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कदम-कदम से बना कारवां

छोटे शहरों की कुछ स्त्रियों ने दृढ़ इच्छाशक्ति और मेहनत के बल पर न सिर्फ खुद को आगे बढ़ाया, बल्कि सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करते हुए दूसरों को भी अपने कारवां में शामिल कर लिया। इस काम में उन्होंने सोशल साइट्स को बनाया अपना हथियार...

By Babita kashyapEdited By: Published: Sat, 23 Apr 2016 12:18 PM (IST)Updated: Sat, 23 Apr 2016 12:26 PM (IST)
कदम-कदम से बना कारवां

मैंने विषम परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेके और सिर्फ आत्मसंबल से जूझती रही। स्त्रियां हार कर बैठने की बजाय अंतिम सांस तक मुकाबला करें। कहती हैं लेखक और ब्लॉगर शशि पुरवार। उनका एक ही ध्येय है लोगों में मातृभाषा हिंदी के प्रति प्रेम जगाना। लोग हिंदी लिखने-बोलने में शर्म नहीं, गर्व महसूस करें। उन्होंने सामाजिक विसंगतियों के प्रति विरोध दर्ज करने के लिए कलम का सहारा लिया। महिलाओं पर अत्याचार, बालशोषण और रूढि़वादिता के खिलाफ उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू किया।

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'सपने' ब्लॉग के नाम से वे आज हजारों महिलाओं को अपने साथ जोड़ चुकी हैं, पर उनके लक्ष्य को आघात तब लगा, जब वे जीने के लिए पल-पल संघर्ष करने लगीं। उनका शरीर पर से नियंत्रण खत्म हो गया। वह चाहकर भी अपनी अंगुलियां हिला नहीं पातीं। लगातार तीन साल तक वह बेड पर पड़ी रहीं।

सिर्फ आत्मविश्वास के बल पर वह दोबारा अपने पैरों पर खड़ी हो पाईं। इंदौर की शशि ने बचपन से विरोध झेला है। स्त्री-पुरुष असमानता को महसूस किया है। इसलिए समाज को सजग करने और लोगों में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करने का कोई भी अवसर वह नहीं चूकतीं हैं। वह कहती हैं, मेरे सिर्फ दो लक्ष्य हैं।

पहला, सामाजिक विसंगतियों पर कुठाराघात करने वाले लेखन को अधिक से अधिक लोगों तक

पहुंचाना। दूसरा, हिंदी को सम्मानजनक स्थिति में पहुंचाना।'

केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्रालय की ओर से 100 वुमन अचीवर्स में लिटरेचर कैटेगरी के लिए मिले अवार्ड ने उनके प्रयासों को और धार दे दी। शशि पुरवार की तरह पूरे देश में बहुत सी स्त्रियां हैं, जो दूर-दराज के इलाकों में रहने के बावजूद अपने गांव-समाज की स्त्रियों को जागरूक कर रही हैं।

वन संरक्षण का ध्येय बचपन से ही प्रकृति प्रेमी रही हैं मोनिका भारद्वाज। अपने शहर हिसार को कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते देख उन्हें बड़ा दुख होता। वह न सिर्फ प्रकृति की सुंदरता को नष्ट होने से बचाना चाहती थीं, बल्कि प्रकृति की सुंदरतम कृति स्त्री को भी भेदभाव रहित जीते हुए देखना चाहती थीं। इस कार्य को मूर्त रूप देने में कम उम्र में शादी भी उनकी राह में बाधा नहीं बनी। सूझबूझ से पति नरेश भारद्वाज को ही उन्होंने अपने कार्यों में सहभागी बना लिया। किसी भी तरह की सामाजिक समस्या को पति-पत्नी मिलकर सुलझाने लगे। वह कहती हैं, 'युवा होने के नाते मैं समाज को कुछ देना चाहती थी। शुरुआत में मुझे घर से ही सपोर्ट नहीं मिला। मैंने एक बार यौन शोषण के खिलाफ हड़ताल में भाग लिया और नारे लगाए तो पिताजी ने आंदोलन से बाहर निकलने का मुझ पर दबाव बनाया। लोगों को जब भी वन संरक्षण, वृक्षारोपण और किचन गार्डेन के फायदों के बारे में बताती तो वे बिल्कुल ध्यान नहीं देते।

तब मैंने अपने द्वारा किए गए कार्यों को बताना शुरू किया। अखबारों में संदेश भिजवाया। सोशल मीडिया पर लिखने लगी। फेसबुक पर एक साल में 13 हजार से अधिक मेरे फॉलोअर्स बन गए, जिसका प्रभाव समाज में दिखने लगा।' काम करने की चाह हो तो विपरीत परिस्थितियां भी व्यक्ति को हतोत्साहित नहीं कर पाती हैं। मोनिका कहती हैं कि मैंने अपनी लड़ाई तकनीकी माध्यमों से की है। आरटीआई, पीआईएल और...

