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हिमाचल में धारा-118 पर व्यापक बहस की जरूरत

किसानों के हितों की अनदेखी कर न हो हिमाचल में विकास, प्रदेश की संस्कृति का संरक्षण सर्वोपरि।

By BabitaEdited By: Published: Sat, 08 Sep 2018 09:10 AM (IST)Updated: Sat, 08 Sep 2018 09:10 AM (IST)
हिमाचल में धारा-118 पर व्यापक बहस की जरूरत
हिमाचल में धारा-118 पर व्यापक बहस की जरूरत

शिमला, राज्य ब्यूरो। राजस्व कानून की धारा-118 पर व्यापक बहस की जरूरत है। दैनिक जागरण ने इस दिशा में सार्थक पहल की है, जिसे प्रदेश सरकार तक पहुंचाया जाएगा। सरकार अपने स्तर पर पूरे हिमाचल में आधिकारिक बहस करवाएगी। यह बात संसदीय कार्य एवं विधि मंत्री सुरेश भारद्वाज ने धारा 118 में जमीन खरीदने के प्रावधान को लेकर दैनिक जागरण द्वारा आयोजित जागरण मंच के दौरान कही।

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उन्होंने कहा कि जयराम सरकार हिमाचल के हितों की हर हाल में रक्षा करेगी। इसके लिए चाहे कानून व नियमों में संशोधन क्यों न करना पड़े, चाहे मसला संसद तक ले जाना पड़े, सरकार नहीं डरेगी। धारा-118 में संशोधन करना मधुमक्खी के छत्ते पर हाथ डालने जैसा है, फिर भी सरकार वोट बैंक साधने की बजाय हिमाचल के हितों पर चर्चा करवाएगी। हर वर्ग की राय सुनी जाएगी और सरकार अपनी राय कायम करेगी। गैर हिमाचली, हिमाचली, कृषक व गैर कृषक सभी वर्गों को चर्चा में शामिल किया जाएगा। असल में मामला गैर हिमाचली और हिमाचली का नहीं बल्कि कृषक और गैर कृषक का है। राजनीतिक लोग इसे हिमाचली बनाम गैर हिमाचली बना देते हैं। भू सुधार एवं मुजारा अधिनियम 1972 को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया है। ऐसे में इसमें संशोधन संसद के बिना नहीं हो सकता है। धारा-118 में गैर कृषकों को जमीन न देने का प्रावधान जब हुआ, तब प्रदेश में डॉ. वाइएस परमार, शांता कुमार, जेबीएल खाची सरीखे बड़े नेताओं ने भी इसके पक्ष में तर्क दिए होंगे। उनके तर्कों को विधानसभा में खोजने का प्रयास किया पर नहीं मिले। अब मौजूदा हालातों के मद्देनजर बहस होनी ही चाहिए।

मेरे लिए शिक्षाप्रद रही चर्चा

सुरेश भारद्वाज ने कहा कि जागरण मंच में हुई चर्चा उनके लिए भी शिक्षाप्रद रही। इसमें ऐसी शख्सियतों ने हिस्सा लिया जो सरकार में ऊंचे पदों पर रहे हैं। जागरण मंच में ऐसे अधिकारी शामिल हुए जो उपायुक्त से लेकर अतिरिक्त एसीएस व पुलिस विभाग के मुखिया तक रहे हैं और उन्हें कानून की बारीकियों की पूरी जानकारी है। सरकार इस मामले पर निर्णय लेने के दौरान उनके सुझावों पर भी चर्चा करेगी।

विकास मजबूरी, धारा 118 भी जरूरी हिमाचल में

विकास के लिए उद्योग और संस्थान खोले जाने जरूरी हैं। लेकिन यह विकास किसानों के हितों की अनदेखी कर नहीं होना चाहिए। प्रदेश की संस्कृति व सभ्यता का संरक्षण और विकास सर्वोपरि है। यह तथ्य धारा 118 व उसके नियमों में बदलाव और कृषकों व गैरकृषकों को जमीनें बेचे जाने को लेकर दैनिक जागरण कार्यालय शिमला में आयोजित जागरण मंच के दौरान सामने आया। हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एंड लैंड रिफॉम्र्स एक्ट 1972 में लाया गया था। इसमें धारा 118 के तहत कई प्रावधान और संशोधन किए गए जिसने नई बहस शुरू कर दी है। जागरण मंच में सभी ने प्रदेश में विकास की आवश्यकता जताई। हालांकि कुछ लोगों ने धारा 118 को भ्रष्टाचार का अड्डा बताकर इसे हटाने की मांग की। कुछ लोगों ने कानून को सख्ती से लागू करने की मांग की जिससे जिस उद्देश्य के लिए जमीन गैर कृषकों को दी जा रही है, उसे उसी उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जाए।

