Move to Jagran APP

Kashmir: आदि शंकराचार्य को कश्मीर में हुआ था शक्ति के स्वरूप का अनुभव

जगद्गुरु शंकराचार्य पर संकलित पुस्तक में दावा किया गया है वह शारदा पीठ (गुलाम कश्मीर में) भी गए। वहां भी उनका पंडितों से शास्त्रार्थ हुआ।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Wed, 29 Apr 2020 11:19 AM (IST)Updated: Wed, 29 Apr 2020 11:19 AM (IST)
Kashmir: आदि शंकराचार्य को कश्मीर में हुआ था शक्ति के स्वरूप का अनुभव

श्रीनगर, नवीन नवाज: शैव दर्शन, शक्ति और भक्ति परंपरा के उल्लेख के बिना कश्मीर हमेशा अधूरा रहता है। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के जीवन एवं दर्शन पर भी कश्मीर के भ्रमण का अहम प्रभाव दिखा। शंकराचार्य मंदिर और शारदा पीठ आदि शंकराचार्य के महान ज्ञान व दर्शन के जीवंत गवाह हैं। बताया जाता है कि कश्मीर में ही जगदगुरु ने शक्ति के स्वरूप और उसकी महानता को प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ अनुभव किया। शोधकर्ताओं की मानें तो दक्षिण भारत से वह संपूर्ण भारतवर्ष में सत्य सनातन व शैव दर्शन की विजय पताका लहराकर कश्मीर पहुंचे थे। उनके 32 वर्षों के छोटे और अद्भुत जीवन में कश्मीर कई तरह से प्रासंगिक हो गया।

loksabha election banner

पीएन मैगजीन नामक लेखक ने शंकराचार्य मंदिर पर लिखी पुस्तक में बताया कि आदि शंकराचार्य कश्मीर में वैदांतिक ज्ञान प्रसार करते हुए पहुंचे थे। उस समय कश्मीर सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से उन्नत था। लोग शिव और शक्ति में अटूट आस्था रखते थे। शंकराचार्य और अन्य महात्माओं व शिष्यों ने श्रीनगर शहर के बाहर डेरा डाला। ठहरने और खाने का साधन नहीं था। स्थानीय लोगों ने एक कन्या को उनके पास भेजा। शंकराचार्य को इसी कन्या में शक्ति के दर्शन हुए। उनके कश्मीर में ठहरने को लेकर मतभेद हैं। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि शंकराचार्य और उनके शिष्य श्रीनगर के विचारनाग में ठहरे थे। विचारनाग के बारे में कहा जाता है कि मंदिर के प्रांगण में विद्वान, संत-मुनी उपस्थित रहते थे। कश्मीर से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर इसी जगह चर्चा होती थी। यह मंदिर वर्तमान में शेर-ए-कश्मीर आयुर्विज्ञान संस्थान सौरा के पास है। विचारनाग में ही जगद्गुरु का कश्मीरी पंडितों के साथ शास्त्रार्थ हुआ था।

इसलिए माथे पर पट्टी बांधने लगे : शंकराचार्य अडिग थे कि मूर्ति सिर्फ ईश्वर का प्रतीक है। कश्मीरी विद्वानों का मत था कि देवता की मूर्ति देवता की अभिव्यक्ति है। अपना पक्ष सत्य ठहराने के लिए उन्होंने वहां रखी देवी शक्ति की मूर्ति के मस्तिष्क पर जोर से हाथ मारा तो उससे रक्त बहने लगा। आदि शंकराचार्य ने एक कपड़े से शक्ति के मस्तक पर पट्टी बांधी। कहा जाता है कि इसके बाद आदि शंकराचार्य ने अपने माथे पर पट्टी बांधना शुरू की। इसे कश्मीर में तरंग कहा जाता है। तब से पंडित समुदाय की महिलाओं के पारंपरिक परिधान का यह अहम हिस्सा बन गया। वह माथे पर इसे बांधती हैं।

