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कमल वही, पंखुडिय़ां नई

इस बात का इल्म संभवत: पार्टी को भी नहीं था कि लोकसभा के परंपरागत ट्रेंड को विधानसभा में हिमाचल के लोग बरकरार रखेंगे।

By Babita KashyapEdited By: Published: Fri, 22 Dec 2017 10:21 AM (IST)Updated: Fri, 22 Dec 2017 10:31 AM (IST)
कमल वही, पंखुडिय़ां नई
कमल वही, पंखुडिय़ां नई

शिमला, डॉ. रचना गुप्ता। हिमाचल में भाजपा विधानसभा चुनाव में दमदार तरीके से जिस तरह लौट कर आई है वह उसके प्रदेश में बढ़ते ग्राफ व लोकप्रियता का स्पष्ट प्रमाण है। दिग्गज नेताओं के कद से इतर जो बुलंदियां ऐतिहासिक वोट बैंक प्राप्त करके भाजपा ने पाई हैं उससे राज्य में न सिर्फ साफ व विकासोन्मुखी राजनीति की किरण निकलती दिख रही है बल्कि कमल की पंखुडिय़ों की लालिमा और तरोताजा हो गई है।

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2017 के विधानसभा नतीजे बता रहे हैं कि गत ढाई दशक में भगवा का वोट बैंक बढ़ा है। अब तक के विधानसभा मत प्रतिशत का बड़ा हिस्सा 48.08 प्रतिशत भाजपा को मिला है। यह बता रहा है कि केंद्र की जन नीतियां हों या फिर मोदी का जलवा अथवा हिमाचल के लिए केंद्र की सौगातें, लोगों ने दिल खोलकर 'कमल' को गले लगाया है।  

इस बात का इल्म संभवत: पार्टी को भी नहीं था कि लोकसभा के परंपरागत ट्रेंड को विधानसभा में हिमाचल के लोग बरकरार रखेंगे। इसीलिए न-न करते हुए भी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने का फैसला दिल्ली में लिया गया। इसके लिए संगठन के स्तर पर कई चीजें मुस्तैदी से परखी भी गईं। चुनाव से ऐन पहले पार्टी प्रभारी मंगल पांडेय को बनाया गया। छिटके व धड़ों में बंटे भगवाधारियों को एक माला में पिरोना कठिन था। बूथ स्तर से लेकर संसदीय क्षेत्र तक व्यवस्था सहेजना भी सरल नहीं था। वर्चस्व की लड़ाई तो दिग्गजों में थी ही।

पार्टी प्रभारी स्तर पर सामंजस्य बिठाया गया तो वहीं केंद्रीय मंत्रियों ने विकास कार्यों की झड़ी लगाई। वहीं, टिकट बंटवारे का टकराव काफी हद तक टाला गया, जबकि बागियों को बिठाने में पांडेय की मशक्कत रंग लाई। पार्टी के लिए यह वाकई दिल दहला देने वाला रहा कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल और पार्टी अध्यक्ष सतपाल सत्ती ही हार गए। भाजपा ने मतदान से डेढ़ सप्ताह पूर्व यह ऐलान किया था, ताकि उनकी टीम की अगुवाई प्रेम कुमार धूमल करेंगे।

उम्मीद थी कि इससे वोट बैंक पर सीधा असर पड़ेगा और जीत का आंकड़ा 50 को छू लेगा, लेकिन वास्तव में धूमल व सत्ती का हारना ही पार्टी को आत्मचिंतन के लिए मजबूर कर रहा है। जहां वोट बैंक बढऩा था वहीं धूमल का समर्थकों सहित हारना बड़ा झटका रहा। टीम धूमल में समधी गुलाब सिंह, रणधीर शर्मा, रविंद्र रवि... इत्यादि हार गए। उधर, कांगड़ा जिला से उम्मीद से विपरीत अच्छे नतीजे आए। वह भी ज्यादातर शांता समर्थक जीते।

धूमल के गृह जिला हमीरपुर में पांच सीटों

में भी कांग्रेस तीन ले गई, जबकि बिलासपुर में पांच में से चार भाजपा ने हासिल की। यह जिला में नेताओं के प्रभाव को बताता है। दूसरा यह भी अहम रहा कि इस बार विधानसभा चुनाव में हिमाचल के 'स्मार्ट' वोटर ने प्रत्याशी की जगह पार्टी को जिस तरह तरजीह दी है वह राजनेताओं के कद व महत्वाकांक्षा को खत्म करने वाला है। पार्टी चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ही दलों में कैबिनेट मंत्रियों सहित बड़े ओहदों पर रहे नेता चित हुए हैं। अधिकतर वे चेहरे जीते जो सत्ता केकरीब नहीं थे।

वंशवाद, रजवाड़ावाद और परंपरागत मंत्रिवाद को ठोकर मारते हुए जनता ने जो फैसला दिया है वह तब अचंभित करने वाला है जब प्रदेश में सिर्फ वह सरकारें काम कर रही थीं जो बदला-बदली को बढ़ाने या भ्रष्टाचार के साथ बूढ़े व रिटायर हुए मंझे खिलाडिय़ों के कल्याण से इतर आम जनता के विकास के बारे में नहीं सोचती थीं। इस बार पुरानी टीम ने जिस तरह पटखनी खाई है वह प्रदेश हित में इसलिए है क्योंकि अब जो सत्ता संभालें वह आम जन का दर्द समझें और नए युग की शुरुआत ईमानदारी से नए ढंग से करें।

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