जहरीली शराब कांड: अवैध शराब के निर्माण में उपयोगी वस्तुओं की सुगम उपलब्धता से उठे कई सवाल
अगर कुछ गलत होते देख चुप है तो वह भी उस गलत में गलत करने वालों की तरह संलिप्त है। अंतत मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के इस बयान का भी स्वागत है कि जहरीली शराब पीकर मरने वालों के परिवारों को मुआवजा आरोपितों की संपत्ति से ही दिया जाएगा।
कांगड़ा, नवनीत शर्मा। शिकायतें लगातार की जा रही थीं, स्थानीय निकाय के प्रतिनिधियों से भी कहा जा रहा था कि अवैध रूप से शराब बेची जा रही है। किंतु सब ‘चलता है’ की मुद्रा में थे। एक दिन मीथेनाल युक्त शराब पीकर सात लोग मर गए। इन सात लोगों के चिरनिद्रा में सोते ही पूरी व्यवस्था, शासन, प्रशासन और समाज.. सब जागृत अवस्था में आ गए। बात हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले की है, जहां हाल में हुआ यह घटनाक्रम अब तक चर्चा में है।
सरकार और पुलिस पर दबाव बना तो उसने विशेष जांच दल बना दिया और 72 घंटे में मामला सुलझा लिया गया। कालू, गोरू, नीरज, प्रवीण, आरके त्रिपाठी, सागर सैनी जैसे कई पात्र सामने आए। सामने आए अवैध शराब के अवैध कारखाने। किसी के घर से 25 लाख रुपये मिले, किसी के पास कुछ और मिला। दो ट्रक शराब और दो ट्रक संबंधित सामान पुलिस ने बरामद किया। बोतलें, पानी, स्टिकर, लेबल.. इस सारे काम के लिए केवल ये लोग जिम्मेदार नहीं थे। किसी ने जम्मू-कश्मीर के सांबा, किसी ने हरियाणा के अंबाला और किसी ने चंडीगढ़ से उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ इस कार्य में अपनी संलिप्तता कायम रखी। मामले को 72 घंटे में सुलझा लेने वाले बल के मुखिया हिमाचल प्रदेश के पुलिस महानिदेशक संजय कुंडू स्वीकार करते हैं कि यह संगठित अपराध था। वह इस बात पर जोर दे रहे हैं कि पुलिस को इन बातों का ध्यान रखना होगा।
सवाल यह भी उठता है कि इन सात लोगों ने अगर देसी शराब की बोतल पर लिखा वीआरवी फूड्स के स्थान पर लिखा ‘फूल्स’ पढ़ लिया होता तो संभव है वे जिंदा होते और सरकार को जहरीली शराब पीकर मरने वालों के परिवारों के लिए आठ-आठ लाख रुपये मुआवजे की घोषणा नहीं करनी पड़ती। दरअसल शैतान की पहचान हमेशा विस्तार में जाकर ही होती है, पर विस्तार में जाता कौन है। विस्तार तो यह बिंदु भी मांगता है कि अगर यह सब 72 घंटे में ही हल किया जा सकता था तो सात लोगों के मरने की प्रतीक्षा क्यों की गई? क्या आरोपी मुख्य किरदारों में से दो कालू और गोरू पहले अदृश्य थे?
सवाल यह है कि जब आबकारी एवं कराधान विभाग प्रदेश सरकार का है, जब शराब बनाना और बेचा जाना सरकार के नियंत्रण में है, तब भी ऐसा संगठित अपराध क्यों हो जाता है। शराब से जुड़ा नैतिकता का प्रश्न एक तरफ है। उसके कारण भी लोग छिप छिप कर पीते हैं और बिना यह देखे पीते हैं कि वे क्या पी रहे हैं। लेकिन इस सारे प्रकरण में आबकारी बल का ढीला नियंत्रण क्यों, प्रश्नांकित नहीं हो रहा है? ढक्कन, लेबल, बोतल और पानी तो कहीं से भी लिया जा सकता है, किंतु स्पिरिट कहां से आई? स्पिरिट तो नियंत्रित वस्तु है। कोई बम का बाहरी आवरण भले ही बना ले, यूरेनियम तो आसानी से नहीं मिलता। जब खेल नीति कभी-कभार आती है, शिक्षा नीति वर्षो के बाद आती है, हर वर्ष आबकारी नीति बनाने में नीति नियंता क्यों इतनी रुचि लेते हैं और इतना समय देते हैं?
