एक कली दो पत्तियां और ताजगी से भरपूर चाय वर्षों से लोगों को लुभाती आ रही
हर साल करीब 80-85 लाख किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है दार्जिलिंग में तथा करीब 10 लाख किलोग्राम ग्रीन टी पैदा होती है। ग्रीन टी व्हाइट टी यलो टी और ब्लैक टी एक ही पौधे केमेलिया सिनेसिस से तैयार होने वाली चाय है।
नवनीत शर्मा, कांगड़ा। 14 साल से 15 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस के रूप में मनाए जाने के बाद इस साल से यह दिवस 21 मई घोषित कर दिया गया। दिलचस्प बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस मनाए जाने की पहल वर्ष 2005 में भारत ने की थी और लगभग डेढ़ दशक बाद संयुक्त राष्ट्र द्वारा तिथि बदलने की घोषण भी भारतीय प्रयास का अनुमोदन है। जब थकान शरीर को लपेटने लगे तो कांगड़ा चाय का एक घूंट पीजिए। कांगड़ा चाय? जी! एक कली और दो पत्तियां, बाकी पौधा केवल सजावट।
पहले असम, फिर दार्जिलिंग, फिर कुमाऊं और गढ़वाल होते हुए जो चाय हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा पहुंची वही कांगड़ा चाय। वही चाय, जो नीलगिरी और मुन्नार यानी दक्षिण भारत में भी उगाई जाती रही है, जिससे कोरोना काल में असंख्य गले इस यकीन के साथ तर हुए कि कोरोना संक्रमण दूर रहेगा। यह रसायनों से मुक्त हरी पत्तियों से बनी हुई देशी चाय है और इसमें कैंसररोधक तत्व हैं। जिसे लंदन के आढ़तियों ने सन् 1870 के आसपास सर्वोत्तम बताया था। वही चाय जो प्रधानमंत्री मोदी के हाथों ट्रंप को भी भेंट की जा चुकी है। जी हां, कांगड़ा चाय, जिसका अपना एक जीआइ मार्क है। वैसे जीआइ या ज्योग्राफिकल इंडेक्स यानी स्थानीय विशेषता का प्रतीक, जो हर भारतीय चाय का है। यही वजह है कि 2015 में भारत के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र महासभा अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस भी घोषित कर चुका है।
मिल गई स्वाद की पत्ती : खौलते हुए पानी के सुपुर्द होकर उसे अपना रंग देकर जो जायका और आनंद ये पत्तियां देती हैं, उसमें तब और वृद्धि होती है अगर कोई इसकी वर्षों की भारतीय यात्रा के बारे में जान ले। मोटे तौर पर असम, दार्जिलिंग या कांगड़ा चाय पीते हुए जिस शख्स को याद करना चाहिए, उसका नाम है विलियम बेंटिंक। ब्रिटिश भारत के पहले गवर्नर जनरल, सती प्रथा को खत्म करने वाले, कन्या भ्रूण हत्या और बलि प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने वाले गवर्नर जनरल। जालंधर मंडल में अतिरिक्त आयुक्त थे मेजर एडवर्ड एच. पास्क। उन्होंने 1869 में उस समय के जालंधर मंडल के कार्यवाहक आयुक्त और अधीक्षक लेफ्टिनेंट कर्नल एच. कॉक्स को एक रपट भेजी।
उसके मुताबिक, सबसे पहले विलियम बेंटिंक ने एक ‘टी कमेटी’ बनाई। उन्हें महसूस होता था कि भारत के कई स्थानों की जलवायु कुछ चीनी प्रांतों की जलवायु की तरह है, इसलिए यहां चाय का उत्पादन संभव है। कुछ पौधे चीन से मंगवाए गए और कुछ असम में तैयार किए गए। जैसे ही प्रयोग सफल हुए 1862 में 1,61,219 एकड़ जमीन चाय के लिए दे दी गई, जबकि असल में चाय उगाई गई 28,061 एकड़ में। अंग्रेज उत्साहित हुए, क्योंकि लोगों ने निजी तौर पर भी चाय उगाना शुरू कर दिया।
उधर, इससे पहले 1835 में 20,000 पौधे अब के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में भेजे गए, लेकिन देहरादून, गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों में केवल 2000 पौधे ही जिंदा पहुंच सके। पांच-छह साल बाद कुमाऊं में सफलता मिली। 1843 में चाय की पहली फसल कुमाऊं में मिली। लंदन के आढ़तियों ने कहा कि कुमाऊं की चाय चीन की चाय से बेहतर है। इससे उत्साहित होकर डॉ. विलियम जेम्सन को उत्तर पश्चिम क्षेत्र में चाय उत्पादन का प्रभारी बना दिया गया। 1845 तक आठ छोटे बागान कुमाऊं और गढ़वाल में तैयार हो चुके थे। कुल क्षेत्र था 118 एकड़। अगले ही वर्ष 200 एकड़ चाय भूमि और बढ़ गई। 1850 में डॉ. जेम्सन ने कहा कि अब वह कांगड़ा क्षेत्र में भी चाय को ले जाना चाहते हैं। ताजा बीज और कई पौधे कुमाऊं से कांगड़ा लाए गए, लेकिन बहुत कम पौधे बच पाए।
