धन-संपत्ति लुटा अध्यात्म की राह चली चार्मी और हीरल, जानिए जैन धर्म में दीक्षा प्रक्रिया और महत्व Dhanbad News
जैन धर्म के प्रख्यात संत नम्र मुनि जी महाराज के सानिध्य में संयम अंगीकार कर वह साध्वी बनेगी। स्नातक उत्तीर्ण चार्मी का प्रारंभ से ही आध्यात्म की ओर झुकाव था।
झरिया, जेएनएन। जिस उम्र में लोग भविष्य के सपने संजोते हैं, सैर सपाटा और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स में मन रमाते हैं। उस उम्र में जैन धर्म से जुड़ी झरिया में रहने वाली 28 स्नातक उत्तीर्ण चार्मी बेन और कोलकाता की हीरल मोह-माया को त्याग तप और तपस्या की राह पर निकल पड़ी हैं। इससे पूर्व सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिए दोनों ने बुधवार को वरसी दान (सांसारिक वस्तुओं यथा आभूषण और धन का त्याग) की परंपरा पूरी की। चार्ली अपने माता-पिता, परिजनों और सहेलियों से सांसारिक जीवन के तहत अंतिम बार मिली। इसके साथ ही संयम अंगीकार कर सांसरिक दुनिया से दूर होकर ज्ञान पाने की राह पर चल पड़ी।
ढोल की गूंजती आवाज, इस गूंज पर थिरकते भक्त, लाल रंग की कार में सवार दोनों हाथ जोड़े झरिया की बेटी चार्मी (28) व कोलकाता की बेटी हीरल (23), जय महावीर व जय जिनेंद्र की जयकार, फिजाओं में आध्यात्म की लहरें। कुछ ऐसा ही था बुधवार को झरिया का नजारा। मौका था जैन धर्म की मुमुक्षु चार्मी और हीरल के साध्वी बनने की राह की अहम परंपरा वरसी दान का। इस दौरान निकली शोभा यात्रा में दोनों ने धन, आभूषण और अनाज लुटाकर परंपरा का निर्वहन कर सांसारिक जीवन त्याग आध्यात्मिक जगत में प्रवेश किया। 18 नवंबर को कोलकाता में दोनों को जैन धर्म के प्रख्यात संत नम्र मुनि जी महाराज दीक्षित करेंगे। इसके बाद भौतिक दुनिया से नाता तोड़ दोनों आध्यात्म की दुनिया में साध्वी बन आत्म साक्षात्कार की दिशा में बढ़ेंगी और प्राणि जगत के कल्याण के काम करेंगी।
चार्मी सांसारिक जीवन के तहत अंतिम बार अपने पिता देवेंद्र भाई संघवी, मां शीला बेन संघवी व परिजनों और सहेलियों से मिली। उसने तीन वर्ष पहले घर छोड़ संत नम्र मुनि के सानिध्य में मुमुक्षु (साध्वी बनने की योग्यता पाने के लिए तप करने वाली) जीवन अपनाया था। श्रीश्वेतांबर स्थानकवासी जैन संघ की ओर से फतेहपुर जैन उपाश्रय से गाजे-बाजे के साथ भव्य शोभायात्रा निकाली गई। बरसी दान परंपरा के तहत चार्मी और हीरल शहर का भ्रमण कर अग्रसेन भवन पहुंची। शोभायात्रा में शामिल श्रद्धालु इस दौरान भाव विभोर होकर नाच रहे थे। शोभायात्रा में चास, बोकारो, धनबाद, झरिया के अलावा अन्य जगहों से आये जैन समाज के लोग शामिल हुए। स्थानकवासी जैन संघ के अध्यक्ष दीपक उदानी ने कार्यक्रम का संचालन किया। हिमांशु दोषी, भावेश दोषी, गिरीश वोरा, सुरेश कामदार, भरत मोदी, नैना मोदी, हरीश जोशी, केपी तिवारी, अश्विनी संघवी, अशोक संघवी, परेश सेठ, रमेश संघवी, विजय मेहता, जिग्नेश जोशी, महेश बजामिया, हर्षद दोषी, सीमा कामदार, पार्षद सुमन अग्रवाल, किरण वाटविया, हिना मेहता, प्रवीण मेहता आदि थे।
बिटिया के साध्वी बनने की हमें बेहद खुशी : चार्मी के माता-पिता ने कहा कि बेटी जैन धर्म की राह पर चली है। हमलोग काफी खुश हैं। वह सांसरिक जीवन का त्याग कर सभी के कल्याण के बारे में सोचेगी। आत्म साक्षात्कार कर ज्ञान पाएगी। चार्मी की नानी 88 वर्षीय नर्मदा बेन जेठवा तो इस मौके पर खुशी से नाचते-नाचते रो पड़ीं। मौसा परेश सेठ, चार्मी की बड़ी बहन अमी संघवी का कहना था कि धर्म की राह पर चली चार्मी ने परिवार का नाम रोशन कर दिया। अग्रसेन भवन में सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुतियों के साथ चार्मी व हीरल को विदाई दी गई।
