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जामाडोबा में टाटा स्टील के क्वार्टर में बना था धनबाद का पहला गुरुद्वारा

देश की कोयला राजधानी धनबाद हमेशा सर्व धर्म समभाव का आदर्श प्रतीक रहा है। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में कोयला का खनन शुरू हुआ तो रोजी-रोटी की तलाश में आकर लोग बसने लगे।

By Deepak PandeyEdited By: Published: Sat, 17 Nov 2018 12:39 PM (IST)Updated: Sat, 17 Nov 2018 12:39 PM (IST)
जामाडोबा में टाटा स्टील के क्वार्टर में बना था धनबाद का पहला गुरुद्वारा
जामाडोबा में टाटा स्टील के क्वार्टर में बना था धनबाद का पहला गुरुद्वारा

जागरण संवाददाता, धनबाद: देश की कोयला राजधानी धनबाद हमेशा सर्व धर्म समभाव का आदर्श प्रतीक रहा है। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में कोयला का खनन शुरू हुआ तो रोजी-रोटी की तलाश में आकर लोग बसने लगे।

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धनबाद में पहला गुरुद्वारा बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में जामाडोबा तीन नंबर डुमरी में बना था। वहां टाटा स्टील की कई कोलियरी थी, जो अब भी हैं। कंपनी के क्वार्टर में पहला गुरुद्वारा बनाया गया था। वहां गुरु का निसान (पवित्र ध्वज) गाड़ा गया था। सिख समुदाय के मजदूरों के साथ अफसरों ने शबद कीर्तन शुरू किया। फिर चास, बोकारो से लेकर धनबाद में कई जगहों तक इसी गुरुद्वारा की जोत ले जाकर नए गुरुद्वारा की नींव रखी गई। ईश्वर सिंह ने पहले गुरुद्वारा की स्थापना और उसके संचालन में अहम भूमिका निभाई थी। ईश्वर सिंह टाटा स्टील के कर्मचारी थे, अत्यंत धार्मिक प्रवृति के थे। ईश्वर सिंह के पिता सरदार गंडा सिंह ईस्ट इंडिया रेलवे में मुलाजिम थे, जिसका मुख्यालय उन दिनों लाहौर में होता था। 1855-60 के बीच वे कोयलांचल आए थे।

झरिया गुरुद्वारा के लिए कालीदीन ने दी थी अपनी जमीन: झरिया में काली पुस्तकालय के संचालक कालीदीन जायसवाल अपनी पुस्तकें बेचने के सिलसिले में जोरापोखर, जामाडोबा, भौरा समेत आसपास के इलाके में जाते थे। वे एक थैले में हनुमान चालीसा, सोरठी वृजाभार, लैला-मजनू नाटक और गोरखपुर के गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तकें भर लेते थे, साइकिल के करियर में उस थैले को बांध कर घूमा करते थे। जामाडोबा में ईश्वर सिंह से परिचय हुआ। धीरे-धीरे घनिष्ठता बढ़ती गई। कालीदीन अपने मित्र ईश्वर सिंह से झरिया आने का आग्रह करते थे। ईश्वर सिंह यह कह कर असमर्थता जताते थे कि झरिया क्या जाय जहां एक गुरुद्वारा तक नहीं है। उनकी बात सुन कर कालीदीन को पीड़ा हुई थी। इसी कारण कालीदीन ने झरिया के कोयरीबांध के नजदीक अपने घर के पास गुरुद्वारा के लिए अपनी जमीन दी थी। इसके बाद उन्होंने अपने मित्र ईश्वर सिंह को झरिया आमंत्रित किया था। उत्साहित ईश्वर कोयरीबांध आएं और अपने मित्र से मिली जमीन पर गुरुद्वारा का निर्माण किया। जामाडोबा के क्वार्टर से रोजाना झरिया आना कठिन हो रहा था, तो कालीदिन के एक मकान को किराया पर ले लिया, वही रहने लगे। 1937 में गुरुद्वारा का निर्माण जब पूरा हुआ तो उसमें पूजा-पाठ की व्यवस्था की गई। तब कोयरीबांध के आसपास सिख परिवार नहीं रहते थे। उस गुरूद्वारा में भूले भटके ही कोई जाता था। ईश्वर सिंह ने परिचित सिख परिवारों को कोयरी बांध और गुरुद्वारा के इर्द-गिर्द बसने के लिए प्रेरित किया, सफलता भी पाई।

अग्रवाल धर्मशाला से प्रारंभ हुआ था पहला नगर कीर्तन: ईश्वर सिंह गुरुद्वारा में कोई न कोई आयोजन करते रहते थे। उन्होंने नगर कीर्तन निकालने की ठानी थी। उस समय कोयरीबांध गुरूद्वारा में जगह की काफी कमी थी। शहर के अग्रवाल धर्मशाला में तीन दिनं का भव्य कार्यक्रम हुआ था। ईश्वर सिंह के पौत्र इकबाल सिंह का दावा है, वह धनबाद में पहला नगर कीर्तन था।

गुरुद्वारा को भव्य बनाने में कोलियरी मालिकों ने भी दिया था योगदान: ईश्वर सिंह के भक्ति भाव के कारण कोलियरी मालिकों ने भी गुरुद्वारा को भव्य बनाने में योगदान दिया था। रामजश अग्रवाला, अर्जुन अग्रवाला, अमर सिंह बेदी जैसे कोलियरी मालिकों ने गुरूद्वारा के लिए समय-समय पर सहयोग किया। ईश्वर सिंह के साथ राय सिंह नामक व्यक्ति थे, जो गुरुद्वारा के प्रथम सचिव थे। राय सिंह झरिया में खासे लोकप्रिय थे। ईश्वर सिंह के बाद अमर सिंह बेदी गुरुद्वारा के प्रधान बने। उनके बाद दीवान चंद्र छाबड़ा, गुरुदयाल सिंह ने पद भार संभाला। ईश्वर सिंह के पुत्र हजारा सिंह ने भी गुरुद्वारा के विकास का हरसंभव प्रयास किया। फिलवक्त उनके पुत्र इकबाल सिंह पिता और पितामह के काम को आगे बढ़ा रहे हैं।

आखिरकार झरिया के रामनवमी अखाड़ा की जमीन गुरुद्वारा को मिल गई: झरिया के कोयरी बांध में जहां गुरुद्वारा की स्थापना हुई थी, उसके ठीक बगल में रामनवमी अखाड़ा था। इसके प्रमुख चूना हाड़ी थे। जब गुरुद्वारा का विकास हुआ तो जमीन की कमी होने लगी। तब रामनवमी अखाड़ा के लोगों ने अपनी जमीन गुरुद्वारा के लिए दे दी। इसके बाद गुरुद्वारा को और विस्तार हुआ। विद्यालय की भी स्थापना की गई, जिसका नाम गुरुनानक मिडिल स्कूल रखा गया।


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