विजय दिवस: सन 1971 की जंग में भारत के वीरों के आगे झुकने पर मजबूर हुआ था पाक
चार दिन तक पाकिस्तानी फौज को रोके रखा और जब तक पीछे से मदद पहुंची तो तब तक वह शहीद हो चुके थे। बहादुरी और कर्तव्यनिष्ठा पर भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित है
जम्मू, राज्य ब्यूरो। चार दिन, 14 हमले। हर हमले में शहीदों की बढ़ती संख्या के साथ ही दुश्मन को रोके रखने का बढ़ता जोश। यह कहानी पांच सिख रेजिमेंट के उन जवानों की है, जिन्होंने छंब सेक्टर में तेजी से बढ़ती पाकिस्तानी सेना के कदमों को रोक दिया था। नतीजा न सिर्फ जम्मू पाकिस्तान के कब्जे में जाने से बचा, बल्कि पूरी जंग का रुख भी बदल गया। अखनूर में पलांवाला के पास दिसंबर 1971 में पाकिस्तानी सेना के जनरल इफ्तिखार के युद्धकौशल को बौना दिखाने वाली मेजर डीएस पुन्नु और उनके साथियों की शौर्यगाथा आज भी पाकिस्तान ही नहीं दुनिया भर में सैन्य अधिकारियों की ट्रेनिंग में एक केस स्टडी के तौर पर पढ़ाई जाती है।
1965 की जंग के अनुभव से पाकिस्तान जानता था कि छंब सेक्टर में अगर वह आगे बढ़ने में कामयाब रहा तो पूर्वी पाकिस्तान जिसे आज बंगलादेश कहते हैं, में भारतीय सेना के दबाव को कम कर हारी बाजी जीत सकता है। पाकिस्तानी सेना के जनरल इफ्तिखार ने छंब से आगे अखनूर में दाखिल होकर राजौरी-पुंछ में भारतीय सेना की सप्लाई लाइन को काटने और फिर जम्मू पर कब्जा करने की एक फुलप्रूफ योजना बनाई थी। इसी के तहत उन्होंने पाकिस्तानी वायुसेना की मदद से अपनी आमर्ड रेजिमेंट, अर्टलरी और इन्फैंट्री ब्रिगेड के साथ दिसंबर 1971 के पहले सप्ताह में छंब सेक्टर में हमला कर दिया।
भारतीय सेना ने पांच सिख रेजिमेंट के जवानों की एक कंपनी को मेजर डीएस पन्नु के नेतृत्व में दुश्मन को छंब सेक्टर में आगे बढ़ने से रोकने और उसे अखनूर से दूर रखने का जिम्मा सौंपा था।
मंडियाली इलाके में मेजर डीएस पन्नु अपने दस्ते के साथ तैनात रहे। चार दिन में पाकिस्तानी सेना ने 14 बार हमला किया। मगर मेजर पन्नु और उनके साथियों के हौसले के कारण वह आगे नहीं बढ़ पाया। पाकिस्तानी सेना के हर हमले के बाद मेजर पन्नु अपने शहीद साथियों के शवों को निकालते, घायलों को युद्धभूमि से पीछे हटाते और बचे हुए साथियों के साथ उसी जोश के साथ दोबारा पाकिस्तानी सेना का मुकाबला करते जैसे कोई शेर अपने शिकार पर झपटता है। चार दिन तक पाकिस्तानी फौज को रोके रखा और जब तक पीछे से मदद पहुंची तो तब तक वह शहीद हो चुके थे। उनकी बहादुरी और कर्तव्यनिष्ठा पर भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया।
मनावर तवी का पानी हो गया लाल
1971 में छंब में पाकिस्तानी सेना लगातार हमला कर रही थी। लक्ष्य किसी तरह अखनूर पहुंचना था, उसे चुनौती बन रहा था। इसी दौरान एनडीए से युवा सैन्य अधिकारियों का एक दस्ता सेना में कमीशन हुआ। इनमें केरल निवासी सैकेंड लेफ्टिनेंट राधा मोहन नरेश भी थे। उन्हें सेना की दो जाट रेजिमेंट में कमीशन मिला था। उन्हें अखनूर के आगे मनावर तवी में रायपुर क्रासिंग पर दुश्मन को रोकने का हुक्म मिला। साथ 25 से 30 जवानों का दस्ता था। उन्होंने पाकिस्तानी मशीनगनों और टैंकों का आखिरी सांस और आखिरी गोली तक मुकाबला किया। उन्होंने पीछे से मदद के आने तक दुश्मन को रोके रखा और वहीं शहीद हो गए। रायपुर क्रासिंग पर शहीद हुए सैकेंड लेफ्टिनेंट राधा मोहन नरेश ने अंतिम सांस लेने से पहले दुश्मन को कई बार पीछे लौटने पर मजबूर किया। रायपुर क्रासिंग पर हुई लड़ाई को छंब सेक्टर की सबसे खूरेंज लड़ाइयों में गिना जाता है। स्थानीय लोग और उस समय जो सेना अधिकारी थे, अक्सर कहते हैं कि मनावर तवी का पानी लाल हो चुका था। रायपुर क्रॉसिंग में ऐसा लगता था कि जैसे खून का दरिया बह रहा हो। शहीद सैकेंड लेफ्टिनेंट राधा मोहन नरेश का अंतिम दाह संस्कार रायपुर क्रासिंग पर ही किया गया था।