Coal industry: गर निजीकरण हुआ तो राष्ट्रीयकरण से पूर्व जैसा होगा हाल, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा को तरसेंगे मजदूर
अंग्रेज ऑफिसर एच कुपलैंड ने बंगाल-बिहार के श्रमिकों का विधिवत पंजीयन किया। जन्म विवाह पारिवारिक विवरण आदि। इसी क्रम में उन्होंने मजदूरों के स्वास्थ्य का भी बारीक अध्ययन किया।
धनबाद [बनखंडी मिश्र ]। कोयला उद्योग में पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की लाई गई संभावित योजना के कारण तूफान मचा हुआ था। मजदूर संगठनों ने लगातार विरोध दर्ज कराया। हड़ताल कर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराने की पुरजोर कोशिशें हुई। बाद में मंत्री के आश्वासन पर मामला ठंडा हुआ है। दरअसल, अब भय यह है कि उद्योग निजीकरण की ढलान पर क्रमश: ढुलकता जा रहा है। निजीकरण का नाम सुनते ही लोगों के मन में कई तरह की आशंकाएं उभर कर आती हैं। मसलन जो सुविधाएं उन्हें अभी मिल रही हैं, वे न केवल उनसे दूर हो जाएंगी बल्कि दबाव और मानवीय पहलुओं को ताक पर रखकर उनसे काम लिया जाएगा। अभी तो कोल कंपनियों से जुड़े श्रमिकों या कर्मियों को कंपनी के अस्पताल से लेकर देश के बड़े सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में इलाज कराने की सुविधा मिली हुई है। लेकिन एक समय ऐसा भी था (राष्ट्रीयकरण एवं आजादी से पूर्व) मजदूरों या कर्मियों के बीमार पडऩे की स्थिति में उन्हें अपने हाल पर खान मालिक छोड़ दिया करते थे। यदि स्थिति बहुत ज्यादा गंभीर हो जाती थी तो कोई हकीम या वैद्य बुलाए जाते थे, जो मरीज का इलाज अनमने ढंग से किया करते थे। हां रोग का भी नाम कभी नहीं बताया करते थे। एक अंग्रेज ऑफिसर श्री एच कुपलैंड ने बंगाल-बिहार के श्रमिकों का विधिवत पंजीयन किया था। जन्म, विवाह, पारिवारिक विवरण आदि। इसी क्रम में उन्होंने मजदूरों के स्वास्थ्य का भी बारीक अध्ययन किया था।
कुपलैंड की रिपोर्ट के मुताबिक अधिकांश बीमारियों में अफीम, कर्पूर, काला नमक, जंगली पौधों की जड़ी-बूटी उनदिनों की सर्वप्रचलित दवाइयां थीं। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि खान मालिक मजदूरों के लिए दवा की व्यवस्था तभी करते थे, जब उन्हें यह भरोसा होता था कि वह भला-चंगा होकर दूसरे खदान मालिक के पास नहीं चला जाएगा। ऐसे जीवनदानी मजदूरों की किसी भी गतिविधि को भांपना भी कठिन काम होता था।
यूं बंगाल में वर्ष 1873 में ही खदानों के लिए एक कानून (बंगाल डेथ एंड रजिस्ट्रेशन एक्ट) लागू हो गया था। वही कानून बिहार राज्य (22 मार्च 1912 को बंगाल से अलग होने तक) में भी चलता रहा। वर्ष 1912 से पूर्व तक बिहार, बंगाल एवं ओडिशा एक ही प्रांत थे। वर्ष 1936 में बिहार को ओडिशा से अलग किया गया।
कोयला खदानों में काम करनेवाले मजदूरों के परिवार का जन्म-मरण का आंकड़ा, गांव का चौकीदार जुटाता था। कानूनी तौर पर वह सबसे नीचे पायदान का सरकारी मुलाजिम होता था। लेकिन खदान क्षेत्र में इसका भी दबदबा कम नहीं रहता था। खदान मालिकों के चंद सिक्कों के आगे उनकी बोलती प्राय: बंद ही रहती थी। ये चौकीदार अपने-अपने थाना क्षेत्र की पूरी रिपोर्ट अपने अफसरों को पहुंचाते थे और जन्म-मरण खाता में दर्ज करवाते थे। थानेदार अपनी यह रिपोर्ट झरिया माइंस बोर्ड ऑफ़ हेल्थ के मेडिकल ऑफिसर के पास पहुंचाते थे। दूसरी तरफ प्रत्येक खदान मालिकों के लिए भी यह अनिवार्य था कि अपने स्तर पर इस तरह की रिपोर्ट माइंस बोर्ड कार्यालय में दर्ज कराएं। दोनों सूचनादाताओं की रिपोर्ट में यदि किसी प्रकार का अंतर पाया जाता था तो बोर्ड ऑफिस से कानूनी कार्रवाई होती थी। अक्सर इस तरह की कार्रवाई रिश्वत के अस्त्र से विफल कर दी जाती थी।
झरिया माइंस बोर्ड ऑफ़ हेल्थ से जन्म-मरण आदि की रिपोर्ट पटना स्थित ब्यूरो ऑफ़ इकॉनॉमिक्स एंड स्टैटिस्टिक्स के पास भेजी जाती थी। राज्य सरकार का यह महकमा खदान में काम करने वाले श्रमिकों और उनके परिवार के लिए स्वास्थ्य संबंधी पैकेज का प्रबंध करता था। लेकिन मानवीय दुर्बलता कहिए या नौकरशाही का जटिल जाल, कामगारों को किसी तरह की भी सुविधा पाने में कई घाटों का पानी पीना पड़ता था। विभागीय भागदौड़ के लिए बटखर्चा और दफ्तरों में खर्चने के लिए बख्शीश के कारण उनका घोर आर्थिक शोषण होता था। वे एक खदान से दूसरी खदान में मजदूरी पाने के लिए भटकते रहते थे।
कामगारों को जिन प्राणघातक बीमारियों का हमला झेलना पड़ता था उनमें श्वांस संबंधी बीमारियां, खांसी, दमा और पाचन क्रिया से संबंधित पेचिस, हैजा आदि प्रमुख थीं। मद्यपान करने वाले मजदूर टायफाइड, यक्ष्मा, कुष्ठ और यौन रोगों से ग्रसित रहते थे। इन रोगों के इलाज के लिए सरकारी तौर पर कुछ छोटे अस्पताल भी बाद में खोले गए थे। वे केवल ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही थे।