लाए थे मां शारदा की मूर्ति: जगद्गुरु शंकराचार्य पर संकलित पुस्तक में दावा किया गया है वह शारदा पीठ (गुलाम कश्मीर में) भी गए। वहां भी उनका पंडितों से शास्त्रार्थ हुआ। शारदा पीठ के सभी द्वार उनके शास्त्रार्थ से प्रभावित होकर खुल गए। प्रवेश के समय जैन, बौद्ध, सांख्य, योग से जुड़े विद्वान पंडितों से शास्त्रार्थ हुआ और वह विजयी घोषित हुए। देवी शारदा ने स्वयं उन्हें आशीर्वाद दिया। कश्मीरी पंडितों के अनुसार वहां से लौटते वह चंदन की लकड़ी पर बनी मां शारदा की मूर्ति लेकर लौटे। उनके साथ कश्मीरी ब्राह्मणों का दल भी था। उन्होंने मां शारदा की प्रतिष्ठा की और श्रृंगेरी मठ में प्रतिष्ठापित कर कश्मीरी ब्राह्मण सुरेशानंद को शंकराचार्य नियुक्त किया।श्रृंगेरी शारदा पीठ भारत के दक्षिण में रामेश्वरम् में स्थित है।

दुर्गानाग मंदिर के पास ठहरे थे शंकराचार्य: कश्मीर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अग्निशेखर ने कहा कि हम पूर्वजों से सुनते आए हैं कि शंकराचार्य मंदिर के नीचे दुर्गानाग मंदिर के पास आदि शंकराचार्य ठहरे थे। वह शक्ति स्वरूप को नहीं स्वीकारते थे। पंडितों ने उनकी कोई आवभगत नहीं की। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक जगद्गुरु भूख प्यास के कारण शक्तिहीन हो गए। वहांं से महिला पानी का घड़ा लेकर निकली। उसे देखते शंकराचार्य ने पानी पिलाने को कहा। उस महिला ने जिसमें देवी शक्ति आ गई थी, ने कहा कि पुत्र मेरे पास आकर पी लो। शंकराचार्य ने कहा कि मैं नहीं आ सकता, मैं उठ नहीं सकता, मैं शक्तिहीन हूं। इस पर महिला ने कहा कि तुम तो शक्ति को मानते ही नहीं हो, फिर शक्ति क्यों चाहिए। शंकराचार्य ने शक्ति को स्वीकार किया और उन्हें साक्षात आदि शक्ति के दर्शन हुए। शंकराचार्य पर्वत पर उन्होंने फिर देवी शक्ति की स्तुति में सौंदर्य लहरी की रचना की। पीएन लिखते हैं कि शंकराचार्य का कश्मीरी महिला के साथ ही शास्त्रार्थ हुआ जो 17 दिन चला। शंकराचार्य ने कश्मीरी विदूषी के समक्ष पराजय स्वीकारने के साथ शक्तिवाद की महानता को स्वीकारा और सौंदर्य लहरी की रचना की। उन्होंने इसकी रचना डल झील किनारे स्थित गोपाद्री पर्वत पर की। अब इस मंदिर को शंकराचार्य मंदिर कहा जाता है।

जेष्ठस्वर मंदिर परिसर में की भगवान शिव की आराधना: डल झील किनारे गोपाद्री पर्वत के शिखर पर भगवान शंकर का मंदिर है। मंदिर को राजा संधिमान ने 2605 ईसा पूर्व में बनाया था। मंंदिर को जेष्ठस्वर और गोपाद्री पर्वत को संधिमान पर्वत पुकारा जाने लगा। आदि शंकराचार्य ने जेष्ठस्वर मंदिर के प्रांगण में डेरा डाल शिव की साधना की। उनके ज्ञान व साधना से प्रभावित होकर कश्मीरी विद्वानों, संत-महात्माओं ने सम्मान स्वरूप संधिमान पर्वत और मंदिर का नामकरण शंकराचार्य पर्वत और शंकराचार्य मंदिर कर दिया।

केरल में हुआ था जन्म: शंकर आचार्य का जन्म केरल में कालपी नामक ग्राम में हुआ, इनके पिता का नाम शिवगुरु भट्ट और माता का नाम सुभद्रा था। 6 वर्ष की अवस्था में ही वह प्रकांड विद्वान हो गए, तथा आठ वर्ष की उम्र में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। 32 वर्ष की अल्प आयु में, केदारनाथ के समीप उनका स्वर्गवास हुआ। 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.