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India China Border: ... तो इस तरह नाम पड़ा गलवन घाटी, यह हमारी थी और हमारी ही रहेगी

गुलाम रसूल के पड़पोते ताहिर ने चीन के दावे को बताया बेबुनियाद गलवन परगुलाम रसूल गलवन के पड़पोत और ताहिर के पिता अमीन गलवन ने कहा कि गलवन घाटी का इलाका हिंदुस्तान का है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 20 Jun 2020 08:57 AM (IST)Updated: Sat, 20 Jun 2020 10:08 AM (IST)
India China Border: ... तो इस तरह नाम पड़ा गलवन घाटी, यह हमारी थी और हमारी ही रहेगी
India China Border: ... तो इस तरह नाम पड़ा गलवन घाटी, यह हमारी थी और हमारी ही रहेगी

श्रीनगर, राज्य ब्यूरो। पूर्वी लद्दाख में गलवन घाटी हमारी थी, हमारी ही रहेगी। वक्त आ गया है कि हम चीन को सबक सिखाएं। यहां लेह में ही अगर बाजार जाएंगे तो आपको हर दुकान पर चीनी सामान मिलेगा जो नेपाल के रास्ते पहुंचता है। हमें इसका बहिष्कार करना चाहिए। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र रहे ताहिर गलवन चीन के दावे पर आक्रोशित हैं। वह उसी गुलाम रसूल के खानदान से है जिसके नाम पर गलवन घाटी और गलवन नाला है। उसने कहा कि मेरे परदादा के नाम से आज यह इलाका जाना जाता है पहले तो कोई इसके बारे में नहीं जानता था। इसलिए चीन का दावा पूरी तरह बेबुनियाद है।

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इतिहास भी इसे हिंदुस्तान  का हिस्सा बताता है। ताहिर ने अपने परदादा गुलाम रसूल की लिखी किताब सर्वेंटस ऑफ साहिब का जिक्र करते हुए कहा कि यह किताब चीन के शासकों को भी जरूर पढ़नी चाहिए। इस किताब और गलवन घाटी के इतिहास पर गौर करें तो गलवन समुदाय और सर्वेंटस ऑफ साहिब किताब के लेखक गुलाम रसूल गलवन इसके असली नायक हैं।

कहा जाता है कि ब्रिटिश काल में 1899 में गलवन नदी के स्त्रोत का पता लगाने वाले दल का नेतृत्व गुलाम रसूल ने किया था। इसलिए नदी और उसकी घाटी को गलवन बोला जाता है। वह उस दल का हिस्सा थे जो चांगछेन्मो घाटी के उत्तर में स्थित इलाकों का पता लगाने के लिए तैनात किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास में पीएचडी कर रहे शोधकर्ता वारिस उल अनवर के मुताबिक, गलवन कश्मीर में रहने वाला पुराना काबिला है। गुलाम रसूल के पिता कश्मीर और मां बाल्तिस्तान की रहने वाली थी। गुलाम रसूल अंग्रेज शासकों द्वारा भारत के उत्तरी इलाकों की खोज करने के लिए कुछ खोजियों का सहायक था। रसूल का मकान आज भी लेह में उसकी कहानी सुनाता है।

जान खतरे में डालने को तैयार रहते :

यंग हसबैंड ने रसूल की किताब में लिखा है कि हिमालय के क्षेत्रों में रहने वाले लोग मेहनती और निडर होते हैं। वह कई बार जान खतरे में डालने को तैयार रहते हैं। रसूल ने अपनी किताब में बताया है कि उसके पूर्वज कश्मीर के थे। उनके बुजुर्ग जिसे काला गलवान अथवा काला लुटेरा कहते थे, चालाक और बहादुर थे। वह किसी भी भवन की दीवार पर बिल्ली की भांति चढ़ जाते। वह कभी एक जगह मकान बनाकर नहीं रहे। गुलाम रसूल ने दावा किया कि उसके पूर्वज अमीरों को लूट गरीबों की मदद करते थे। किताब में गुलाम रसूल ने लिखा है कि एक बार महाराजा ने विश्वस्त के साथ मिलकर मेरे (पूर्वज जोकि मेरे पिता का दादा था) को पकड़ने की योजना बनाई। उन्हें एक मकान में बुलाया गया जहां वह एक कुएं में गिर गए और पकड़ में आ गए। काला को फांसी दे दी। हमारे समुदाय के बहुत से लोग जान बचाने भाग निकले। मेरे दादा बाल्तिस्तान पहुंच गए। मेरे दादा का नाम महमूद गलवन था। कुछ लोग गलवन समुदाय को कश्मीर के चक शासकों से जोड़ते हैं।

