मर्ज का हर इलाज कर्ज नही
हिमाचल के हालिया बजट का सामाजिक और संवेदनशील चेहरा अच्छा है लेकिन मामला प्रदेश की आर्थिक सेहत का भी है। प्रदेश करीब 50000 करोड़ रुपये का कर्जदार है।
शिमला, जेएनएन। उम्र भर कर्ज अदा हो न सका उम्र भर कर्ज अदा करते रहे हालिया बजट ही नहीं, बीते कुछ वर्षों के बजट पाठों को देखने के बाद बाद हिमाचल प्रदेश उस शख्स की सूरत में दिखता है, जिसके लिए उपरोक्त शेर जावेद अकरम ने लिखा होगा।
यह ठीक है कि भारतीय परंपरा का खुलापन और उसकी सहिष्णुता इस तथ्य से भी तसदीक होती है कि कर्ज लेकर घी पीने का परामर्श देने वाले चार्वाक भी ऋषि माने गए हैं। बीते कई वर्षों से बजट बनाता और उसे सुनता-सुनाता आ रहा हिमाचल प्रदेश कर्जदार हो गया है। इस चारु वाक यानी जनता को सुंदर लगने वाले वाक का अगर कोई नियम है तो वह भी आधा-अधूरा अपनाया जा रहा है। कर्ज तो लिया जा रहा है, मगर क्या घी सभी पी रहे हैं? बात किसी एक पक्ष की नहीं है। आज जो विपक्ष में हैं उन्हें भी कर्ज से परहेज नहीं था। गैर योजना खर्च की लीक को उन्होंने भी गाढ़ा ही किया है। हालिया बजट का सामाजिक और संवेदनशील चेहरा अच्छा है लेकिन मामला प्रदेश की आर्थिक सेहत का भी है। प्रदेश करीब 50000 करोड़ रुपये का कर्जदार है।
कोई तो यह कदम उठाने की पहल करे कि मेजर सोमनाथ शर्मा के प्रदेश में कोई बच्चा कर्जदार पैदा न हो। कोई तो इस धारणा को तोड़े कि समाज को ‘मुफ्त’ एवं ‘निशुल्क’ शब्दों के प्रति अतिरिक्त मोह हो गया है। कहीं तो करमुक्त बजटों पर तालियों से गुरेज हो।
कुछ मौके ऐसे होते हैं जब लोकप्रिय बजट देना सरकारों की मजबूरी होती है, लेकिन हर बजट करमुक्त हो, उसमें संसाधनों को बढ़ाने की बात न हो, जो संसाधन हैं, उनके युक्तीकरण की बात न हो...तो लगता है कि प्रदेश को कुछ व्यावहारिक कदम उठाने की जरूरत है। लोकलुभावन बजट से परहेज जब तक नहीं किया जाएगा, प्रदेश की माली हालत चाकचौबंद हो ही नहीं सकती। यह ठीक है कि किसी जमाने में जब केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार होती थी, तब देशभर में हिमाचल को वित्तायोग से न्यूनतम मदद मिली थी और इस बार देशभर में अधिकतम है। इस बार 234 फीसद अधिक है। कल्पना की जा सकती है कि वित्तायोग से मिलने वाली प्राणवायु अगर बंद हो जाए तो हिमाचल कितना तड़पेगा। वास्तव में कर्ज की आवश्यकता होती ही तब है जब गैर योजना खर्च बढ़ जाता है। हर घर का एक बजट होता है, संस्था का होता है, सरकार का होता है क्योंकि बजट का अर्थ ही वित्तीय योजना है।
अमुक काम के लिए इतना खर्च, अमुक काम के लिए उतना खर्च। लेकिन जब लोकप्रियता का पक्ष बजट पर हावी हो जाए तो वह बजट कहां रह जाता है। सरकारों और नेताओं का दायित्व है कि वह अभिभावकों की तरह हकीकत बताएं कि यह हमारी स्थिति है, इतना हम इस या उस काम के लिए खर्च कर सकते हैं। सरकार जनता की सेवक हो न हो, अभिभावक अवश्य होती है।
जो अभिभावक गरीब होते हैं...चाहते हैं कि बच्चे न बिगड़ें, वे सब यह नहीं कहते कि खर्च करते चलो, हम बैठे हैं। वे वास्तविकता बताते हैं। प्रदेश में पीढ़ी और युग परिवर्तन तो हो गया है लेकिन बजट की परिभाषा अब भी वही है, किसे क्या मिला? ऐसे में कमखर्च होना या केवल जरूरत पर खर्च करना ही आदत होनी चाहिए। कमखर्च होने से यह मुराद नहीं है कि जो अनिवार्य काम हैं, वे भी न हों। लेकिन कई बोर्ड और निगम हैं, जहां राजनीतिक लोग अपना पुनर्वास न भी ढूंढ़ें तो दिक्कत क्या है? क्यों सरकारी अमला गाड़ियां पूल नहीं कर सकता? माननीय भी चाहें तो महंगी गाड़ियों में बेशक चलें, बेहद महंगी गाड़ियों का मोह छोड़ सकते हैं।
बेशक यह तथ्य राहत देता है कि यहां बड़े लोगों को सुरक्षा के लिए उतना खर्च नहीं होता न उतने बड़े काफिले होते हैं लेकिन प्रदेश को अपने संसाधन देखने ही चाहिए। आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद की रीढ़ कृषि क्षेत्र की हालत खस्ता हो चुकी है। तो क्या विकल्पों पर नजर है? अगले वर्ष में प्रदेश की आय 42,104.43 करोड़ रहने की संभावना है और व्यय होगा 44,387.73 करोड़ रुपये।
यानी : और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन / मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे लेकिन चादर पैरों के बराबर हो नहीं सकती। जब खर्च का 42.84 फीसद भाग यानी रुपये में से पौने तैंतालीस पैसे वेतन और भत्तों पर जाएगा, ब्याज समेत कर्ज की वापसी पर 17.65 पैसे जाएंगे तो जाहिर है कि विकास के लिए पूरे चालीस पैसे भी नहीं बचे हैं।
ऐसे में युक्तीकरण याद आता है। कई ऐसे स्कूल हैं, जहां चार विद्यार्थी हैं और अध्यापक दो। इसी प्रकार जब मौजूदा उपमंडलों से काम चल रहा है तो नए उपमंडलों की आवश्यकता क्यों हो? जिस रफ्तार से पशु गोशालाओं से बेघर किए जा रहे हैं, क्या अब हर स्थान पर पशु चिकित्सालयों की आवश्यकता है? बचाया गया धन भी कमाया गया धन होता है। यह विचारणीय क्यों नहीं है कि वेतन और पेंशन के भुगतान के बाद कर्ज का ब्याज भी हमें ही अदा करना है। विकास के लिए बहुत कम धन रह जाता है। सच यह है कि यह समय संजीदगी के साथ पर्यटन को देखने का है, योजनाओं में संजीदगी का है, क्रियान्वयन में संजीदगी का है। हिमाचल को अपने पैरों पर खड़े करने का है। विकास के कर्जरहित और गतिशील रोडमैप के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है।
जो भी ऐसा करेगा उसके लिए ही रख्शां हाशमी ने लिखा होगा :
दिए जला के हवाओं के मुंह पे मार आया
कोई तो है जो अंधेरों का कर्ज उतार आया