ये आए सुझाव

’ गैर कृषकों व कृषकों के साथ चर्चा होनी चाहिए।

’ कानून का सख्ती से पालन हो। 

’ विकास के लिए जमीन दी जाए पर उसका उसी उद्देश्य के लिए उपयोग हो।

’ जमीन बेचने वाले के लिए शर्त हो जिससे वह भूमिहीन न हो।

’ कृषकों के अधिकारों को संरक्षित किया जाए।

’ विकास और जमीन बेचने में समन्वय हो।

’ अधिकारियों की जवाबदेही तय हो।

’ कई-कई महीने तक आवेदन ऐसे ही न पड़े रहें।

’ पटवारी से लेकर सरकार तक जवाबदेही तय की जाए।

’ उपजाऊ भूमि को भी बचाया जाए।

’ औद्योगीकरण कृषि को समाप्त कर न हो।

’ किसानों की उजाड़ भूमि के लिए योजना बनाई जाए।

’ होटलों का निर्माण आवश्यकता के अनुरूप किया जाए।

’ प्रभावित पक्षों की भी सुनवाई हो। 

सभी राजनीतिक दलों के साथ चर्चा कर निर्णय लिया जाए।

जांचे जाएंगे धारा 118 के सभी पहलू

संसदीय कार्य एवं विधि मंत्री सुरेश भारद्वाज ने कहा कि धारा 118 खत्म होनी चाहिए या नहीं, इस पर एकदम राय या टिप्पणी नहीं की जाएगी। पहले पूरे विषय को गहनता से समझा जाएगा। इसके सभी पहलुओं का अध्ययन होगा। उन्होंने कहा कि नालागढ़ व बद्दी में तो बाहर से इतने लोग आ गए हैं कि वहां

उपजाऊ जमीनें ही नहीं बची हैं। बद्दी, बरोटीवाला, नालागढ़ (बीबीएन) मिनी बिहार बन गया है। वहां के मजदूरों के कारण हिमाचल की साक्षरता दर प्रभावित हो रही है। हम पर्यटन को बढ़ावा देना चाहते हैं और इससे होटल, रिजॉर्ट तो बनेंगे ही। 

उत्तराखंड उत्तर प्रदेश से अपनी अलग पहाड़ी पहचान के कारण अलग हुआ। बिहार से झारखंड खनिज संपदा को बचाने के लिए अलग हुआ। हिमाचल में सरकारी कर्मचारी भी खेतीबाड़ी करते हैं। राज्य के अधिकतर लोगों की मुख्य आजीविका कृषि है। सेब नहीं होगा तो रोजगार नहीं रहेगा। सरकारी क्षेत्र में रोजगार कम हो रहा है। हाइडल प्रोजेक्टों के नाम पर किसान उजड़ रहे हैं। प्रदेश में अगर बाहर वाले आ गए तो उनकी बची हुई जमीनें भी बिक जाएंगी। जो लोग पुश्तों से हिमाचल में रह रहे हैं, उन्हें भी जमीन खरीदने का हक नहीं है। 1972 से पहले जमीनें न खरीदना उनका गुनाह हो गया।

एक पहलू यह भी है कि उद्योगों के नाम पर कानून का दुरुपयोग हो रहा है। पूर्व एसीएस दीपक सानन ने बड़ोग समेत कई जगह पर दी गई इजाजत पर सवाल उठाए हैं। शिमला में बड़ा तबका है जिसे जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है। हिमाचल को आगे बढ़ना है तो फिर सभी पक्षों को साथ लेकर चलना होगा।

सड़क से सदन तक उठा मुद्दा

धारा 118 का मुद्दा इसी वर्ष भाजपा के सत्ता संभालते ही बाहर आ गया था। इससे नई बहस

शुरू हो गई। शीतकालीन सत्र से लेकर बजट सत्र तक इस मुद्दे पर चर्चा हुई। जयराम सरकार ने कहा कि धारा 118 में संशोधन किया जाएगा। इस पर कांग्रेस ने सरकार को घेरते हुए हिमाचलियों के हितों से खिलवाड़ न होने देने की बात सड़क से लेकर सदन तक उठाई। गैर हिमाचलियों के हिमाचल में जमीन

खरीदने के मुद्दे पर प्रदेश में सेवारत अन्य राज्यों के अधिकारियों व कर्मचारियों के बच्चों को छूट देने को लेकर 25 अगस्त को जारी स्पष्टीकरण से मामले ने तूल पकड़ लिया। आखिर नौ दिन बाद ही इसे सरकार को वापस लेना पड़ा। इस संबंध में अधिकारियों से जवाब भी मांगा गया।

