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धनुष छोड़ थामी कुदाल, मजदूरी को मजबूर स्वर्ण विजेता तीरंदाज

देश को दो स्वर्ण पदक दिलाने वाला होनहार तीरंदाज आज मनरेगा में मजदूरी करने को मजबूर है।

By Sachin MishraEdited By: Published: Wed, 25 Oct 2017 10:05 AM (IST)Updated: Wed, 25 Oct 2017 04:40 PM (IST)
धनुष छोड़ थामी कुदाल, मजदूरी को मजबूर स्वर्ण विजेता तीरंदाज

जितेंद्र सिंह, जमशेदपुर। जिसने कभी दक्षिण एशियाई तीरंदाजी चैंपियनशिप में देश को दो स्वर्ण पदक दिलाए, भारत का वह होनहार तीरंदाज आज मनरेगा में मजदूरी करने को मजबूर है। 2008 में जमशेदपुर में हुई सैफ चैंपियनशिप में अशोक सोरेन ने दो स्वर्ण पदक जीते थे।

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जमशेदपुर स्थित भिलाई पहाड़ी इलाके में कच्ची मिट्टी से बने घर में रहनेवाले 28 वर्षीय इस युवा खिलाड़ी ने अब खेलना छोड़ दिया है। तीर-कमान छोड़ उसने कुदाल थाम ली है। देश को स्वर्ण पदक दिलाने की बजाय परिवार का पेट पालना अब उसकी प्राथमिकता है।

कहानी अशोक की:

अशोक सोरेन का तीर कभी निशाने से नहीं चूका, लेकिन जीवन का लक्ष्य तीरंदाजी से नहीं भेदा जा सकता है, यह उन्हें तब पता चला जब उनका साबका इससे पड़ा। अपने बचपन और युवावस्था को तीरंदाज के नाम कर देने वाले अशोक को इसके अलावा कुछ और आता भी नहीं था।

बचपन में ही सिर से पिता टुकलू सोरेन का साया उठ गया था। मां कंसावती ने अशोक व बड़े भाई का पालन पोषण किया। पढ़ाई में आगे बढ़ने की जगह अशोक ने तीरंदाजी में आगे बढ़ने की ठान ली। दोनों लक्ष्यों को साथ में लेकर चलने की सलाह उन्हे नहीं मिली। देवघर में तीरंदाजी का अभ्यास करना शुरू किया।

खेल में सफलता:

2005 में ट्राइबल स्पो‌र्ट्स मीट में जब उन्होंने रजत जीता, तो लगा अब कभी पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। सुबह उठते और जंगल में जाकर दिन भर निशाना साधते। बाद में भाई सनातन ने जेआरडी टाटा स्पो‌र्ट्स कॉम्प्लेक्स में बात की। जहां अशोक को मुफ्त प्रशिक्षण मिलने लगा।

स्कूल गेम्स में कांस्य अपने नाम किया। 2006 में उन्होंने राज्य स्तरीय जूनियर तीरंदाजी में रजत जीता। 2007 में राज्यस्तरीय सीनियर तीरंदाजी में एक स्वर्ण व दो रजत पदक जीते। सीनियर नेशनल तीरंदाजी के लिए चयन हुआ। इसमें भी कांस्य जीता। इसके बाद 2008 में सैफ तीरंदाजी चैंपियनशिप में अशोक ने धमाल मचा दिया। देश को दो स्वर्ण दिलाए।

जीवन में विफलता:

2008 में ही मां के निधन से अशोक को इतना सदमा पहुंचा कि उबर पाने में वक्त लगा। पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी उन्हें मजबूर कर दिया। परिवार के पास खेती को जमीन भी इतनी नहीं थी कि दो जून की रोटी मिल सके। बकौल अशोक, मरता क्या न करता। मनरेगा में मजदूरी करने लगा। लेकिन वहां भी सालों भर मजदूरी नहीं मिलती। साल में तीन महीने ही रोजगार मिलता है। किसी तरह जिंदगी कट रही है इस उम्मीद में कि शायद कोई सुध ले ले।

कोई नहीं पूछता। न तीरंदाजी संघ पूछता है और ना ही राज्य सरकार। मजदूरी के अलाव और क्या करूं। मनरेगा में भी साल में केवल तीन महीने ही काम मिलता है।

-अशोक सोरेन, तीरंदाज

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कौन बनना चाहेगा अशोक:

भारत में अशोक जैसे कई युवा मिल जाएंगे। जो गरीबी और संसाधनहीनता के बावजूद घोर संघर्ष के बूते देश को पदक दिलाते हैं। इसके बदले यदि उन्हें एक अदद नौकरी भी नसीब नही होगी, तो यही होगा। अशोक की दुर्दशा हमारे सामने है। इसे देखने-समझने के बाद देश की युवा पीढ़ी खेलों में आगे बढ़ने के बारे में दुविधा महसूस कर सकती है। क्या कोई दूसरा अशोक बनना चाहेगा? इधर हम स्पोर्टिग ने्शन बनने का ख्वाब देख रहे हैं।

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