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रफूगरी का हुनर सिखाने के लिए कार्यशाला शुरू

राज्य ब्यूरो, श्रीनगर : रफूगरी, कपडे़ में सुराख या फिर किसी कपड़े के खराब हिस्से को सु

By JagranEdited By: Published: Mon, 17 Sep 2018 10:06 PM (IST)Updated: Mon, 17 Sep 2018 10:06 PM (IST)
रफूगरी का हुनर सिखाने 
के लिए कार्यशाला शुरू
रफूगरी का हुनर सिखाने के लिए कार्यशाला शुरू

राज्य ब्यूरो, श्रीनगर : रफूगरी, कपडे़ में सुराख या फिर किसी कपड़े के खराब हिस्से को सुई और धागे से सिलाई करना ताकि कोई आसानी से उस हिस्से को पहचान नहीं पाए। इस महीन कला को जानने वाले कश्मीर के कारीगरों की दुनिया में कोई सानी नहीं थी, लेकिन लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी इस कला के संरक्षण, प्रोत्साहन और नए कारीगरों को तैयार करने के इरादे से सोमवार को ग्रीष्मकालीन राजधानी में छह दिवसीय कार्यशाला शुरू हुई।

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इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (इंटैक) कश्मीर चैप्टर की ओर से कम्यूनिटी क्राफ्ट एंड हेरिटेज डिवीजन इंटैक नई दिल्ली के साथ मिलकर एसपीएस म्यूजियम में आयोजित की जा रही कार्यशाला का उद्घाटन निदेशक अभिलेखागार, पुरातत्व एवं संग्रहालय मुनीर उल इस्लाम ने किया।

इस मौके पर इंटैक कश्मीर चैप्टर के संयोजक मोहम्मद सलीम बेग व अन्य अधिकारी भी मौजूद थे। 22 सितंबर तक चलने वाली इस कार्यशाला में उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद और श्रीनगर के पुराने शहर के रफूगरी में विशेषज्ञ कारीगर नए कारीगरों को रफूगरी का हुनर सिखाएंगे। वह इस कला की बारीकियां और कपड़े से सुई के जरिये धागा निकाल उसकी मरम्मत करना सिखाएंगे।

निदेशक अभिलेखागार मुनीर उल इस्लाम ने कहा कि रफूगरी की कार्यशाला का मकसद सदियों पुरानी इस कला को संरक्षण और प्रोत्साहन के साथ आजीविका का साधन उपलब्ध कराना है। रफूगरों की इस समय बहुत कमी है। कश्मीर में बनने वाले पश्मीना, शाहतूश और जामवार के शॉल बहुत महंगे होते हैं। कई लोगों के पास जब यह शॉल खराब हो जाते हैं तो उन्हें मरम्मत के लिए सही कारीगर नहीं मिलते क्योंकि अब रफूगर नहीं हैं। इसलिए अगर लोग इस हुनर को सीखते हैं तो उनके लिए आजीविका का साधन सामने होगा। उन्होंने बताया कि पहले चरण में हमने इस कार्यशाला में 19 लोगों को रफूगरी सीखने के लिए चुना है।

इंटैक कश्मीर चैप्टर के संयोजक मोहम्मद सलीम बेग ने कहा कि हमारा मकसद इस कला को बचाना, संरक्षित करना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना है। हस्तशिल्प विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि राज्य में महाराजा के समय कश्मीर में लोग 56 प्रकार की कढ़ाई, बुनाई और दस्तकारी जानते थे, लेकिन आज सिर्फ 26 बची हैं और उनमें रफूगरी मिटने के कगार पर पहुंच गई है। पिछले 30-40 वर्षो में रफूगरों की संख्या नाममात्र रह गई है। हालात यह है कि हस्तशिल्प विभाग में रफूगरी के लिए क्राफ्ट इंस्ट्रक्टर के पद के लिए किसी ने आज तक आवेदन नहीं किया है। यह पद आज भी रिक्त है।

कार्यशाला में मौजूद एक शॉल निर्माता गुलाम मोहम्मद ने कहा कि पहले यहां किसी भी कढ़ाई वाली दुकान, दर्जी या फिर ड्राईक्लीनर के पास रफूगर मिल जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। कई बार हमें अपने महंगे शॉल मरम्मत के लिए बाहर भेजने पड़ते हैं। यह कार्यशाला हमारे लिए बहुत फायदेमंद है। अगर यहां पर्याप्त संख्या में रफूगर होंगे तो हमें ही फायदा होगा। यहां की शॉल इंडस्ट्री को लाभ होगा।


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