Machail Yatra 2021 : बादल फटे, पहाड़ गिरे पर नहीं रुके मचैल माता के भक्तों के कदम; अखंड ज्योति भवन पहुंची
वर्ष 1947 में जब जंस्कार क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में चला गया तो भारतीय सेना में कर्नल हुकूम सिंह ने माता के मंदिर में मन्नत रखी और जब वह जीत कर आए तो मंदिर में भव्य यज्ञ के आयोजन के साथ धातु की मूर्ति स्थापित की।
जम्मू, दिनेश महाजन: जम्मू कश्मीर को देवी देवताओं की भूमि मानना जाता है। प्रदेश में कई देवी देवताओं के स्थल है जिनमें लोगों की भारी आस्था है। श्री माता वैष्णो देवी कटड़ा, श्री अमरनाथ यात्रा के बाद प्रदेश में मचैल यात्रा के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु देश के विभिन्न राज्यों से अपना आस्था से लेकर आते है। हालांकि बीते तीन वर्षों से मचैल यात्रा कोरोना कॉल और कानून व्यवस्था के चलते नहीं हो पाई है।
यात्रा तो नहीं हो पाई है, लेकिन पारंपरिक छड़ी यात्रा प्रत्येक वर्ष रवाना होती है। इस वर्ष मचैल की छड़ी यात्रा डोडा पहुंचने के साथ ही संपन्न हो गई। जिला किश्तवाड़ में इस वर्ष 26 जुलाई को प्राकृतिक ने अपना रौद्र रूप दिखा था। बादल फटने से दुर्गम मचैल यात्रा मार्ग पैदल आवाजाही के लिए बंद हो गई थी। ऐसे में जम्मू से मचैल के लिए रवाना होने वाली छड़ी यात्रा को लेकर असमंझस की स्थिति पैदा हो गई थी, लेकिन माता का विश्वास रखते हुए श्रद्धालु छड़ी लेकर 18 अगस्त को जम्मू से रवाना हुए थे। दुर्गम पहाड़ियां, कठिन चढ़ाईयां पार कर श्रद्धालु छड़ी और ज्वाला माता की अखंड ज्योति को लेकर मचैल माता के भवन में पहुंच गए थे। प्रशासन ने छड़ी यात्रा को सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
प्राकृति की गोद में बसा है मचैल भवन: संभाग के जिला किश्तवाड़ से करीब 95 किलोमीटर गुलाबगढ में स्थित मचैल अत्यंत खूबसूरत गांव है। दुर्गम पहाडिय़ों के बीच प्रकृति की गोद में बसे इस गांव के बीचोबीस मचैल माता का मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर के मुख्य भाग में समुद्र मंथन का आकर्षक और कलात्मक दृश्य अंकित है। मंदिर के बाहरी भाग में पौराणिक देवी-देवताओं की मूर्तियां लकड़ी की पट्टिकाओं पर बनी हुई हैैं। मंदिर के भीतर मां चंडी एक पिंडी के रूप में विराजमान हैं। इस पिंडी के साथ दो मूर्तियां स्थापित हैं, जिनमें एक चांदी की मूर्ति है। इसके बारे में कहा जाता है कि बहुत पहले जंस्कार (लद्दाख) के बौद्ध मतावलंबी भोटों ने इसे मंदिर में चढ़ाया था। इसलिए इस मूर्ति को भोट मूर्ति भी कहते हैं। मूर्तियों पर कई प्रकार के आभूषण सजे हैं। मंदिर के सामने खुला मैदान है, जहां यात्री खड़े हो सकते हैं।
सेना नायकों की इष्ट देवी है मचैल माता: सेना नायकों और योद्धाओं की इष्टदेवी होने के कारण ही मचैल माता का नाम रणचंडी पड़ा। जोरावर सिंह, वजीर, लखपत जैसे सेना नायकों ने जब जंस्कार या लद्दाख पर चढ़ाई की तो मां से प्रार्थना की और विजय हासिल की थी। वर्ष 1947 में जब जंस्कार क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में चला गया तो भारतीय सेना में कर्नल हुकूम सिंह ने माता के मंदिर में मन्नत रखी और जब वह जीत कर आए तो मंदिर में भव्य यज्ञ के आयोजन के साथ धातु की मूर्ति स्थापित की। दूसरी मूर्ति कर्नल यादव ने चढ़ाई थी।
मचैल यात्रा की छड़ी और पवित्र ज्योति 18 अगस्त को जम्मू के जैन बाजार से प्रांरभ हुई थी। छड़ी ढोल, नगाड़े जैसे वाद्य यंत्रों के सुरीले और दिव्य रागों से मां के जयकारे लगाते हुए जम्मू से जिला किश्तवाड़ के गलार गांव में पहुंची। रात को गांव में ठहरने के बाद 19 अगस्त को छड़ी यात्रा अठोली गांव के लिए रवाना हुई थी। गांव में यात्रा का भव्य स्वागत हुआ था। रात्रि विश्राम के बाद यात्रा 20 अगस्त को ज्वाला देवी माता अठोली के लिए रवाना हुई थी। इसके बाद 20 अगस्त को छड़ी गुलाबगढ़ में पहुंची थी। यहां से 21 अगस्त काे श्रद्धालु पैदल ही मचैल के लिए रवाना हुई। रात को छड़ी का पड़ाव चशोती गांव रहा। 22 अगस्त को छड़ी मचैल भवन में पहुंची थी। दो दिन तक भवन में पूजा अर्चना के बाद छड़ी की विदाई 24 अगस्त को हुई थी। वापसी में छड़ी रात को अठोली मंदिर में पहुंची। 25 अगस्त को छड़ी वहां से अपने अंतिम पड़ाव डोडा गांव में पहुंच गई। इसके साथ ही इस वर्ष की छड़ी यात्रा संपन्न हो गई।
वर्ष 1981 से प्रत्येक वर्ष माता के मंदिर में जाती है छड़ी : मचैल यात्रा के प्रबंधन को लेकर दो दलों में विवाद होने के चलते यात्रा का प्रबंधन सरकार के पास है। सबसे पहले वर्ष 1981 में मचैल यात्रा शुरू की। जिसका नेतृत्व ठाकुर कुलवीर सिंह करते थे जो वहां पुलिस अधिकारी के रूप में नियुक्त थे। पहले यह यात्रा छोटे से समूह तक ही सीमित थी, लेकिन किश्तवाड़ व गुलाबगढ़ का मार्ग खुलने के बाद यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। यात्रा में धीरे-धीरे राज्य ही नहीं बाहरी राज्य पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश से भी श्रद्धालु आने लगे है।