आतंक के गढ़ पुलवामा में सौहार्द की इबारत, 80 वर्ष पुराना शिव मंदिर, गांव में रहता है सिर्फ एक हिंदू परिवार
पुलवामा जहां 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर कायरता पूर्ण आत्मघाती हमला हुआ था। चालीस जवान शहीद हो गए थे। इसी पुलवामा में एक गांव में सांप्रदायिक सौहार्द की नई इबारत लिखी जा रही है।
राज्य ब्यूरो, जम्मू। पुलवामा दक्षिण कश्मीर का वही जिला है, जहां 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर कायरता पूर्ण आत्मघाती हमला हुआ था। चालीस जवान शहीद हो गए थे। इसी पुलवामा में एक गांव में सांप्रदायिक सौहार्द की नई इबारत लिखी जा रही है।
कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में अलगाववादी, आतंकवादी और पाक परस्त लोग हालात खराब करने पर तुले हैं, मगर पुलवामा के अच्छन गांव सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है। अच्छन में रहने वाले एक हिंदू परिवार के लिए मुस्लिम परिवार मंदिर के जीर्णाद्धार में सहयोग देने में जुटे हैं। अच्छन गांव जहां सीआरपीएफ के काफिले पर हमला हुआ था, वहां से करीब 15 किलोमीटर की ही दूरी पर है।
पुलवामा के इस गांव में आतंकवाद के दौर से पूर्व मुस्लिम और कश्मीरी पंडित सौहार्दपूर्ण रहते थे। आतंकवाद शुरू हुआ तो कश्मीरी पंडितों को वहां से पलायन करना पड़ा। हजारों कश्मीरी पंडित परिवारों देश के विभिन्न क्षेत्रों में रह रहे हैं। पलायन हुआ तो कश्मीर वादी के हालात बदल गए। अब कश्मीर के विभिन्न जिलों में गिने-चुने ही कश्मीरी पंडित परिवार रह रहे हैं। कभी अच्छन गांव में भी पंडितों के नब्बे परिवार रहते थे, लेकिन अब इस गांव में मात्र एक ही कश्मीरी पंडित का परिवार रह रहा है।
अच्छन गांव में करीब 80 वर्ष पुराना शिव मंदिर हैं, जो क्षतिग्रस्त हो चुका है। अच्छन में रह रहे पंडित परिवार के संजय कुमार को अकेले मंदिर का जीर्णोद्धार आसान नहीं था। ऐसे में गांव के मुस्लिम परिवार सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करते हुए मंदिर के जीर्णोद्धार में सहयोग कर रहे हैं। अब 80 वर्ष पुराने शिव मंदिर का जीर्णोद्धार हो रहा है।
संजय कुमार कहते हैं कि गांव में आज भी सांप्रदायिक सौहार्द बरकरार है। लोग जाति धर्म से ऊपर उठकर एक दूसरे की मदद करते हैं। यही कारण है कि गांव में बने पुराने मंदिर को दोबारा से तैयार किया जा रहा है।
वहीं गांव के लोगों कहते हैं कि आज बेशक देश में हिंदू मुस्लिम हो रहा है। लड़ाइयां हो रही हैं, लेकिन अच्छन गांव में आज भी सांप्रदायिक सौहार्द बरकरार है। कहते हैं कि वह दौर भी नहीं भूला है जब यहां हिंदू-मुस्लिम सभी एक-दूसरे के त्योहार मनाते थे। वह कहते हैं कि वे आज भी चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित वापस आएं और फिर से वही पुरानी कश्मीरियत बहाल हो सके।