बंजर भूमि की पौध : बेहद कठिन हालातों के बावजूद यहां चाय ने जड़ें जमा ही लीं। 1852 में जब लॉर्ड डलहौजी कांगड़ा आए तो उन्होंने भवारना और नगरोटा में चाय नर्सरी भी देखी। इसके बाद पालमपुर शहर के साथ सटे होल्टा में भी काम शुरू किया गया। जिन भूखंडों का इस्तेमाल नहीं हो रहा था या जो जमीनें बंजर समझी जाती थीं, वे चाय के लिए सहेज ली गईं। फिर यह पौध ऐसी छाई कि आज टी बोर्ड के उपनिदेशक अनुपम दास गुप्ता कहते हैं, ‘चाय दार्जिलिंग की हो या कांगड़ा की, मुझे कोई विशेष अंतर नहीं दिखता। दार्जिलिंग चाय और असम चाय का उत्पादन बहुत अधिक होता है, इसलिए कम उत्पादन के कारण कांगड़ा दिखती नहीं, लेकिन मैंने पूरे देश की चाय पी है।’
कसौटी पर कसी चाय : चाय के उत्पादन में असम अखिल भारतीय उत्पादन का लगभग 53 फीसद हिस्सेदारी रखता है, जहां 2.33 लाख हेक्टेयर जमीन पर चाय होती है। यहां के समतल चाय बागानों में प्रतिवर्ष 63-70 करोड़ किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है। ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के मैदानी भाग में चाय उगाई जाती है। अधिकांश चाय के बागान तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, शिवसागर, जोरहाट, गोलाघाट, नागांव और सोनितपुर जिलों में पाए जाते हैं। असम के जोरहाट में हर साल चाय महोत्सव का आयोजन होता है। इधर, बेहतरीन मौसम और प्राकृतिक सुंदरता के कारण 78 चाय बागानों वाले दार्जिलिंग का भी अपना स्थान है। दार्जिलिंग चाय का विशिष्ट स्वाद है। हो भी क्यों न, दुनिया की सबसे महंगी चायों में से एक जो ठहरी। यही की कुछ चायों की कीमत 50 हजार रुपए से एक लाख रुपए प्रति किलोग्राम तक है। इनमें मकईबाड़ी बागान की चाय दुनियाभर में मशहूर है। दार्जिलिंग चाय की बढ़ती मांग के कारण इसके नाम पर बड़े पैमाने पर नकली चाय बेची जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए भारतीय चाय बोर्ड ने दार्जिलिंग टी के कुछ मानक प्रमाणित किए हैं।
सिकुड़ रहे हैं बागान : बात अगर कांगड़ा चाय की करें तो इसका दायरा कभी शाहपुर से लेकर मंडी जिले में वहां तक था जहां तक धौलाधार पर्वतमाला दिखती है। यह दूरी करीब सौ किलोमीटर तक मापी जा सकती है। 1905 में जब भूकंप आया तो अंग्रेज कुछ धनाढ्य लोगों को बाग सौंपकर भाग गए। बाद में जैसे-जैसे परिवारों में बंटवारा हुआ, चाय के खेत भी सिकुड़ने लगे। जब क्षेत्र कम हुआ तो उत्पादन भी कम हुआ और उत्पादन कम हुआ तो लोगों ने बाग बेचने शुरू कर दिए। अब यहां चाय क्षेत्र करीब 2,200 एकड़ बचा है, जबकि उत्पादन 1,100 एकड़ में ही होता है। कोरोनाकाल में उत्पादन 10.36 लाख किलोग्राम हुआ है, जो आगामी वक्त तक 11 लाख किलोग्राम होने का अनुमान है।
हालांकि कामगारों की समस्या नहीं आई। चाय क्षेत्र को कम करने में विश्व के सबसे अमीर शरणार्थियों यानी तिब्बतियों की भी भूमिका है, क्योंकि जो चाय बागान इन्हें दिए गए थे, इन्होंने वहां चाय तो नहीं उगाई, बाग अवश्य उजाड़ दिए। यह चाय अब भी बच सकती है। अगर एक कनाल में 40 पौधे रोपे जाएं। हर पौधा एक किलोग्राम चाय भी दे तो साल में डेढ़ लाख रुपए कमाए जा सकते हैं। दूसरा, सुंदर घर बनाने वाले अगर नीलकांटे की बाड़ लगाने के बजाय चाय के पौधे ही सलीके से लगा दिए जाएं तो अपने पीने के लिए चाय तैयार हो सकती है। आखिर मामला तो ‘एक कली, दो पत्तियों’ का ही है। दुनियाभर में दूसरा सबसे ज्यादा सेवन किया जाने वाला पेय है चाय। पहले स्थान पर पानी है।
[इनपुट: कोलकाता से इंद्रजीत सिंह]