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हिमाचल प्रदेश में बागवानी का अर्थ केवल सेब नहीं, दाम को लेकर मिलकर काम करने की जरूरत

सरकार को नए विचारों के साथ मैदान में उतरना होगा। क्योंकि वाशिंगटन सेब और ईरानी सेब बाजार में उतर चुके हैं। रस रंग और दाम सब चुनौती देने वाले हैं। सेब को बचाने का काम आपस में ही होगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 02 Sep 2021 11:51 AM (IST)Updated: Thu, 02 Sep 2021 11:51 AM (IST)
हिमाचल प्रदेश में बागवानी का अर्थ केवल सेब नहीं, दाम को लेकर मिलकर काम करने की जरूरत
हिमाचल प्रदेश के बागों में सेब। फाइल

कांगड़ा, नवनीत शर्मा। यह कोई सैकड़ों वर्ष पुरानी बात नहीं है कि एक युवा अमेरिकी मिशनरी हिमाचल पहुंचे। उन्होंने यहां के जलवायु को सेब के उपयुक्त पाया। आए तो ईसाई धर्म का प्रचार करने थे, लेकिन भारत का स्पर्श पाकर सनातन धर्म अपनाया और सेमुअल इवान स्टोक्स से सत्यानंद स्टोक्स हो गए। उन्होंने भारत को सेब ही नहीं, स्वयं को भी दे दिया। नाम, पहचान और धर्म भी। वह अकेले अमेरिकी थे जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिए जेल गए। उन्हें जिन कई कारणों से याद किया जाता है, उनमें से एक अहम कारण है सेब बागवानी।

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इन दिनों सेब के दाम कम होने के कारण चर्चा में है। हिमाचल की आर्थिकी में 4500 करोड़ की कीमत रखने वाला फल, ऐसा फल जिसे अमीर और गरीब सब पसंद करते हैं, जिसे कोरोना काल में अपने सामथ्र्य के अनुसार सबने खाया या खाना चाहा। यह और बात है कि 40 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बागवान ने जिस सेब को बेचा था, वह उपभोक्ता तक 280 रुपये किलोग्राम में पहुंचा।

पिछले साल फसल कम थी तो इस साल फसल बंपर है। बीच में यह आरोप भी आया कि अदाणी ने खरीद मूल्य कम कर दिया। फिर राकेश टिकैत भी आए। बाद में किसानों ने एक संयुक्त मोर्चा बना कर कुछ मांगें भी रखीं। सेब का हिमाचल प्रदेश की आर्थिकी में योगदान तो है ही, सेब राज्य होने का गर्व भी कम नहीं है। आरोप यह भी लगे कि अदाणी ने मूल्य कम किया और सेब बागवानी बर्बाद हो गई, लेकिन यह कहना ज्यादती है। कारण यह है कि वह पूरे सेब उत्पादन का आठ से दस प्रतिशत हिस्सा ही खरीदता है। अदाणी से ठीक भाव नहीं मिल रहे, तो सेब अन्य कंपनियों को बेचा जा सकता है।

यकीनन कंपनियों जो दाम देंगी, वह करीब दस रुपये के सरकारी रेट से काफी अधिक होगा। जिन केंद्रीय कृषि कानूनों को कोसा जा रहा है, वे कमोबेश वीरभद्र सिंह के शासनकाल में हिमाचल में 2005 में आ गए थे जब यह छूट बागवानों को दे दी गई थी कि वे जहां चाहें वहां बेच सकते हैं। धन सृजित करने वालों को यानी उद्यमियों को कोसना तब ही बनता है जब वह गलत तरीके से आय सृजित कर रहे हों, अन्यथा इसे राजनीति कहते हैं। हर साल पहले पहल मूल्य अधिक होता है, फिर कम होता है और अंत में फिर बढ़ता है। सवाल यह है कि सेब की बागवानी को सहेजने और इसके संवर्धन के लिए क्या प्रयास हुए। हर साल बजट भाषण में दो या तीन पैरे बागवानी के लिए रखना अलग बात है, और सेब के लिए ढांचागत सुविधाएं तैयार करना दूसरी बात।