केस करने के माध्यम से न सिर्फ मैंने व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि गांव और शहर के लोगों को भी अपने साथ किया। सबसे अधिक काम तो जमीनी स्तर पर होता है।

साहित्य से विसंगतियों पर प्रहार 'जब हम बोलते हैं तो सौ लोग सुन सकते हैं, पर वहीं लेखन के माध्यम से दुनिया के कोने-कोने में हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचा जा सकता है। इसलिए सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए मैंने साहित्य को ही माध्यम बना लिया', कहती हैं अब तक 16 किताबें लिख चुकीं भोपाल (मप्र) की स्वाति तिवारी। हाल में उन्हें भोपाल गैस त्रासदी से पीडि़त विधवाओं पर किताब लिखने के लिए पुरस्कृत किया गया है। उन्होंने वृद्धाश्रमों की केस स्टडी कर किताब लिखी और राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किया। घरेलू हिंसा पर फिल्म बना चुकी स्वाति कहती हैं, 'समाज को लेकर जो तकलीफें और बेचैनी होती है, उसे ही लेखक शब्द रूप देता है। वह चाहता है कि समाज जागरूक हो।' रेडियो टॉक, अखबारों में लेखन, टीवी प्रोग्राम जहां भी स्वाति को मौका मिलता है, कुरीतियों पर शब्दों के बाण चलाती हैं। वह भोपाल में जनसंपर्क अधिकारी हैं और व्यस्तता के बावजूद मानती हैं कि व्यक्ति यदि कुछ करना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता। व्यक्ति का अंत:करण उसे इसके लिए प्रेरित करता है। हालांकि आत्मस्फूर्त होना बेहद जरूरी है। स्वाति डरती हैं कि वक्त के साथ नहीं चलने पर वह हाशिए पर आ जाएंगी। इसलिए उन्हें खाली बैठना गवारा नहीं है। समाज को जागरूक करने के मिशन में उनके साथी हैं ब्लॉग और फेसबुक। वे सोशल साइट्स पर 2006 से ही हैं।

साक्षरता की मशाल

आज से 20-22 साल पहले बिहार के सुपौल जिले के कोसी इलाके में बहुत कम लोग बेटियों को पढ़ाना चाहते थे, पर राष्ट्रीय महिला बाल विकास मंत्रालय की ओर से समाज को जागरूक करने के लिए पुरस्कृत होने वाली बबिता के पिता ने उन्हें शिक्षित करने के लिए ठान लिया था। बबिता साइकिल से गांव से दूर किसी स्कूल में पढऩे जाती थीं। तेरह वर्ष की उम्र में उनकी शादी हो गई और पंद्रह वर्ष में वह मां भी बन गईं, पर घर-परिवार की बेडिय़ां उनके हौसलों को कम न कर सकीं। वह न केवल खुद साक्षर होना चाहती थीं, बल्कि अपने आसपास की लड़कियों को भी शिक्षित करना उनका उद्देश्य था। अथक प्रयास के बाद जब वे 2005 में शिक्षिका बन गईं तो उन्होंने लड़कियों को नि:शुल्क शिक्षा देना शुरू किया। साथ ही, भेदभाव, भ्रूण हत्या और घरेलू हिंसा जैसे महिला सशक्तिकरण की राह के रोड़ों को हटाने में जुट गईं। वह कहती हैं, 'शुरुआत में मुझे लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। सभी यही पूछते थे कि शिक्षित होने से क्या फायदा होगा? क्या इसमें समय बर्बाद करने से पैसों की कमाई हो सकेगी? इन सब बातों की परवाह न करते हुए लोगों को शिक्षित करने के प्रयास में जुटी रही।' अपने चार बच्चों के

पालन-पोषण का भार होने के बावजूद बबिता आज भी अपनी सैलरी का 10-15 प्रतिशत सामाजिक कार्यों पर खर्च कर देती हैं। पिछले दिनों उनसे कोसी क्षेत्र में शराबबंदी के लिए जनजागरण अभियान से जुडऩे की गुजारिश बिहार के मुख्यमंत्री ने की थी। वह अपने सभी सामाजिक कार्यों का ब्यौरा फेसबुक पर देती हैं और लोगों को जागरूक करती हैं।

विलुप्तप्राय कला का पुनरुत्थान एक बार एक प्रोग्राम के दौरान उलूपी को पता चला कि मंजूषा कला विलुप्ति के कगार पर है। तभी से उन्होंने इसे पुनर्जीवित करने का मन बना लिया। मंजूषा कला अंग प्रदेश (बिहार) की एक प्रसिद्ध लोककला है। छठी शताब्दी पूर्व दो स्त्रियों बिहुला और विषहरी की जीवनगाथा पर आधारित है यह पेंटिंग। यह कला स्त्रियों के आत्मविश्वास की जीत को दर्शाती है।

उलूपी कहती हैं, 'जब मैं इस मृतप्राय कला से रूबरू हुई, तभी मैंने इसके प्रचार-प्रसार का निश्चय कर लिया। शुरुआत में मैं हर स्त्री से यह कला सीखने की गुजारिश करती। ज्यादातर का एक ही जवाब होता इससे फायदा क्या होगा? और सीखने से असहमति जता देतीं, पर मैं उनकी बातों से हतोत्साहित हुए बिना काम में लगी रहती। मुझे जब भी समूह यानी साहित्यकारों, विद्वानों, कलाकारों के समारोहों, बैठकों में जाने का मौका मिलता तो मैं वहां भी इस कला के प्रति लोगों को जागरूक करने की कोशिश करती। घर-घर जाकर स्त्रियों को सिखाने की कोशिश करती। सोशल साइट्स से जुडऩे के बाद तो इस कला के कद्रदानों की संख्या भी बढ़ गई' उलूपी न सिर्फ कलाकार तैयार करती हैं, बल्कि उन्हें इस कला से जोडऩे के लिए आर्थिक प्रयास भी करती रहती हैं। कुछ स्त्रियां पेंटिंग तैयार कर स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा लगाए जाने वाले स्टॉल पर भी

बेचती है।

स्मिता


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