Jagran Special हिमाचल प्रदेश में हो रहे हादसे अचानक आई आपदाएं नहीं हैं, बल्कि क्रिया के जवाब में प्रतिक्रिया है।
हम हिमाचल प्रदेश में दशकों से एक ही प्रकार के हादसों की पुनरावृत्ति की सूची देखें तो यह साबित होता है कि दूध का जला शायद ही छाछ को फूंक-फूंक कर पीता हो। हम इसकी सीख से कोसों दूर हैं।
तरुण श्रीधर
क्या यह सच है कि दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है? कतई नहीं; ऐसा ही प्रतीत होता है यदि हम प्रदेश में दशकों से एक ही प्रकार के हादसों की पुनरावृत्ति की सूची देखें। यह कहावत तो सदियों से हम सब सुनते-सुनाते आ रहे हैं पर इसकी सीख से कोसों दूर हैं। आज किन्नौर के निगुलसरी में क्यों हुआ यह हादसा? क्यों बेमतलब जानें गयीं? क्यों नहीं सीखा हमने अतीत के बिल्कुल ऐसे ही हादसों से? क्यों भूल जाते हैं हम इतनी जल्दी बीते हुए दिनों को, विशेषत: वे दिन जो एक दुखांत नाटक की तरह हमारे प्रदेश, समाज और जीवन में आए?
चार व पांच अगस्त, 1989 की मध्य रात्रि को शिमला जिला के मतियाना के पास भी बिल्कुल ऐसी ही त्रासदी हुई थी जो निगुलसरी में हुई। पहाड़ दरका और उसकी चपेट में आ गई हिमाचल पथ परिवहन की दो बसें, दो सेब से लदे ट्रक और तीन चार छोटे वाहन। 50 से अधिक शव बरामद हुए थे; जीवित किसी को भी नहीं निकाल पाए। राहत कार्य निश्चित तौर पर युद्ध स्तरीय थे पर उसके आगे की प्रतिक्रिया? मृतकों के परिवारों को संवेदना संदेश, जांच के आदेश, राहत राशि की घोषणा व भविष्य में पुनरावृत्ति न हो इसका आश्वासन। कदम सभी सराहनीय हैं, पर घोषणा के बाद थम क्यों जाते हैं?
चिड़गांव कैसे भूल गए
चिडग़ांव एक तहसील है शिमला जिले में, शायद सब जानते होंगे। पर क्या याद है या किसी बुज़ुर्ग ने बताया या कभी किसी सार्वजनिक मंच पर सुना कि क्या हुआ था इस छोटे से ख़ूबसूरत कस्बे में 11 अगस्त 1997 की रात को? बादल फटा, फिर आंध्रा खड्ड में बाढ़; पहाड़ दरका और अपने साथ लील कर गया पूरा कस्बा। 300 से अधिक शव बरामद हुए थे मलबे से और एक भी मकान नहीं बच पाया था। मार्मिक दृश्य था सामूहिक दाह संस्कार। शासन व प्रशासन ने यहां भी तत्परता व संवेदनशीलता से राहत कार्यों को अंजाम दिया, पर प्रश्न वहीं खड़ा है कि भविष्य में रोकथाम हो; इस ओर कदम थम क्यों जाते हैं?