इनटू द अनट्रैवल्ड हिमालय:

ट्रैवल्स, टैक्स एंड कलाइंब के लेखक हरीश कपाडिया ने अपनी किताब में लिखा है कि गुलाम रसूल गलवन उन स्थानीय घोड़ों वालों में शामिल था जिन्हें लार्ड डून मोरे अपने साथ 1890 में पामिर ले गया था। उन्होंने लिखा है कि मैंने किसी बड़े भौगोलिक इलाके का नाम किसी स्थानीय शख्स के नाम पर रखते नहीं सुना है। ब्रिटिश नाम दिए जाते रहे हैं, किसी स्थानीय के नाम पर और वह जो खोजी दस्ते के साथ सहायक के रूप में शामिल रहा हो, के नाम पर किसी इलाके का नाम रखे जाने का यह पहली घटना है। लद्दाखी इतिहासकार अब्दुल गनी शेख के मुताबिक लार्ड मोरे के अपने काफिले के साथ आगे बढ़ रहे थे तो पहाड़ों में भटक गए थे। उस समय गलवन ने वहां से निकलने का एक रास्ता खोजा था। गलवन की सूझबूझ से न तो कोई परेशानी हुई, और न ही किसी को चोट आई। लद्दाखी इतिहासकार अब्दुल गनी शेख के मुताबिक, उसी वक्त अर्ल ऑफ डलमोर ने इस नए रास्ते का नाम गलवान नाला रख दिया। वर्ष 1914 में उसे इटली के एक वैज्ञानिक और खोजी फिलिप डी ने कारवां का मुखिया बनाया था। इसी दल ने रीमो ग्लेशियर का पता लगाया था। लद्दाख में कई लोग दावा करते हैं कि गलवन जाति के लोग आज की गलवन घाटी से गुजरने वाले काफिलों को लूटते थे। इसलिए इलाके का नाम गलवन पड़ गया।

काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता :

गलवन कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले समुदाय को बोला जाता है। कुछ समाजशास्त्रीयों के मुताबिक घोड़ों को लूटने और उन पर सवारी करते हुए व्यापारियों के काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता रहा है। कश्मीर में जिला बड़गाम में गलवनपोरा नामक एक गांव है। गुलाम रसूल का मकान आज भी लेह में मौजूद है। अंग्रेज और अमेरिकी यात्रियों के साथ काम करने के बाद उसे तत्कालिक ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर का लद्दाख में मुख्य सहायक नियुक्त किया था। उसे अकासकल की उपाधि दी थी। ब्रिटिश सरकार और जम्मू कश्मीर के तत्कालीन डोगरा शासकों के बीच समझौते के तहत ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर व उसके सहायक को भारत, तिब्बत और तुर्कीस्तान से लेह आने वाले व्यापारिक काफिलों के बीच होने वाली बैठकों व उनमें व्यापारिक लेन देन पर शुल्क वसूली का अधिकार था।

गुलाम रसूल की मौत 1925 में हुई थी। गुलाम रसूल की किताब सर्वेंटस ऑफ साहिब की प्रस्ताना अंग्रेज खोजी फ्रांसिक यंगहस्बैंड ने लिखी है। वादी के कई विद्वानों का मत है कि अक्साई चिन से निकलने वाली नदी का स्त्रोत गुलाम रसूल ने तलाशा था। यह सिंधु नदी की प्रमुख सहायक नदियों में शामिल श्योक नदी में आकर मिलती है।बरसों से चीन की आंख रही है गलवन परगुलाम रसूल गलवन के पड़पोत और ताहिर के पिता अमीन गलवन ने कहा कि गलवन घाटी का इलाका हिंदुस्तान का है। उन्होंने हाल ही में गलवन घाटी में शहीद सैनिको को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि उनका बलिदान बेकार नहीं जाएगा। अमीन ने कहा कि मैंने अपने पिता से कई बार सुना है कि उन्हें हमारे दादा गुलाम रसूल ने बताया कि चीनी अक्सर कारोकोरम की तरफ जाने वाले काफिलों पर हमले करते थे। गुलाम रसूल गलवन खुद भी कई बार ऐसे हमलों में बचे थे। चीन की शुरू से ही गलवन पर नजर है। वर्ष 1962 मे वह गलवन तक आ गया था, लेकिन हमारे जवानों ने पीछे धकेल दिया था। जंग किसी मसले का हल नहीं है, गलवन का मसला शांतिपूर्ण तरीके से हल हो। हालात सामान्य होने पर भारत सरकार को गलवन घाटी में हमारे दादा के नाम पर कोई स्मारक बनाना चाहिए। 


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