सरकार किसी की भी रहे, हर साल नीति बदलने का अर्थ किसके हितों को सुरक्षित करने की कसरत है। राजस्व में बड़ा योगदान शराब का है। मान लीजिए 500-600 करोड़ रुपये सरकार को मिलते होंगे। क्या कोई यह कह सकता है कि इतना ही धन सरकारी कोष में न जाकर अन्यत्र नहीं जाता होगा? इस विषय पर भाजपा-कांग्रेस करते हुए कुछ हाथ नहीं आएगा। इस प्रकरण में जो लोग सामने आए हैं, वे वस्तुत: किसी दल के नहीं हैं या फिर वे सबके हैं। इस विषय में राजनीति को लाना कुछ लोगों का अपनी दुकान चमकाना और मूल समस्या से ध्यान भटकाना ही है। हिमाचल प्रदेश में तो एक प्रथा समझ से कतई बाहर है कि एक दो अवसरों को छोड़ कर आबकारी सचिव वही होता है जो मुख्यमंत्री का प्रधान सचिव हो। मुख्यमंत्री का प्रधान सचिव होना अपने आप में पूरी व्यस्तता का काम है, फिर आबकारी के लिए कोई और क्यों नहीं? वही क्यों?
हिमाचल प्रदेश में एक बार सरकारी निगम बना था, शराब बेचने के लिए। उसके समय की वास्तविकताएं क्या थीं, उन पर क्यों कोई बात नहीं करता। भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष में रहते हुए उसे अपने आरोपपत्र में भी शामिल किया था, आज उस पर बात क्यों नहीं होती? क्या सुविधा की राजनीति ने कदम उठाने की शक्ति को क्षीण कर दिया है? भाजपा-कांग्रेस करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि हर क्षेत्र में स्थानीय विभागीय अधिकारी राज्यपाल की सिफारिश पर नहीं, अपितु स्थानीय जनप्रतिनिधि की पसंद के आधार पर तैनात किए जाते हैं। इतनी कमजोर टीम और इतने निष्क्रिय लोग तैनात किए जाते हैं कि उन्हें तब तक सक्रिय होने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती जब तक सात लोग मर न जाएं? इन क्षेत्रों के थाना प्रभारी और बाकी सब स्थानीय नेता की पसंद के नहीं होंगे, ऐसा माना नहीं जा सकता।
अब समाज की बात। समाज अपने राजनेताओं से क्या मांगता है? किन बातों पर उन्हें मिलनसार-अहंकारी, विकास का सूत्रधार-काम में निष्क्रिय करार देता है? यही कि अमुक नेता जी रिश्तेदार के चतुर्वार्षिक श्रद्ध में आए थे, अमुक की शादी में आए थे, अमुक वृद्धा को पांच सौ रुपये दे गए थे या फिर चुनावी दिनों में ‘सेवा पानी’ में कोई कमी नहीं छोड़ते? शराब के अवैध ठेकों का विरोध कतिपय पंचायतों में केवल महिलाएं ही क्यों करती हैं? जिस समाज को सस्ती शराब दिखा कर उससे कुछ भी अपेक्षा की जा सकती हो, उससे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह अपने लिए ढंग की व्यवस्था चुन लेगा?
अब बाटलिंग प्लांट वाले धरे जा रहे हैं, फामरूला देने वाले पकड़े जा रहे हैं, स्टिकर बनाने वाले पकड़े जा रहे हैं, आशा है, स्पिरिट देने वाले भी पकड़े जाएंगे। हिमाचल प्रदेश में सरकारी ही नहीं, मंचों पर अतिथियों से पुष्पगुच्छ, पहचान और प्रश्रय प्राप्त करने वाले गैर सरकारी मंच भी सोचें, समाज की सबसे छोटी इकाई भी सोचे कि वह अगर कुछ गलत होते देख चुप ही रह रहा है तो वह भी उस गलत में गलत करने वालों की तरह संलिप्त है। अंतत: मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के इस बयान का भी स्वागत है कि जहरीली शराब पीकर मरने वालों के परिवारों को मुआवजा आरोपितों की संपत्ति से ही दिया जाएगा।
[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]