कोटरूपी को कौन भुलाए
13 अगस्त, 2017 को अभी बहुत समय नहीं हुआ। मंडी जिला के कोटरोपी में भी पूरा पहाड़ ही टूट कर कहर ढा गया। रात्रि बसों के मुसाफिर एक बार फिर चपेट में आ गए। यहां भी 40 से अधिक शव बरामद हुए, लगातार भूस्खलन के चलते नीचे के गांव खतरे में पड़ गए। प्रतिक्रिया? वही जो इससे पहले होती रही है। एक और अनुभव इस हादसे में देखा गया, राष्ट्रीय राजमार्ग को निरंतर भूस्खलन के खतरे को देखते हुए कुछ दिन के लिए बंद किया गया, लेकिन कुछ स्थानीय युवा यही जिद्द निरंतर करने लगे कि उन्हें इसी मार्ग का प्रयोग करना है। और यह जिद्दी लोग पढ़े लिखे थे। अब इसे क्या कहा जाए? लापरवाही, घमंड, उदासीनता या फिर शायद सफर का आधा घंटा जीवन से अधिक बहुमूल्य है।
पहाड़ों पर बोझ लालच और अज्ञान का
कई विशेषज्ञों का कहना है कि पहाड़ के गिरने एवं भूस्खलन का कारण गुरुत्वाकर्षण भी है। मेरा निजी अनुभव है कि गुरुत्वाकर्षण तो नहीं है, पर यह सर आइसैक न्यूटन के मूल सिद्धांत को अवश्य चरितार्थ करता है। हर क्रिया की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। अब प्रकृति से छेड़छाड़ और खिलवाड़ तो हम प्रतिदिन करते हैं; निरंतर असहनीय बोझ भी डाल रहे हैं, तो प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है। प्रश्न यह है कि कितना बोझ सहने की क्षमता है हमारे पहाड़ों में? मात्र भौतिक बोझ ही नहीं। हमारे घमंड का बोझ, लालच का बोझ, अज्ञानता का बोझ, उदासीनता का बोझ।
नियम वह जो हमारे हित में हो
एक स्कीम बनी प्रदेश के एक शहर में सरकारी भूमि पर सभी अतिक्रमणों को नियमित करने की जिसका मैं भी एक रचनाकार था। क्षेत्रफल की सीमा के अतिरिक्त एक शर्त यह थी कि सार्वजनिक उपयोगिता व सुविधाओं पर अतिक्रमण नियमित नहीं किया जाएगा। स्कीम में स्पष्ट उल्लेख था कि नालियों और पानी की अन्य निकास सुविधाओं पर से अतिक्रमण अवश्य ही हटाना होगा तभी इस स्कीम का लाभ मिलेगा। अतिक्रमण नियमित हो रहा है इस पर संतोष कम पर नाली के ऊपर से मेरा गैरकानूनी कमरा हटाया जाएगा, इस पर आक्रोश अधिक। बहुत विरोध हुआ और हर स्तर पर यही तर्क कि यदि नालियों और पानी के निकासों पर अतिक्रमण को नियमित नहीं करोगे तो ऐसी स्कीम का लाभ ही क्या?
न्यू शिमला का हाल है उदाहरण
इसे लालच ना कहें तो क्या कहें। प्रकृति ने हमें अपार संपत्ति दी है दोहन के लिए: वायु, पानी, भोजन, खनिज इत्यादि और यह संपत्ति या तो स्थायी है या नवीकरणीय। हम दोहन से लूट की ओर बढ़ गए। एक ओर राजनीतिक लोकप्रियता पर्यावरण संरक्षण पर हावी है, दूसरी ओर हमारी स्वयं की उदासीनता और लालच। न्यू शिमला प्रदेश की राजधानी में अपने आप में एक शहर है। है न्यू पर सभी पुरानी समस्याओं से जूझ रहा है : ट्रैफिक जाम, कूड़ा कर्कट; न कोई पैदल चलने का स्थान है, न बच्चों के खेलने के लिए मैदान, न पार्किंग का स्थान। मकान एक दूसरे के साथ सटे हुए हैं। डर लगता है कि पानी का निकास कैसे होगा? जब न्यू शिमला का प्लान बना तो ऐसा ना था। पार्क, पैदल पथ, रोशनी, वायु और पानी की बाधारहित आपूर्ति की व्यवस्था का ध्यान रखा गया था। पर क्या हुआ? जो प्रभावशाली राजनीतिक और नौकरशाह प्लाट नहीं ले पाए, उनके प्रभाव में पार्क ही प्लाट बना दिए गए, सड़कों की चौड़ाई कम कर कुछ और प्लाट निकाल लिए, मकानों के बीच की दूरी को कम कर खुले स्थान समाप्त कर दिए, रसूखदारों ने मकानों में दुकानें भी खोल दीं। अब वाहनों और मनुष्यों की चाल तो रोक ली, पानी को कैसे रोकोगे? वह तो रास्ता निकाल लेगा। आज यह क्षेत्र भी किसी आपदा की प्रतीक्षा में लगता है।
इसलिए अचानक नहीं होता कुछ भी
इस संदर्भ में कटाक्षपूर्ण लगता है जब कहा जाता है कि 'अचानक' बाढ़ आई, 'अचानक' बादल फटा, 'अचानक' भूस्खलन हुआ। 'अचानक' तो पीडि़तों के लिए है जो अनावश्यक ही चपेट में आ गए। यदि हम आपदा को अचानक मानते हैं तो हम अपनी अज्ञानता और उदासीनता को जगजाहिर कर रहे हैं। सबक लें। रोकें इस क्रम को... कि 'दो बूंद आंसू और फिर वही ढाक के तीन पात।'
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के भूतपूर्व अधिकारी हैं)