Jammu: अपरा एकादशी व्रत 6 जून को, करने से मिलती है संकटों से मुक्ति
अपरा एकादशी का व्रत करने वाले व्रती को अपने चित इंद्रियों और व्यवहार पर संयम रखना आवश्यक है।इससे जीवन में सुख समृद्धि बनी रहती है। हर प्रकार के संकटों से मुक्ति मिलती है। शत्रु पर विजय मिलती है। एकादशी व्रत जीवन में संतुलनता बनाए रखना सीखाता है।
जम्मू, जागरण संवाददाता : ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपरा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस वर्ष अपरा एकादशी का व्रत रविवार को है।अपरा एकादशी व्रत का पारण 06 जून सोमवार को सुबह 06 बजे से इसी दिन सुबह 08 बजकर 39 मिनट के बीच के समय में करें।इंद्रियों को वश में कर ’काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या तथा द्वेष’ आदि का त्याग कर भगवान का स्मरण करना चाहिए। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियां होती हैं। परंतु जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। अपरा एकादशी को जलक्रीड़ा एकादशी, अचला एकादशी और भद्रकाली एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।
अपरा एकादशी व्रत के विषय में श्री कैलख ज्योतिष एवं वैदिक संस्थान ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत रोहित शास्त्री ने बताया कि ज्येष्ठ माह बहुत पवित्र माना जाता है। ज्येष्ठ मास लगते ही मनुष्य को स्नान आदि करके शुद्ध रहना चाहिए।
अपरा एकादशी का व्रत करने वाले व्रती को अपने चित, इंद्रियों और व्यवहार पर संयम रखना आवश्यक है।इससे जीवन में सुख समृद्धि बनी रहती है। हर प्रकार के संकटों से मुक्ति मिलती है। शत्रु पर विजय मिलती है। एकादशी व्रत जीवन में संतुलनता बनाए रखना सीखाता है। इस व्रत को करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में अर्थ और काम से ऊपर उठकर धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष को प्राप्त करता है और वह बुद्धिमान और लोकप्रिय होता है। उसके प्रभुत्व और व्यक्तित्व बढ़ता है। कोरोना महामारी के चलते घर में ही पूजन, स्नान एवं दान करें।
पूजन करने का तरीका: शारीरिक शुद्धता के साथ ही मन की पवित्रता का भी ध्यान रखना चाहिए। एकादशी के व्रत को विवाहित अथवा अविवाहित दोनों कर सकते हैं।एकादशी व्रत के नियमों का पालन दशमी तिथि से ही शुरु हो जाता है। दशमी तिथि को सात्विक भोजन ग्रहण कर अगले दिन एकादशी पर सुबह जल्दी उठें और शुद्ध जल से स्नान के बाद सूर्यदेव को जल का अर्घ्य देकर व्रत का संकल्प लें। पति पत्नी संयुक्त रूप से लक्ष्मीनारायण जी की उपासना करें। पूजा के कमरे या घर में किसी शुद्ध स्थान पर एक साफ चौकी पर श्रीगणेश, भगवान लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद पूरे कमरे में एवं चौकी पर गंगा जल या गोमूत्र से शुद्धिकरण करें।
चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के कलश में जल भरकर उस पर नारियल रखकर कलश स्थापना करें। उसमें उपस्तिथ देवी-देवता, नवग्रहों, तीर्थों, योगिनियों और नगर देवता की पूजा आराधना करनी चाहिए। इसके बाद पूजन का संकल्प लें और वैदिक मंत्रो एवं विष्णुसहस्रनाम के मंत्रों द्वारा भगवान लक्ष्मीनारायण सहित समस्त स्थापित देवताओं की षोडशोपचार पूजा करें। इसमें आवाह्न, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषण, पुष्प-हार, सुगंधितद्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, तिल, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्रपुष्पांजलि आदि करें। व्रत की कथा करें अथवा सुने तत्पश्चात प्रसाद वितरण कर पूजन संपन्न करें।
इस व्रत को निराहार या फलाहार दोनों ही तरीकों से रखा जा सकता है। व्रत रखने वाले शाम के समय भगवान विष्णु का पूजन करने के बाद फल ग्रहण कर सकते हैं। लेकिन इस व्रत का पारण द्वादशी तिथि को किया जाता है। व्रत के अगले दिन द्वादशी पर किसी जरुरतमंद व्यक्ति या ब्राह्मण को भोजन कराकर कुछ दान-दक्षिणा जरूर दें।