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बंगाल से लाते हैं दाना, इस दर्द को किसी ने नहीं जाना

दुमका संताल परगना में पलायन एक बड़ा मुद्दा है। जिसके समाधान की दिशा में आज तक किसी भी राजनीतिक दल या जनप्रतिनिधि ने कोई ठोस योजना को आकार देने की कोशिश तक नहीं की। दुमका के चारो विधानसभा दुमका जरमुंडी जामा एवं शिकारीपाड़ा के परिदृश्य में इसे देखें तो इसकी भयावहता बाढ़ की विभिषिका से कम नहीं है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 21 Nov 2019 04:39 PM (IST)Updated: Fri, 22 Nov 2019 06:15 AM (IST)
बंगाल से लाते हैं दाना, इस दर्द को किसी ने नहीं जाना
बंगाल से लाते हैं दाना, इस दर्द को किसी ने नहीं जाना

दुमका : संताल परगना में पलायन एक बड़ा मुद्दा है। जिसके समाधान की दिशा में आज तक किसी भी राजनीतिक दल या जनप्रतिनिधि ने कोई ठोस योजना को आकार देने की कोशिश तक नहीं की। दुमका के चारो विधानसभा दुमका, जरमुंडी, जामा एवं शिकारीपाड़ा के परिदृश्य में इसे देखें तो इसकी भयावहता बाढ़ की विभिषिका से कम नहीं है। आजादी के 67 साल के लंबे कालखंड के बाद भी संतालपरगना में रोजगार एक बड़ी समस्या है। खेत को पानी नहीं मिलने के कारण एक के बाद दूसरी खेती नहीं होती है। धान की खेती करने के बाद सभी बेरोजगार हो जाते हैं। अपना धान जितना हो पाया उसे काटकर बंगाल की ओर रूख कर लेते हैं। साल में दो बार बंगाल जाकर धान रोपनी से लेकर कटनी तक का काम करते हैं।

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जिनका खेत नहीं है वह तो बंगाल जाकर ही धान की रोपनी से लेकर कटनी तक का काम करते हैं। केंद्र से लेकर राज्य की सरकार ने भी कभी इसे बड़ा मुद्दा नहीं बनाया। पलायन को रोकने, रोजगार के नाम पर मजदूरी देने की मनरेगा की रोजगार गारंटी योजना अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाया। दुमका के तकरीबन 20 हजार मजदूरों के घर का चूल्हा बंगाल में धानरोपनी व धान कटनी से चलता है। यह जानकार ताजूब होगा कि बंगाल की खेती संताल मजदूरों के भरोसे चलती है।

साल में दो बार जाते बंगाल

दुमका रेलवे स्टेशन पर रामपुर हाट ट्रेन पर सवार होने जा रहे रामगढ़ पोखिरया के गंगा हेंब्रम ने कहा कि लहारेजोम ऊमा सोय बाद वोट। पहले पेट का इंतजाम करेंगे उसके बाद वोट देंगे। यानि कि वोट इसके लिए उतना मायने नहीं रखता। क्योंकि वोट देने से इसका पेट यहां नहीं भर रहा है। सोनेधन मसलिया के रहनेवाले हैं कहते हैं कि बंगाल में धानरोपनी एवं धानकटनी के लिए हर साल जाते हैं। दो पहाड़ी के राजेश मरांडी का कहना है कि अपना खेत है लेकिन पानी नहीं होने से खेती नहीं कर पाते हैं। बंगाल जाना मजबूरी है। वहां मजदूरी के नाम पर 250 रुपया प्रतिदिन मिलता है। इसके साथ दो किलो चावल प्रति व्यक्ति मिलता है। जैसे घर से चार आदमी मजदूरी करने जा रहे हैं तो आठ किलो चावल प्रतिदिन मिलेगा और ढाई सौ रुपया मजदूरी प्रति व्यक्ति मिलेगा। धान कटनी कर जब लौटते हैं तो साथ में मजदूरी में मिला चावल से यहां का राशन पूरा कर लेते हैं। यही सिलसिला साल में दो बार का होता है। गर्मी में अप्रैल के समय बंगाल में गरमा धान काटने का समय रहता है, तो उस वक्त भी जाते हैं। रानीश्वर के बनवारी गांव के बुधमनी का कहना है कि मजदूरी के लिए पुरुष बाहर चले जाते हैं गांव में केवल महिलाएं ही रह जाती हैं। दो पहड़ी के सुनील किस्कू का कहना है कि बंगाल में मजदूरी के साथ चावल नहीं मिले तो घर में चूल्हा जलना मुश्किल हो जाएगा।

2018-19 में 1949 परिवार को ही मिला 100 दिन काम

भारत सरकार की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा का मूल काम आधारभूत संरचना को विकसित करना था। रोजगार का ऐसा साधन तैयार करना था कि वहां स्थायी रोजगार सृजित हो जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। बीते वित्तीय वर्ष को देखें तो 72,835 परिवार को रोजगार दिया गया। लेकिन महज 1949 परिवार ने ही 100 दिन का काम पूरा किया। 2017-18 में 3379 परिवार को 100 दिन का काम मिलना भी इस बात को पुष्ट करता है कि मनरेगा में मजूदरों की कोई दिलचस्पी नहीं है। इसकी पड़ताल करने पर दो बात साफ झलकती है। एक तो मजदूरी कम है। केवल 171 रुपया मजदूरी मिलती है। वहीं बंगाल जाते हैं तो 250 रुपया के साथ दो किलो चावल। सरकारी व्यवस्था इतनी लचर है कि मनरेगा में नकद भुगतान के बजाए एक पखवारा या फिर महीना भर मजदूरी भुगतान लटका रहता है।

फैक्ट फाइल मनरेगा (2018-19) 2019-20 प्रखंड जॉबकार्डधारी 100 दिन का काम सृजित मानव दिवस

दुमका 17,339 205 231729

गोपीकांदर 7516 9 63548

जामा 24,305 36 221245

जरमुंडी 19,413 209 367963

काठीकुंड 11,456 347 142599

मसलिया 20,226 346 338153

रामगढ़ 28,537 210 659230

रानीश्वर 19,357 406 382344

सरैयाहाट 26,628 167 494020

शिकारीपाड़ा 20,697 14 193127


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