खबर के पार: बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था में कौन कहे बीमार का हाल अच्छा है
Khabar ke paar हिमाचल प्रदेश की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था में कौन कहे कि बीमार का हाल अच्छा है।
धर्मशाला, जेएनएन। ऐसे में, जब हिमाचल प्रदेश का एक सहायक दवा नियंत्रक फरार है... विजिलेंस के शिकंजे में आए उसे कई दिन हो गए हैं, लेकिन पुलिस के हाथ नहीं चढ़ रहा हो... जब आयुर्वेद खरीद अनियमितताओं से जुड़े लोगों को दिए जाने वाले आरोपपत्र अभी यात्राओं में हों....जब एक निजी प्रयोगशाला ने जवान महिला को एचआइवी पॉजिटिव घोषित कर दिया जबकि वह नेगेटिव थी ... और अवसाद में जाने के बाद उसकी मौत हो गई। जब मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी है कि जांच अवश्य की जाएगी, ऐसे में स्वास्थ्य से जुड़ी सरकारी और निजी सेवाओं की पड़ताल दोहराने में कोई बुराई नहीं है।
दरअसल यह हिमाचल प्रदेश है। जितने लोग देश के बड़े शहरों में रहते हैं, उससे कहीं कम पूरे हिमाचल प्रदेश में रहते हैं। सात मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें एक निजी क्षेत्र में है। अकेले सरकारी क्षेत्र से ही 700 से अधिक चिकित्सक हर साल पढ़ कर निकलते हैं। हाल में एम्स यानी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली की एक टीम के दिशा निर्देशन में शिमला में सफल गुर्दा प्रत्यारोपण किया गया। मंत्रिमंडल की बैठक जितनी बार होती है, कहीं न कहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की घोषणा भी होती है। यह भी संभव है कि कल को इन मानकों के आधार पर प्रदेश स्वास्थ्य सेवाओं में अव्वल भी आ जाए। आंकड़े तो आंकड़े ठहरे।
लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जिस गुणवत्ता की तलाश हिमाचल अपनी पहाडिय़ों में करता है, वह अभी समाप्त नहीं हुई है। प्रदेश के छह सरकारी मेडिकल कॉलेजों में से दो बड़े मेडिकल कॉलेज जिम्मेदार संतति की तरह बाकी सबका बोझ भी उठा रहे हैं। बाकी अभी चलना सीख रहे हैं। अभी तो मंडी के नेरचौक मेडिकल कॉलेज का भी शैशवकाल चल रहा है। एक गर्भवती को इसलिए इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज अस्पताल शिमला जाने के लिए कह दिया गया कि उसका रक्तचाप अधिक था। उसे उसके संबंधी डॉ. राजेंद्र प्रसाद मेडिकल कॉलेज अस्पताल टांडा कांगड़ा ले आए, सामान्य प्रसव हो गया। स्वास्थ्य मंत्री विधानसभा में बता चुके हैं कि तीन साल में 102 चिकित्सक नौकरी को अलविदा कह चुके हैं। उससे पहले उन्होंने सदन को सूचित किया था कि चिकित्सकों के 319 और स्टाफ नर्स के 1106 पद खाली हैं। सार यह है कि रोज काम आने वाले कई पद खाली हैं।
केंद्र की आयुष्मान और हिमाचल की हिम केयर से सींचे जा रहे स्वास्थ्य सरोकारों के बीच हिमाचल प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को वस्तुत: स्वास्थ्य प्रशासन और गुणवत्ता के लिए भी काम करना चाहिए। रोहड़ू क्षेत्र की एक 22 वर्षीय विवाहिता की मौत इस सदमे से हो गई कि उसे निजी प्रयोगशाला ने एचआइवी पॉजिटिव बता दिया। जब सरकारी संस्थान में वह टेस्ट हुआ तो रिपोर्ट नेगेटिव थी। तूफान मचा तो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने संज्ञान लिया और जिम्मेदारी तय करने की बात करते हुए यह भी कहा कि निजी प्रयोगशाला की जांच भी होगी और लैब तकनीशियन की डिग्री भी जांची जाएगी। यही कदम इस हादसे से पूर्व उठा लिए जाते तो संभवत: यह न होता। कुछ वर्ष पूर्व यह प्रावधान चर्चा में था कि निजी प्रयोगशालाएं भी पैथॉलॉजिस्ट की नियुक्ति करेंगी लेकिन निजी क्षेत्र के रिरियाने के बाद यह मुहिम औंधे मुंह गिरी। अब सहज ही अनुमान लगाएं कि एचआइवी की रपट बिना किसी काउंसिलिंग के दी गई, जैसे सिर पर पत्थर मारा जाता है। इसके तरीके होते हैं, एक चिकित्सकीय शिष्टाचार होता है। फाइल पर कूट भाषा में लिखा जाता है ताकि डॉक्टर के अलावा कोई समझ न पाए और मरीज का दिल न टूटे। लेकिन इन महीन किंतु महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान किसका है?
जब जनता बिना चिकित्सक के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का स्वागत ताली बजा कर करती है, क्या उसे नहीं पता कि स्वास्थ्य केंद्र दीवारों से ही नहीं, चिकित्सकों से भी बनते हैं? कि जहां चिकित्सकों की जरूरत है, नर्स और ऑपरेशन थियेटर सहायक तक की जरूरत है? चिकित्सा क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश से जुड़ी कई हस्तियां हैं, क्यों हिमाचल उन्हें पूरे सम्मान के साथ लेकर नहीं आता? प्रतिभाओं को सहेजना बेहद जरूरी है। हम कब तक चिकित्सकों की कमी का रोना रोएंगे? कब तक मौजूदा चिकित्सकों पर भार डालते रहेंगे? कब तक निजी प्रयोगशालाओं या अस्पतालों पर नकेल कसने से बचा जाएगा?
इस बात पर विचार होना ही चाहिए कि आज भी आपात स्थिति में आम हिमाचली मरीज की मंजिल चंडीगढ़, जालंधर अथवा लुधियाना ही क्यों है? विशिष्ट वर्ग भी हिमाचल में ही उपचार क्यों नहीं लेता? हिमाचल की प्रगति पर संदेह नहीं है, प्रयासों पर शक नहीं है, लेकिन आधारभूत समस्याओं को विजन या रणनीति के तहत सुलझाना होगा... विकास 'धीरे-धीरे होता है' अब कोई जवाब नहीं है। आंकड़ों से भी अनुरोध है कि जमीन पर उतरें।