यह अलग बात है कि सरकारों के बनने और चुनाव के दौरान धारा 118 पर बहस छिड़ती है और यह स्थिति हर बार होती है। पूर्व कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में राजस्व मंत्री रहे कौल सिंह ठाकुर ने कार्यभार संभालते ही पूर्व धूमल सरकार के कार्यकाल में धारा 118 के तहत दी गई मंजूरी की जांच के आदेश दिए थे। बेनामी संपत्ति को लेकर मामले दर्ज करने के आदेश भी हुए थे। इस संबंध में कई बेनामी संपत्तियों की रिपोर्ट जिला उपायुक्तों ने सरकार को दी थी।

 खत्म हो भू राजस्व कानून

भू राजस्व कानून 1972 को खत्म किया जाना चाहिए। यह कानून भ्रष्टाचार की जड़ है। गरीबों को अपनी जमीन बेचने का अधिकार दे देना चाहिए। जब कानून बना, तक हालात अलग थे। उस दौरान अशिक्षा व गरीबी थी मगर आज ऐसा नहीं है। इस कानून की जरूरत नहीं है। अब इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। हिमाचली भी तो अन्य राज्यों में रहते हैं। विदेशों में भी मिनी हिमाचल हैं। कुल्लू में इजरायली आते हैं तो हम मिनी इजरायल कहना शुरू कर देते हैं। चालीस वर्षों में कृषि उत्पादन नहीं बढ़ा है जो लगभग एक जैसा है। बाजार में इससे ज्यादा मांग पॉलीहाउस की सब्जियों की है। किसानों को मुख्यधारा में लाने के लिए कानून की बंदिशों को तोड़ना होगा। परवाणू में उद्योग लगाने के लिए एक किसान को उसकी जमीन के महज दो लाख रुपये मिला। 36 लाख रुपये सरकारी तंत्र में बैठे लोग डकार गए। यह पैसा किसान को मिलना चाहिए था। इस मामले की विजिलेंस जांच भी हुई। कानून की आड़ में धारा 118 का दुरुपयोग किया गया।

-आइडी भंडारी, पूर्व डीजीपी।

सारी जमीन बेचने पर पाबंदी लगे

कानून सरल किया जाए। जमीन बेचना किसान तय करें न कि सरकार या अधिकारी। हालांकि सारी जमीन बेचने पर पाबंदी लगाई जाए। यदि किसी किसान के पास 20 बीघा जमीन है तो वह आधी ही जमीन बेच सके। जमीन बेचने के सारे हक किसान में निहित हों ताकि भ्रष्टाचार को बढ़ावा न मिल सके। सेब किसानों की जमीन में ही तो पैदा हो रहा है। अगर जमीन न होती तो फिर उनके भूखे मरने की नौबत आ जाती।  सरकार कानून में संशोधन करे और इससे पूर्व की कमियां दूर की जाएं।

श्याम लाल शर्मा, किसानों के प्रतिनिधि

हिमाचल की जमीनें बचाना जरूरी

कानून प्रभावी तरीके से लागू हो। हिमाचल की जमीनें बचाए जाने की जरूरत है। सत्तर फीसद से ज्यादा रोजगार कृषि क्षेत्र से मिलता है। बेशक कई लोगों ने कई कारणों से खेतीबाड़ी छोड़ दी है जिसका एक कारण सस्ता राशन मिलना भी है। लेकिन कृषि से जुड़ी योजनाओं को भी कारगर बनाना होगा ताकि खेतीबाड़ी लाभ का सौदा हो सके। धारा 118 प्रदेश से अंदर या बाहर का मुद्दा नहीं है। यह संवेदनशील मुद्दा आर्थिकी व संस्कृति से भी जुड़ा है। अन्य राज्यों के लोगों के प्रदेश में आने से संस्कृति में बदलाव होता है। इससे स्थानीय बोलियां भी प्रभावित होती हैं। इसलिए सभी पहलुओं पर चर्चा होनी चाहिए।

-केआर भारती, पूर्व आइएएस अधिकारी

धारा 118 में नहीं हो सकता बदलाव

धारा 118 में जमीन खरीदने और न खरीदने के लिए कृषक और गैर कृषक दर्ज है लेकिन यह नहीं है कि कृषक कहां का हो उत्तराखंड या उत्तर प्रदेश का। यह संविधान की नौवीं अनुसूची में आता है। धारा 118 में बदलाव नहीं किया जा सकता है। कृषक को आगे नियम में अवश्य बताया गया है। इसमें आवेदन के लिए फार्म 14 है जिसमें कोई भी आवेदन कर सकता है। आवेदन के दस दिन में उसे स्वीकार या अस्वीकार