विडंबना यह है कि आज भी सरकारी या अन्य स्तरों पर यही कहा जाता है कि इतने पेटी सेब उत्पादन हुआ। पेटी वस्तुत: कोई मानक नहीं है। पेटी पांच किलों की भी हो सकती है और बीस या पच्चीस किलोग्राम की भी। दूसरा यह कि एक पेटी में केवल ऊपर की पंक्ति में ठीक सेब हो और नीचे दागी हो तो दाम कहां जाएंगे। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर मानते हैं कि ओलावृष्टि या बारिश के कारण जो सेब दागी हुआ है, उसके दाम कम हुए हैं। इस बार रिलांयस एग्रो, बिग बास्केट, सफल और एप्पी जैसी कंपनियां भी आ रही हैं।

जाहिर है प्रतिस्पर्धा में दाम ठीक मिलेगा। पूर्व कांग्रेस विधायक रोहित ठाकुर कहते हैं कि सरकार के हस्तक्षेप न करने के कारण सेब के दाम कम हुए हैं। दरअसल सेब बागवानों को लूटने का काम आढ़ती और कारोबारी कर रहे हैं। एक दशक में ही सेब खरीद के नाम पर करोड़ों का गोलमाल हुआ है। 112 मामले दर्ज हैं। सेब मामले की जांच करने के लिए बनाई गई एसआइटी के प्रमुख एसपी वीरेंद्र कालिया के मुताबिक 100 करोड़ रुपये का घोटाला है। हिमाचल में एक कृषि उपज मंडी समिति अधिनियम है जिसके मुताबिक जिस दिन मंडी में सेब बिके, उसी दिन बागवान को पैसे की अदायगी की जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। किसान संघर्ष समिति के महासचिव संजय चौहान कहते हैं कि एपीएमसी अपना ही एक्ट लागू नहीं कर पा रही है। उनका कहना है कि आढ़ती बागवानों से अधिक अमीर हो गए और बागवान गरीब होते जा रहे हैं।

जहां तक फसल प्रबंधन की बात है 2010 में फसल पैदा होने के बाद का नुकसान 12.3 फीसद था जो 2015 में 10.3 हो गया है। चूंकि यह सरकारी आंकड़ा है, इसलिए मान कर चलें कि नुकसान अधिक होता है। आम, अंगूर और पपीते में यह नुकसान कम है। किया क्या जाए। फसल उगाने के तरीके आधुनिक बनाए जाएं। भंडारण की तरफ तत्काल ध्यान दिया जाए। सेब के मूल्य संवर्धन की ओर ध्यान दिया जाए। यहां मूल्य संवर्धन से आशय इससे जुड़े अन्य उत्पाद बनाने से है जिनमें जूस भी एक है। क्यों ऐसा नहीं हो सकता कि किन्नौर में ही प्रोसेसिंग यूनिट लगे ताकि वहां जूस के लिए काम आने वाला सेब वहीं प्रयोग हो जाए। उसकी ढुलाई का खर्च बचेगा और सेब खराब भी नहीं होगा।

सच यह भी है मांग और आपूर्ति के बीच कोई जुड़ाव नहीं है। स्पष्ट यह भी हो रहा है कि कृषि उपज मंडी समिति की अपनी सीमाएं हैं। इस बहाने 1974 में बनी एचपीएमसी यानी हिमाचल प्रदेश हार्टीकल्चर प्राड्यूस मार्केटिंग एंड प्रासेसिंग कारपोरेशन की तलाश भी आवश्यक है। क्या यह अपने उद्देश्य में कामयाब हुआ या गम में डूबे अन्य निगमों जैसा निगम रह गया। सेब उगाने और बेचने वालों को ही जागना होगा। सरकार को नए विचारों के साथ मैदान में उतरना होगा। क्योंकि वाशिंगटन सेब और ईरानी सेब बाजार में उतर चुके हैं। रस, रंग, और दाम सब चुनौती देने वाले हैं। सेब को बचाने का काम आपस में ही होगा। इसके लिए हिमाचल को किसी राकेश टिकैत की जरूरत नहीं है जो यहां आकर पूछे कि यह किसके बाप की जगह है।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]


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