तंत्र के गण : आजादी के बाद टाटा की धरती पर 1964 में हुआ था पहला दंगा, शांति स्थापित करने आए थे आचार्य विनोबा भावे
जमशेदपुर बहुआयामी संस्कृति को लेकर जाना जाता है। इसके बावजूद यहां दंगे हुए। पहला दंगा 1964 में हुआ था। इस दंगे को शांत करने के लिए आचार्य विनोबा भावे शहर पहुंचे थे। दो दंगों के बाद जमशेदपुर शहर में कुल मिलाकर शांति है।
जमशेदपुर (वीरेंद्र ओझा)। बहुसंस्कृति वाले जमशेदजी नसरवानजी टाटा का यह शहर सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता और शांतिपूर्ण माहौल के लिए ही जाना जाता है, लेकिन इस शहर में भी कुछ बदनुमा दाग लग चुके हैं। लगभग सभी धर्म, प्रांत व समुदाय के लिए यहां ना केवल धर्मस्थल बने हैं, बल्कि यहां देश भर के पर्व-त्योहार बड़े उल्लास से मनाए जाते हैं। इसका सभी समुदाय-संप्रदाय के लोग आनंद उठाते हैं।
इन सबके बावजूद जमशेदपुर में 1964 और 1979 में बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ था। 1979 के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण यहां आए थे। उनकी पहल पर शांति समिति का गठन किया गया था। उसके बाद से शहर में कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। इस दौरान लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेता-कार्यकर्ताओं ने सामाजिक सौहार्द के लिए काम किया। आज भी यहां शांति समिति की परंपरा कायम है, जो हर पर्व-त्योहार के दौरान सक्रिय होती है। तब से आज तक इस बहुसंस्कृति वाले शहर में ऐसा दंगा नहीं हुआ, जिससे पूरा शहर प्रभावित हो। कुछ इलाकों में छोटे-मोटे उपद्रव हुए हैं, लेकिन उस पर सामूहिक प्रयास से काबू पा लिया गया।
हम सबसे पहले आजादी के बाद इस शहर में हुए 31 अक्टूबर 1964 के दंगे की बात करते हैं। यह बांग्लादेश में मुस्लिम विरोधी दंगे की वजह से हुई थी, जिसमें जमशेदपुर के अलावा कोलकाता व राउरकेला तक इसकी आग फैली। इस दंगे में करीब एक हजार लोग मारे गए थे। इसकी गंभीरता को देखते हुए विनोबा भावे यहां आए और शांति समिति का गठन किया। शांति जुलूस निकला, सभाएं हुईं। इसके बाद पुलिस-प्रशासन व राजनीतिक दलों की सहभागिता से तनाव कम किया गया। लंबे समय तक शांतिपूर्ण माहौल रहा। इसके बाद 1979 में रामनवमी के दिन 11 अप्रैल को दंगा भड़का, जो मानगो से शुरू होकर गोलमुरी, भालूबासा, धतकीडीह, कदमा, सोनारी आदि इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया। करीब तीन दिन तक चले दंगे में 108 मौतें हुईं, जिसमें दोनों संप्रदाय के लोग शामिल थे। इस दंगे की आग को शांत करने लोकनायक जयप्रकाश नारायण आए। उन्होंने एक बार फिर शांति समिति बनाई, लेकिन इस बार यह शहर की बजाय थाना स्तर पर गठित की गई। इसमें दोनों संप्रदाय या कहें सभी संप्रदाय को शामिल किया गया। यह परंपरा आज भी शहर में कायम है, जो पर्व-त्योहार में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए सक्रिय होती है। अब भी इन शांति समितियों के कुछ लोग साल भर सक्रिय रहते हैं, ताकि भाईचारा कायम रहे।
सिख दंगा की आंच भी पहुंची
इस शहर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 31 अक्टूबर 1984 में दंगा हुआ, जिसे सिख दंगा के नाम से जाना जाता है। इसमें आदित्यपुर के तीन लोगों की हत्या हुई थी, लेकिन इससे करीब 89 सिख परिवार प्रभावित हुए थे। हाल के वर्षों में झारखंड हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को प्रभावित परिवारों को पांच-पांच लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश जारी हुआ था। इसके बाद 20 जुलाई 2015 की रात को मानगो में छेड़खानी मामले को लेकर दंगा हुआ था, जिसमें कुछ दुकानें जला दी गई थीं। कई दिनों तक तनाव भी रहा, लेकिन इसकी आंच दूसरे इलाकों तक नहीं पहुंच सकीं।
जेपी के आदेश पर विनोबा भावे के साथ आए थे चंद्रमोहन
बिष्टुपुर निवासी चंद्रमोहन सिंह आज रेडक्रास के लिए समर्पित हैं, लेकिन उनका इस शहर में आगमन 1966 में हुआ था। सिंह बताते हैं कि 1964 के दंगा के बाद विनोबा भावे यहां स्थायी शांति कायम करने के उद्देश्य से आ रहे थे। उस समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आदेश पर मैं विनोबा भावे के सेवक के रूप में समस्तीपुर से यहां आया और यहीं बस गया। यहां गांधी शांति प्रतिष्ठान की स्थापना हुई। इसी उद्देश्य से लोकनायक ने अयूब खान को भी यहां भेजा था, जो जमशेदपुर पश्चिमी से विधायक भी बने। शहर में शांति समिति के संचालन में हम पूर्णकालिक सदस्य के रूप में सक्रिय रहे। गोष्ठियों-सभाओं के माध्यम से बीच-बीच में सौहार्द व भाईचारा बढ़ाने के लिए काम करते थे। इसके बाद 1977 के जेपी आंदोलन में भी भाग लिया। सब कुछ के बावजूद मेरा मानना है कि यह शहर सबसे शांतिप्रिय है। नियमित रूप से अच्छे लोग सक्रिय रहें तो दंगा-फसाद नहीं होगा।