहीं से एक नए मामले का खुलासा हुआ, जब पता चला कि शिक्षा और सत्याग्रह तो बहाना था, असली राज तो प्रेम प्रसंग में छिपा था। आग तो पहले से सुलगी हुई थी, सत्याग्रह ने उसमें पलीता डाल दिया। दोनों ओर से केसा-केसी हुई और मामला शांत हो गया। अब नेताजी ने भी मन बना लिया है कि शिक्षा जाए भांड़ में, अपनी इज्जत घर में ही रहे, वही गनीमत है। नेताजी एक बार फिर चिट्ठी-पतरी लिखने वाले काम में मन लगा रहे हैं। शिक्षा को सरकार के भरोसे छोड़ दिया है।
डाकिये को ही थमा दी चिट्ठी
अपने यहां एक नेताजी हैं, जो पहले दिन से पानी पी-पीकर उसे ही आईना दिखाते रहते हैं, जिसके अधीन रहकर नेतागिरी चमका रहे हैं। बार-बार रूठना उनकी फितरत में है। पता नहीं कोई मनाने आता है कि कुछ मान जाते हैं, इसका आज तक खुलासा नहीं हो पाया है। वे कई बार अपनी जिम्मेदारियों से तौबा करने की बात कह चुके हैं। कल पता चला कि उन्होंने तौबा वाला खत लेटर बॉक्स में डालने की बजाय डाकिये के हाथ में थमा दिया है। अब वह चिट्ठी डाकिये की जेब में रहेगी या डाकघर तक जाएगी, कुछ पता नहीं। उधर खत पाने वाला बेचैन है कि उसे यह चिट्ठी कब मिलेगी। चिट्ठी मिली नहीं कि वह तुरंत गंतव्य तक पहुंचा देगा। इससे पहले ऐसा हो चुका है। अगले ने पिछली बार गलती से डाकघर में ही चिट्ठी फेंक दी थी। वह तत्काल गंतव्य को प्रेषित कर दी गई थी। उसका जवाब भी बिना देर किए मिल गया था। जैसे दूध का जला छाछ फूंक-फूंककर पीता है, इस बार अगले ने गलती नहीं की। इसलिए लेटर बॉक्स की बजाय ऐसे डाकिये को चिट्ठी दे दी, जो यहां कार्यरत ही नहीं है। जाहिर सी बात है कि वह चिट्ठी बाहर-बाहर ही घूमती रहेगी, क्योंकि उसमें पता ही गलत लिखा गया है।
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