किया जाना है लेकिन ऐसे होता नहीं है। कई महीने तक आवेदन पड़े रहते हैं और ऐसे दस्तावेज मंगवाए जाते हैं जो आवश्यक नहीं होते। इसमें बदलाव की आवश्यकता है कि जो दस्तावेज चाहिए, उसे लिखित में दिया जाए। भूमि सुधार के लिए यह कानून लाया गया था। 

 भूमिहीन किसानों को सरकार द्वारा दी गई जमीनों को बीस वर्षों तक न बेचे जाने की व्यवस्था में खामियां हैं। यह जमीन उसके आर्थिक विकास के लिए दी जाती है लेकिन वह जमीन में कुछ भी नहीं करता और बदल देता है। ऐसा प्रावधान जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति के पास जमीन बेचे जाने के बाद कम से कम पांच बीघा भूमि रहे।

-भीमसेन, सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी

द्योग के लिए खरीदी जमीनें प्लॉट बनाकर बिक रहीं

धारा 118 का दुरुपयोग हो रहा है। इसे सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है। जिस मकसद के लिए जमीन खरीदी जा रही है, उसके लिए उसका उपयोग ही नहीं हो रहा। ऐसी जमीनों में तीन वर्ष तक उद्योग स्थापित न करने पर उसे वापस लेने का प्रावधान है लेकिन ऐसा होता नहीं है। कृषक भूमि के लिए धारा 118 का रहना जरूरी है नहीं तो नालागढ़ व बद्दी तैसी स्थिति हो जाएगी। वहां की उपजाऊ जमीनें भी चली गई हैं। लोगों ने पैसों के लालच में अपनी जमीनों को बेच दिया। अब न तो उनके पास जमीनें हैं, न पैसा और कोई साधन भी नहीं रहा। जो जमीनें सस्ते भाव में उद्योग स्थापित करने के लिए खरीदी जा रही हैं, उन्हें प्लॉट बनाकर करोड़ों में बेचा जा रहा है।

वर्ष 1990 में एक गैर कृषक को जमीन नीलाम की गई। जिसने जमीन खरीदी, उसकी जमाबंदी में नियम के तहत गैरकृषक दर्ज था। वर्ष 2001 में बदल कर उसे कृषक बना दिया। इसी प्रमाणपत्र के तहत कुल्लू में उसने मकान के लिए जमीन ली, मनाली में होटल व पैट्रोल पंप खोला। ऐसे कई मामले हैं जिनमें दुरुपयोग हो रहा है।

-बीएम नांटा, सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी

जरूरी है धारा 118 में संशोधन

धारा 118 में संशोधन की जरूरत है। इस धारा की आड़ में भ्रष्टाचार हो रहा है। नियमों में बांधने के कारण किसानों को अपनी जमीन के उचित दाम नहीं मिल रहे हैं। औने-पौने दाम में जमीन बेचनी पड़ रही है। व्यापार और कृषि मौलिक अधिकार के दायरे में आते हैं। इसलिए इन पर पाबंदी लगाना अनुचित है। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह कृषि-बागवानी करना चाहता है या व्यापार। इसलिए उसे रोका नहीं जा सकता है। राजस्व का प्रदेश सरकार को नुकसान हो रहा है।

पावर ऑफ अटार्नी (जीपीए) के नाम पर चूना लगाया जा रहा है। 1972 में जब इसे लाया गया तब यह उस समय के हिसाब से ठीक थी। अब प्रदेश के विकास के लिए इसकी समीक्षा करने की जरूरत है। पर्यटन विकास व उद्योगों को स्थापित करने के लिए इसमें बदलाव जरूरी है।

-गणेश दत्त, भाजपा उपाध्यक्ष

भ्रष्टाचार की प्रक्रिया बनी धारा 118 भारत व पाकिस्तान के अलग होने के बाद वर्ष 1950 से हमारे पूर्वज हिमाचल में व्यापार कर रहे हैं। लेकिन वे 68 वर्षों बाद आज भी प्रदेश में जमीन नहीं खरीद सकते हैं। यहां पर हमें बाहरी कहा जाता है जबकि पंजाब जाते हैं तो वहां पहाड़ी कहते हैं। ऐसे में अब जाएं तो कहां जाएं? यह स्थिति हजारों लोगों की है जो आज भी हिमाचल में जमीन खरीदने के लिए तरस रहे हैं। पेशावर के कई लोग हैं जो देश की आजादी के बाद यहीं पर बसे और पैदा हुए लेकिन अभी भी जमीन नहीं खरीद सकते हैं। धारा 118 केवल भ्रष्टाचार की प्रक्रिया रह गई है। पुश्तैनी तौर पर रहे लोगों को जमीन खरीदने का हक मिलना चाहिए। कोई व्यापारी कृषि या बागवानी करना चाहता है तो उसे यह हक दिया जाए। यह मौलिक अधिकार है जिसमें रोजगार व व्यापार की स्वतंत्रता है।

