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जीवनभर पाक परस्त सियासत को आगे बढ़ाने वाले गिलानी के इस्तीफे से ISI की रणनीति को बड़ा झटका

जमात के संविधान के मुताबिक उसका कोई भी कार्यकर्ता या नेता किसी सियासी दल या संगठन में नहीं जा सकता। इसके विपरीत गिलानी को जमात ने तहरीक-ए-हुर्रियत के गठन की अनुमति दी।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Tue, 30 Jun 2020 11:18 AM (IST)Updated: Tue, 30 Jun 2020 04:33 PM (IST)
जीवनभर पाक परस्त सियासत को आगे बढ़ाने वाले गिलानी के इस्तीफे से ISI की रणनीति को बड़ा झटका
जीवनभर पाक परस्त सियासत को आगे बढ़ाने वाले गिलानी के इस्तीफे से ISI की रणनीति को बड़ा झटका

श्रीनगर, राज्य ब्यूरो : कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी सियासत के प्रमुख ध्रुव रहे कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी के इस्तीफे से निश्चित तौर पर आइएसआइ की रणनीति को बड़ा झटका लगा है और उनका कश्मीर में अंतिम बड़ा मोहरा पिट गया है। गिलानी का इस्तीफा कश्मीर में बदलते हालात और पाकिस्तान के सिमटते प्रभाव का भी बड़ा सुबूत है। कभी एक आदेश पर कश्मीर को बंद करवा देने वाले गिलानी के हड़ताली फरमान अब न आम लोगों को रास आ रहे हैं और न ही असर छोड़ पा रहे हैं। स्पष्ट है कि कश्मीर में गिलानी और पाकिस्तानी परस्त सियासत के अस्त होने का समय हो चुका है।

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एक समय में गिलानी कश्मीर मुद्दे और कश्मीर की अलगाववादी सियासत के नेतृत्व में खुद को ही सबसे ऊपर मानते थे। हुर्रियत कान्फ्रेंस के हर नीतिगत फैसले पर उन्होंने अपने पक्ष को ही प्रमुखता दी। पाकिस्तान भी उन्हें खूब हवा देने का प्रयास करता रहा। गिलानी भले ही बातें कश्मीर की करते रहे पर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के पैरोकार बनकर उभरे। अलबत्ता, संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों के अनुरूप जनमत संग्रह का वह राग अवश्य अलापते रहे। वह कश्मीर में आतंकी हिंसा को सही ठहराते रहे और हड़ताल से कश्मीर को बंधक बना लेते थे। इसीलिए उन्हें कश्मीर में हड़ताली चाचा भी कहते हैं।

आतंक और कट्टरवाद के समर्थक रहे गिलानी का यह हृदय परिवर्तन यूं ही नहीं हुआ। पाकिस्तान के इशारे पर वह बार कश्मीर मसले के तमाम प्रयासों पर अड़ंगा डालते रहे पर पाकिस्तान ने उसे अपने मोहरे से अधिक नहीं माना। उनकी बीमारी को भी पाकिस्तान कश्मीर में हिंसा फैलाने के हथियार की तरह इस्तेमाल करने का प्रयास करता रहा। दूसरा बदले हालात में उनके सियासत के तमाम मोहरे पिटते चले गए।

जमात ने भी गिलानी के लिए नियम छोड़े: कभी अलगाववादी सियासत में गिलानी का प्रभाव ऐसा था कि जमात-ए-इस्लामी ने भी उनके लिए नियम दरकिनार कर दिए। जमात के संविधान के मुताबिक उसका कोई भी कार्यकर्ता या नेता किसी सियासी दल या संगठन में नहीं जा सकता। इसके विपरीत गिलानी को जमात ने तहरीक-ए-हुर्रियत के गठन की अनुमति दी। इतना ही नहीं इसमें शामिल होने वाले कार्यकर्ताओं पर भी जमात ने कोई कार्रवाई नहीं की।

शांति के हर प्रयास में बने रोड़ा: अलगाववादी गुट में से जब किसी ने वार्ता के रास्ते कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए कदम बढ़ाए, पाकिस्तान के इशारे पर गिलानी ने उसमें रोड़ा बनकर खड़े हो गए। वह ऐसे नेताओं को खुलेआम कश्मीर का गद्दार बताने से नहीं चूकते थे। उन्होंने वर्ष 2002 में विधानसभा चुनावों के बहिष्कार का अभियान चलाया। उनके जेल जाने के बाद अन्य हुर्रियत नेताओं ने इसे आगे नहीं बढ़ाया तो वह खफा हो गए। कुछ हुर्रियत नेताओं द्वारा चुनावों में छद्म उम्मीदवार उतारने पर यह झगड़ा बढ़ गया। वह स्वयं को बड़ा साबित करने के लिए अन्य नेताओं को सार्वजनिक मंच पर छोटा साबित करने से नहीं चूकते थे।

  • अलगाववादी सैयद अली शाह गिलानी का हुर्रियत से अलग होना अनुच्छेद 370 हटने का सबसे बड़ा लाभ है। कश्मीर के लोगों को अनुच्छेद 370 समाप्त होने के लाभ दिखना शुरू हो गए हैं। वह पाकिस्तान की असलियत को समझ चुके थे। - अविनाश राय खन्ना, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
  • देर से आये, दुरुस्त आए। गिलानी लोकतंत्र के लाभ जानते हैं। हो सकता है कि उन्हेंं अब महसूस हुआ हो कि अलगाववादी विचारधारा पर चलकर उन्हेंं काफी कुछ झेलना पड़ा। आशा है कि आगे वह भविष्य में बेहतर करेंगे। - अशोक कौल, भाजपा के संगठन महासचिव 

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