Move to Jagran APP

यहां आस्था की डोर से बंधे हैं सरना व सनातन धर्मी, प्रकृति पूजक आदिवासी और हिंदू साथ-साथ करते हैं मां काली की पूजा

धनबाद जिले के नक्सल प्रभावित टुंडी प्रखंड समेत राज्यभर के आदिवासियों ने दीपावली के दिन मां काली की पूजा की। आदिवासियों ने काली-दुर्गा के साथ-साथ इस मौके पर माता मनसा की भी पूजा की। सनातन धर्मावलंबियों की तरह आदिवासी भी मां काली की प्रतिमा बनाकर पूजा करते हैं।

By MritunjayEdited By: Published: Wed, 18 Nov 2020 07:08 AM (IST)Updated: Wed, 18 Nov 2020 01:52 PM (IST)
यहां आस्था की डोर से बंधे हैं सरना व सनातन धर्मी, प्रकृति पूजक आदिवासी और हिंदू साथ-साथ करते हैं मां काली की पूजा
धनबाद के टुंडी प्रखंड के चरककला स्थित मां काली मंदिर।

धनबाद [ रोहित कर्ण ]। झारखंड की राजनीति इन दिनों सरना कोड पर गर्म है। चर्च समर्थित एक वर्ग आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की मांग करता है, लेकिन जमीनी तौर पर कभी भी इस मांग को व्यापक समर्थन नहीं मिला है। काली पूजा के मौके पर भी झारखंड में सनातन धर्मी और आदिवासी साथ-साथ धूम-धाम से मां काली की पूजा करते नजर आए। खास बात यह है कि झामुमो ने जिस जमीन से अलग राज्य और सरना कोड की मांग शुरू की, वहीं के आदिवासियों का सनातन धर्म से गहरा लगाव आस्था की इस डोर को और भी मजबूत करता है। उनके पूजा-पाठ का तरीका एक है और देवी-देवता भी एक ही हैं।

loksabha election banner

धनबाद जिले के नक्सल प्रभावित टुंडी प्रखंड समेत राज्यभर के आदिवासियों ने दीपावली के दिन मां काली की पूजा की। आदिवासियों ने काली-दुर्गा के साथ-साथ इस मौके पर माता मनसा की भी पूजा की। सनातन धर्मावलंबियों की तरह आदिवासी भी मां काली की प्रतिमा बनाकर पूजा करते हैं। इस मौके पर काफी भीड़ जुटती है। ज्ञात हो कि इसी टुंडी से शिबू सोरेन ने सरना कोड की मांग उठाई थी, लेकिन आस्था के प्रबल प्रवाह के राजनीति के शिगूफे फुस्स ही हो जाते हैैं।

....जब जाताखूंटी में बनाया नया काली मंदिर

 बात वर्ष 1972 की है। शिबू सोरेन के नेतृत्व में अलग राज्य का आंदोलन चरम पर था। आदिवासी एकजुट हो रहे थे और तमाम गैर आदिवासियों को दिकू (शोषक) घोषित कर चुके थे। उनसे वह सांस्कृतिक संबंध तोडऩे की भी घोषणा कर रहे थे। इसका असर चरककला गांव में सामूहिक काली पूजा उत्सव पर भी पड़ा। विवाद बढ़ा तो जाताखूंटी के आदिवासियों ने चरककला के गैर आदिवासियों संग पूजा नहीं करने का फैसला ले लिया। तब इसी टुंडी प्रखंड के पोखरिया गांव में शिबू सोरेन (गुरुजी) का आश्रम था। बाद में सर्वसम्मति से जाताखूंटी गांव में मां काली का अलग मंदिर बनाया गया, जहां वर्ष 1973 से आज तक निर्बाध रूप से पूजा हो रही है। यहां काॢतक व आषाढ़ मास में पूजा होती है, जिसमें गांव के सभी 260 आदिवासी परिवार भाग लेते हैं।

चरककला में भी आदिवासियों ने ही शुरू कराई थी मूर्ति पूजा

जिस चरककला गांव से जाताखूंटी के आदिवासियों ने खुद को अलग किया, वहां भी मूॢत पूजा आदिवासियों ही शुरू करवाई थी। टुंडी राज परिवार के सदस्य मुकुंद नारायण सिंह 1870 में चरककला आए। वर्ष 1890 से उन्होंने काली पूजा शुरू की।  तब पिंड की पूजा की जाती थी। मूॢत पूजा चिहुंटिया में होती थी। एक वर्ष नदी में बाढ़ आने पर जाताखूंटी के आदिवासी चिहुंटिया नहीं जा सके। तब उन्होंने चरककला के आदिवासियों के सहयोग से वहीं मूॢत स्थापित की और मेले की परंपरा शुरू की थी। 1928 में यहां मंदिर बना।

क्या कहते हैं ग्रामीण

हमारे देवी-देवता एक हैं। बस पूजा पद्धति अलग है। हम पेड़ों के सामने बलि चढ़ाते हैं और धूप, दीप, फूल चढ़ाकर पूजा करते हैं। मंत्र भी अलग हैं, लेकिन पूजा तो मां मनसा, दुर्गा, काली की ही करते हैं। यहां तो प्रतिमा स्थापित कर भी पूजा करते हैं। ये परंपराएं कभी बदल नहीं सकतीं।

-दिनेश हेंब्रम, पंचायत समिति सदस्य, चरककला पंचायत सह अध्यक्ष जाताखूंटी काली पूजा कमेटी

कभी उनसे लड़ाई नहीं रही। आदिवासियों के कुछ गांवों में पूजा की विधि अलग है। आदिवासी जहां पूजा नहीं करते, वहां भी जाताखूंटी, केंदुआटांड़ के नाम पर बलि देते हैं। पूजा के संकल्प में भी उनका नाम लेते हैं। उसके बाद अपने गांव व पूर्वजों के नाम संकल्प लेते हैं। जहां तक कोड की बात तो यह कानूनी प्रक्रिया है।

-सहदेव नारायण सिंह, चरककला काली पूजा मंदिर के व्यवस्थापक

पूजा पद्धति व देवी-देवता एक होने पर भी हमें हिंदू नहीं माना जाता। इसलिए सरना कोड जरूरी है। जहां तक सभ्यता-संस्कृति व पूजा-पद्धति की बात तो वह जो पहले से है वही रहेगा। हमलोग तो सरना कोड में धर्मांतरित आदिवासियों को आने का भी विरोध कर रहे हैं। वे हमारे अधिकार छीन रहे हैं। इसमें भी हिंदू-आदिवासी और अन्य की लड़ाई है।

-हरिलाल हेंब्रम, पूर्व पंचायत समिति सदस्य, चरककला पंचायत

झारखंड में आदिवासी ही हिंदू मंदिरों के संरक्षक हैं। पहले हुए आक्रमण के दौरान भी उन्होंने ही मंदिरों का संरक्षण किया है। उनके हमारे आस्था के केंद्र व देवी-देवता एक हैं। देवघर स्थित बाबा मंदिर, पारसनाथ मंदिर, रजरप्पा स्थित छिन्नमस्तिका मंदिर के वे संरक्षक हैं । वर्ष में एक बार आज भी व्यवस्था उन्हीं के हाथ होता है। वे शिव व शक्ति के उपासक हैं।

-सरिता कुमारी, शोधार्थी, झारखंड का इतिहास।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.