Death Anniversary of Pt. Prem Nath Dogra: जम्मू के गांधी थे पंडित प्रेमनाथ डोगरा
भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय के शिल्पियों में जहां डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जनसंघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान केंद्र सरकार का उल्लेखनीय स्थान है वहीं जम्मू-केसरी पंडित प्रेमनाथ डोगरा और जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् की भूमिका भी अग्रगण्य और उल्लेखनीय रही है।
जम्मू, जेएनएन। भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय के शिल्पियों में जहां डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जनसंघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान केंद्र सरकार का उल्लेखनीय स्थान है, वहीं जम्मू-केसरी पंडित प्रेमनाथ डोगरा और जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् की भूमिका भी अग्रगण्य और उल्लेखनीय रही है।
पंडित प्रेमनाथ डोगरा और प्रजा परिषद् ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के भारत से अलगाव आधारित ‘स्वायत्ततावादी आंदोलन’ और कश्मीर केंद्रित नीति के बरक्स राष्ट्रवादी ‘एकीकरण आंदोलन’ चलाते हुए जम्मू और लद्दाख संभाग के साथ न्याय और समानता सुनिश्चित करने की लंबी लड़ाई लड़ी। शेख अब्दुल्ला की सांप्रदायिक राजनीति की खिलाफत और हिंदू और बौद्ध जनता की आवाज़ बुलंद करने का श्रेय भी पंडित प्रेमनाथ डोगरा और प्रजा परिषद् को हैI इस कार्य में ‘लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन’ ने भी उनका बढ़-चढ़कर साथ दिया। वे अनुच्छेद 370 की आड़ में जम्मू-कश्मीर को मिलने वाले ‘विशेषाधिकार’ को भारत के एकीकरण की बड़ी बाधा मानते थे।
जाहिर है इसकी वजह से उन्हें न सिर्फ शेख अब्दुल्ला का कोपभाजन बनना पड़ा, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी ने भी उनकी और उनके द्वारा उठाये जा रहे मुद्दों की लगातार उपेक्षा और अवहेलना की। नेहरू जी की शह पाकर ही शेख अब्दुल्ला जम्मू और लद्दाख के लोगों की आवाज़ और हितों पर कुठाराघात कर सके। उनके लिए जम्मू-कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर घाटी था। उनके जम्मू-कश्मीर में जम्मू,लद्दाख, गिलगित और बाल्तिस्तान का कोई स्थान और नामोनिशान नहीं था। उनकी नीति विभेदकारी और विभाजनकारी थी। यहां तक कि अक्टूबर 1950 में आई भयानक बाढ़ के समय बचाव और राहत कार्यों में भी भेदभाव किया गया। शेख अब्दुल्ला के अधिनायकवादी, अलगाववादी और सांप्रदायिक रवैये का लोकतान्त्रिक ढंग से विरोध करने और उसे दिल्ली, देश और दुनिया के सामने बेनकाब करने के कारण पंडित प्रेमनाथ डोगरा को ‘जम्मू का गांधी’ कहा जा सकता है।
जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् की स्थापना 17 नवंबर, 1947 को हुई
जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् की स्थापना 17 नवंबर, 1947 को हुई। इसकी स्थापना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पंजाब और जम्मू-कश्मीर के प्रांत प्रचारक माधवराव मुल्ये की प्रेरणा से पंडित प्रेमनाथ डोगरा, प्रो. बलराज मधोक, जगदीश अबरोल, दुर्गादास वर्मा, केदारनाथ साहनी, श्यामलाल शर्मा, भगवत स्वरुप, ओमप्रकाश मैंगी, सहदेव सिंह और हंसराज शर्मा ने मिलकर की। जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् की स्थापना के समय पंडित प्रेमनाथ डोगरा जम्मू विभाग के संघचालक थे। कालांतर में इस संगठन का अध्यक्ष बनकर उन्होंने अनेक ऐतिहासिक आंदोलनों का नेतृत्व भी किया। पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में ही प्रजा परिषद् जम्मू संभाग की आवाज़ और एक जन आंदोलन बन सकी। पंडित प्रेमनाथ डोगरा और प्रजा परिषद् ने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नारे ‘एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान; नहीं चलेंगे’ को जन-जन तक पहुंचाया और जम्मू-कश्मीर के एकीकरण की लड़ाई में उनका साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर दिया। जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् का घोषणा-पत्र ही केंद्र सरकार द्वारा 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 और 35ए की समाप्ति के एतिहासिक निर्णय का आधार बना।
जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् के घोषणा-पत्र के प्रमुख बिंदु थे:
- जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत के एक अभिन्न अंग के रूप में भारत गणराज्य के अन्य राज्यों के समक्ष लाते हुए भारतीय संविधान को जम्मू-कश्मीर में भी पूर्णरूपेण लागू करवाना।
- जम्मू और लद्दाख संभाग को शासन-प्रशासन और विकास योजनाओं में समान स्थान दिलाना।
- राजनीतिक और सांप्रदायिक कारणों से इन संभागों के भौगोलिक और जनसांख्यिकीय बदलाव को रोकना।
- जम्मू क्षेत्र के उपेक्षित पर्यटन स्थलों-बसोहली, भद्रवाह, पत्नीटॉप, किश्तवाड़, बनिहाल, सनासर आदि का विकास करना, गुलाम कश्मीर को वापस प्राप्त करने में भारतीय सेना और भारतीय संघ का सहयोग करना।
यह घोषणा-पत्र पंडित प्रेमनाथ डोगरा की देखरेख में तैयार किया गया था और इससे उनकी दूरदर्शिता, प्रगतिशीलता और भारत-भक्ति का परिचय मिलता है। हालाँकि, शेख अब्दुल्ला और उनके पिट्ठुओं ने प्रजा परिषद् को ‘जमींदारी और जागीरदारी उन्मूलन की प्रतिक्रिया में गठित पार्टी’ कहकर बदनाम किया।
पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने नेशनल कान्फ्रेंस के अधिनायकवाद को निडरतापूर्वक खुली चुनौती दी थी
पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस के अधिनायकवाद को निडरतापूर्वक खुली चुनौती दी। पंडित प्रेमनाथ डोगरा की प्रेरणा और नेतृत्व-क्षमता के कारण प्रजा परिषद् जम्मू संभाग की प्रतिनिधि विपक्षी पार्टी बन गई और उसने नेशनल कान्फ्रेंस के एकछत्र शासन को जोखिम उठाते हुए भी कड़ी चुनौती दी। शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली से शह पाकर हर हथकंडा अपनाया और प्रजा परिषद को कुचलने की हर संभव कोशिश की। पंडित प्रेमनाथ डोगरा और उनके अन्य साथियों को अनेक बार जेल में डाला गया, अनेक प्रकार की यातनाएं और प्रलोभन दिए गए, किन्तु उन्होंने राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता से समझौता नहीं किया। एकीकृत भारत उनका सबसे बड़ा स्वप्न था।