नितिन सोहल, कोषाध्यक्ष, व्यापार मंडल शिमला

बिक रहा है हिमाचल, लागू हो कानून

किसानों के अधिकारों का संरक्षण होना जरूरी है। जमीनों को बेचने की प्रक्रिया ऐसी नहीं होनी चाहिए कि किसान के पास भूमि ही न रहे। ऐसी भी स्थिति है कि किसानों ने पैसों के लालच में जमीन बेच दी और अब न तो उनके पास जमीन है और न ही कोई साधन। एक साथ पैसा आने से कई किसान नशे की गिरफ्त में जरूर आ गए हैं। कानून में छूट का परिणाम है कि पूरा मशोबरा व नालदेहरा बिक गया। हिमाचल ऐसे ही बिक रहा है। कानून को पूरी तरह से लागू करने की आवश्यकता है। कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। जमीनें जिस उद्देश्य से खरीदी जा रही हैं, उसे पूरा नहीं किया जा रहा है। प्रोजेक्ट लगाने के लिए किसानों से जमीनें खरीदी जाती हैं और बाद में उनकी अपनी जमीनों में ही प्रवेश बंद कर देते हैं। धारा 118 का हिमाचल के किसानों के लिए बहुत महत्व है परंतु इसे कड़ाई से लागू करने की जरूरत है। प्रदेश में विकास भी जरूरी है लेकिन प्रकृति से खिलवाड़ करके नहीं जिससे बादल फटने व सूखे जैसी नौबत आए।

-बीएस कंवर, सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर

कंगाल होने से बचाने के लिए लाई गई थी धारा 118

हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार ने हिमाचलियों को कंगाल होने से बचाने के लिए वर्ष 1972 में विशेष कानून बनाया। इसका मुख्य उद्देश्य अन्य राज्यों के धनी लोगों को प्रदेश में जमीनें खरीदने से रोकना था।

कुछ लोगों से मुलाकात के दौरान डॉ. परमार को पता चला था कि यहां के लोगों ने अपनी जमीन जिन्हें बेचीं, वे उन्हीं के यहां बतौर नौकर काम कर उनकी दया पर निर्भर थे। जमीनें बेचने के बाद भी यहां के लोग सड़कों पर आ गए थे। वर्ष 1972 में हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एंड लैंड रिफॉम्र्स एक्ट में विशेष प्रावधान किया गया। इसमें धारा-118 के तहत गैर कृषकों को जमीन बेचने पर रोक लगा दी गई। इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में डाला गया। इसके लिए 1976 में नियम बनाए गए। इनमें प्रावधान किया गया कि जमीन को अन्य राज्यों के लोगों को सेल, गिफ्ट डीड, लीज व मोर्डगेज नहीं किया जा सकेगा। पहली बार स्पष्ट किया गया कि मकान के लिए 500 वर्गमीटर, दुकान के लिए 300 वर्गमीटर और बाकी जो परियोजना स्थापित होगी, उसके लिए संबंधित विभाग द्वारा निर्धारित नियमों व आवश्यकता के आधार पर भूमि परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए जमीन की अनुमति दी जाएगी। इस दौरान ही भूमि किसे दी जा सकती है और किसे नहीं, यह प्रावधान किया गया।

नई सरकार बनते ही छिड़ जाती है बहस

हिमाचल में बीते करीब एक दशक से जब-जब नई सरकार बनती है और चुनाव आते हैं तो धारा 118 में जमीन दिए जाने को लेकर बहस छिड़ जाती है। राजनीतिक दल एक दूसरे पर इसके दुरुपयोग के आरोप लगाते हैं। धारा 118 के तहत प्रदेश में बेनामी संपत्तियों की कई बार जांच हुई है। इस दौरान कई संपत्तियों का खुलासा हुआ है। इस संबंध में कई मामले भी दर्ज हुए हैं जिनमें जांच की प्रक्रिया चल रही है।

 प्रस्तुति : यादवेन्द्र शर्मा, रमेश सिंगटा, महेंद्र ठाकुर ’ शिमला


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