जैन धर्म के प्रख्यात संत नम्र मुनि जी महाराज के सानिध्य में संयम अंगीकार कर वह साध्वी बनेगी। स्नातक उत्तीर्ण चार्मी का प्रारंभ से ही आध्यात्म की ओर झुकाव था। जीवन क्या है, इसका क्या मकसद है, जैसे कई प्रश्न उसे कचोटते रहते थे। तब निर्णय लिया कि अंतस में ज्ञान का प्रकाश फैलाने को संयम की राह पर चलेंगे। तीन वर्ष पहले माता-पिता की आज्ञा ली और राष्ट्र संत नम्र मुनि जी महाराज के सानिध्य में मुंबई पहुंच गई। यहां तप किया। इसी क्रम में अब वरसी दान की परंपरा बुधवार को पूरी की।
दो वर्ष पूर्व झरिया की परी बनी थी साध्वी : झरिया की एक अन्य बिटिया परी भी दो साल साध्वी बन गई थी। वरसी दान की परंपरा के दौरान उसने झरिया का भ्रमण किया था। परी को अब परम पावंता महासती के नाम से लोग जानते हैं। दो वर्ष के दौरान झरिया की दो बेटियां सांसारिक जीवन त्याग कर धर्म की राह पर बढ़ी हैं।
जैन धर्म में दीक्षा की प्रक्रिया और महत्वः जैन धर्म में दीक्षा का बड़ा महत्व है। वैसे तो सनातन धर्म में भी सन्यास आश्रम का महत्व बताया गया है परन्तु जैन धर्म में दीक्षा का तरीका और उसका पालन काफी कठिन है। जैन धर्म में इसे 'चरित्र' या 'महानिभिश्रमण' भी कहा जाता है। सनातन धर्म की तरह यहां चुपचाप दीक्षा नहीं ले ली जाती, बल्कि पूरा समाज, रिश्तेदार और वरिष्टजनों के साथ मिलकर एक समारोह आयोजित होता है। इस दीक्षा समारोह में लड़के साधु और लड़कियां साध्वी बन जाती हैं। यह समारोह ठीक वैसा ही होता है, जैसे कोई शादी का आयोजन। यानि दीक्षा लड़के लें चाहें लड़कियां वे सांसारिक जीवन और मोह त्यागने के पहले हंसी खुशी से विदा होती हैं। दीक्षा लेने से पहले ठीक शादी की रस्मों की तरह उन्हें हल्दी लगती है, फिर मेंहदी लगाई जाती है। मंडप सजता है जहां लड़कियां सज-धज कर दुल्हन की तरह तैयार होती हैं और लड़के भी आखिरी बार सबसे ज्यादा अच्छे वस्त्र धारण करते हैं। फिर घर से समारोह स्थल तक गाजे-बाजे के साथ बारात निकालती हैं। परिवार के लोग बेटी या बेटे को आखिरी विदाई देते हैं। समारोह स्थल पर जैन अनुयायी, धर्मावलंबी और मुनि आदि उपस्थित रहते हैं। जिनके मंत्रोचार के बीच दीक्षा आसान पर व्यक्ति को बिठाया जाता है। वहां वह एक-एक करके अपने साजो-श्रंगार उतार देता है। पुरूष वस्त्र त्याग देते हैं. जबकि, स्त्रियां हाथ की बुनी हुई सफेद सूती साड़ी लपेट लेती हैं। गुरूओं से दीक्षा ली जाती है और फिर परिवार की ओर मुड़कर नहीं देखते। दीक्षा का सबसे कठिन और अहम पड़ाव 'केश लुंचन' होता है। यानि बिना किसी कैंची या रेजर की मदद से स्वयं अपने सिर के बालों को नोंच कर अलग किया जाता है। यह प्रक्रिया सबसे पीड़ादायक होती है। कई बार तो सिर में जख्म हो जाते हैं पर बाल निकालने का क्रम जारी रहता है। दीक्षा के बाद सभी मुनि और साध्वी साल में दो बार केश लुंचन करती हैं। पुरूष अपनी दाढ़ी-मूंछों के बाल भी इसी प्रकार त्यागते हैं। केश लोचन के पहले साधु-साध्वी शरीर को राख से रगड़ते हैं, फिर गुच्छों में शरीर के बालों का लोचन करते हैं। दाढ़ी-मूंछों के बाल भी इसी प्रकार त्यागते हैं। केश लोचन के पहले साधु-साध्वी शरीर को राख से रगड़ते हैं, फिर गुच्छों में शरीर के बालों का लोचन करते हैं।