अगस्त-सितंबर में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के चुनाव में शेख अब्दुल्ला का तानाशाही चेहरा खुलकर सबके सामने आ गया। संविधान सभा की कुल 100 सीट तय की गई थीं, जिनमें से 25 सीटें गुलाम जम्मू-कश्मीर के लिए, 43 सीटें कश्मीर संभाग के लिए, 30 सीटें जम्मू संभाग के लिए और दो सीटें लद्दाख के लिए निर्धारित की गईं। जनसंख्या और क्षेत्रफल कम होने के बावजूद कश्मीर को जम्मू और लद्दाख संभाग से अधिक सीटें देकर कश्मीर संभाग का स्थायी प्रभुत्व सुनिश्चित करने की साजिश रची गई। हद तब हो गई जब तमाम कश्मीर संभाग की सभी 43 सीटों पर नेशनल कान्फ्रेंस के प्रत्याशी निर्विरोध विजयी घोषित कर दिए गए और जम्मू संभाग की 13 सीटों पर प्रजा परिषद् प्रत्याशियों के नामांकन रद कर नेशनल कान्फ्रेंस के प्रत्याशियों की निर्विरोध जीत सुनिश्चित की गई। इस अंधेरगर्दी और अराजकता का विरोध करते हुए प्रजा परिषद् चुनावों से हट गई और नेशनल कान्फ्रेंस ने बिना किसी चुनाव के संविधान सभा की सभी 75 सीटें जीतने का कीर्तिमान बनाया। इसे भारत के इतिहास में ‘बिना लड़े चुनाव जीतने की नेशनल कान्फ्रेंस पद्धति’ के नाम से जाना जाता है। प्रजा परिषद् ने लोकतंत्र की इस निर्मम हत्या के खिलाफ सड़कों पर बड़ा आंदोलन खड़ा करके जम्मू-कश्मीर में चल रहे अन्याय और अधिनायकवाद की ओर तत्कालीन केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित किया।
अपने विदेशी आकाओं और साम्यवादी मित्र-देशों की शह पाकर शेख अब्दुल्ला का अलगाववाद,अधिनायकवाद, संप्रदायवाद और क्षेत्रवाद बेकाबू होता जा रहा था। परिणामस्वरूप वे अपनी पार्टी के झंडे को राष्ट्रीय ध्वज से ज्यादा महत्व देने लगे और उसे सरकारी कार्यक्रमों तक में फहराया जाने लगा। जम्मू में 1952 में इसके खिलाफ छात्रों का लंबा आंदोलन (40 दिन लंबा ऐतिहासिक अनशन भी था) चला। ऊधमपुर गोलीकांड, हीरानगर गोलीकांड (जिसे कि जम्मू का जलियाँवाला कहा जाता है), 30 जनवरी, 1953 को घटित जोड़ियां गोलीकांड, रामबन गोलीकांड, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की गिरफ्तारी और रहस्यमय मृत्यु आदि घटनाएं शेख अब्दुल्ला के अलोकतांत्रिक व्यवहार की पराकाष्ठा थीं। वे नेशनल कान्फ्रेंस की निजी सेना के बलबूते जम्मू-कश्मीर को निजी जागीर बनाना चाहते थे। पंडित प्रेमनाथ डोगरा और प्रजा परिषद् ने उनके मंसूबों पर न सिर्फ पानी फेरा, बल्कि उनका पर्दाफाश भी किया और अंततः नेहरू को अपने चहेते शेख अब्दुल्ला को 8 अगस्त,1953 को बर्खास्त करते हुए गिरफ़्तार करना पड़ा।
जम्मू-कश्मीर के विषय में समान नीतियां और दृष्टिकोण होने के कारण 30 दिसंबर, 1963 को प्रजा परिषद् का विलय भारतीय जनसंघ में हो गया। सात बार के विधायक रहे पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने हरिजन सेवा मंडल, सनातन धर्म सभा, ब्राह्मण मुख्य मंडल और डोगरा सदर सभा जैसी सामाजिक संस्थाओं की स्थापना करते हुए सामाजिक सौहार्द्र और समरसता के लिए भी उल्लेखनीय कार्य किया। उनका निधन 21 मार्च, 1972 को हुआ। प्रजा परिषद् का घोषणा-पत्र स्वातंत्र्योत्तर भारत का ऐतिहासिक दस्तावेज है और उसका महत्व निर्विवाद है। उसके कई बिंदुओं पर आज भी काम किये जाने की आवश्यकता है। ऐसा करके ही पंडित प्रेमनाथ डोगरा के सपनों को साकार किया जा सकता है और उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। -प्रो. रसाल सिंह (लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं)