कभी लाभ में चलने वाला हिमाचल प्रदेश पथ परिवहन निगम आज है घाटे में
कभी हिमाचल पथ परिवहन निगम को ‘रात को आ-जा’ बसें भी कहा जाता था.. लाभ का निगम था। रात्रि सेवा सबसे पहले शुरू करने वाला निगम था। आज घाटे का है। देश के अधिकांश हवाई अड्डों पर एचपीएमसी यानी हार्टीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग एंड प्रोसेसिंग कारपोरेशन के जूस मिलते थे।
कांगड़ा, नवनीत शर्मा। एक उम्र तक पहुंचने के बाद शायर मिर्जा गालिब को भी यह अनुभूति हो गई थी कि कर्ज उठा कर सारे सुख भोगते हुए यह सोचना अजब है कि एक दिन यह फाकामस्ती रंग लाएगी। सनातन परंपरा की सहिष्णुता और विपरीत विचार रखने वाले के सम्मान का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि चार्वाक भी ऋषि हैं। बेशक उन्होंने ऋण लेकर घी पीने का कालजयी सूत्र दिया। पर जब बात सरकारों, संस्थाओं की होती है, मिट्टी से जुड़े रहना अनिवार्य होता है। मिट्टी आत्मसम्मान है, संसाधन और आधार है।
हिमाचल प्रदेश विधानसभा का मानसून सत्र बीते दिनों संपन्न हो गया। अंतिम क्षणों में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रपट भी सदन में रखी गई। कई विभागों पर टिप्पणियां आईं जो हर साल आती हैं, कई वर्षो से आ रही हैं.. और साथ ही आया कर्ज का आंकड़ा और भविष्य में उसकी इबारतें। प्रदेश पर इस समय 61462 करोड़ रुपये का कर्ज है।
रास्ते दो हैं। पहला यह कि कर्ज तो इस प्रदेश की वास्तविकता है। इसमें नया क्या है? हर सरकार ने कर्ज लेकर ही प्रदेश को चलाया है। विपक्ष जब कर्ज की बात करता है तो यह भी याद आता है कि उनके शासनकाल में भी न कर्ज का मर्ज कम हुआ, न व्यर्थ का खर्च कम हुआ। दूसरा मार्ग यह सोचने का है कि अगर कर्ज ही सबकुछ है तो अपने संसाधन क्या हुए। क्या आत्मसम्मान से समझौता करते हुए हर हिमाचली का कर्जदार हो जाना उसकी नियति है? और यह कर्ज लेने का अंतिम बिंदु क्या होगा? सवाल यह भी है कि कभी हिमाचल पथ परिवहन निगम को ‘रात को आ-जा’ बसें भी कहा जाता था.. लाभ का निगम था। रात्रि सेवा सबसे पहले शुरू करने वाला निगम था। आज घाटे का है। देश के अधिकांश हवाई अड्डों पर एचपीएमसी यानी हार्टीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग एंड प्रोसेसिंग कारपोरेशन के जूस मिलते थे। आज एचपीएमसी कितने बागवानों से सेब उठा रहा है, शोध का विषय है।
कभी मर्सडिीज गाड़ियां होती थी हिमाचल प्रदेश पर्यटन निगम के पास। आज घाटे में है। ऐसा क्यों है कि ये सरकारी अदारे कुछ दशकों से पीछे की ओर जाने लगे? क्योंकि सोच यह रही कि जो कमा रहा है उसके सिर पर वे भी खाएं जो नहीं कमा रहे। कितनी देनदारियां हो गई हैं संगठनों की, इस पर सोचने का वक्त किसी के पास नहीं है। जो संसाधन हैं उनमें पन विद्युत परियोजनाओं का सहारा है। हिमाचल की पन विद्युत क्षमता करीब 28000 मेगावाट है, इसमें से 11000 का दोहन हो सका है। इसमें सवाल यह भी है कि खरीद का मोल भी ठीक मिले और पर्यावरण संतुलन भी ठीक रहे। बागवानी में सेब है लेकिन बागवानों के अपने दुख हैं। पर्यटन है तो आधारभूत ढांचा भी चाहिए। उद्योग हैं लेकिन पंजाब या चंडीगढ़, हरियाणा की सीमा पर। भीतर का हिमाचल नहीं।
हल क्या है कर्ज का? जाहिर है, घर हो या प्रदेश या फिर देश। दो ही उपाय होते हैं। पहला यह कि अपने संसाधन बढ़ाए जाएं। दूसरा यह है कि बचत की जाए। बचत से आशय खाना-पीना या पहनना छोड़ देना नहीं है अपितु व्यर्थ के खर्च बंद करने से है। कुछ वर्ष पहले विद्या स्टोक्स की अध्यक्षता में एक उप समिति बनी थी जिसका काम यह था कि वह गैर जरूरी खर्च को रोकने की सिफारिशें दे। उस रपट का क्या हुआ, कोई नहीं जानता। वास्तव में, संसाधन जुटाना और बचत करना, इन दोनों में से कोई भी हल किसी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं रहा। होना तो यह चाहिए कि प्राथमिकताओं की सूची बने, जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य सबसे आगे हों, लेकिन किस तरह आगे हों। प्राथमिक स्कूल हर दो किमी के बाद या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हर स्थान पर हों, इनका कोई लाभ बीते वर्षो में मिला नहीं है। कोरोना काल में कितने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र काम आए, यह रहस्य नहीं है। मुद्दा इनकी गुणवत्ता बढ़ाने का है। कई पदों पर रहने के बाद वित्त विभाग के विशेष सचिव रहे आइएएस अधिकारी केआर भारती कहते हैं, ‘संसाधनों के दोहन के लिए सोचना चाहिए और उस खर्च से बचा जाना चाहिए जो आवश्यक न हो। इससे आगे की समस्या यह है कि सरकारें लोकलुभावने फैसले लेने से हटती नहीं।’
एक मंत्री के पास अगर तीन विभाग हैं तो उनके पास तीन गाड़ियां क्यों हों? क्या कोई मंत्री एक साथ तीन गाड़ियों में सफर कर सकता है? अगर पुष्पगुच्छ के बजाय सभी माननीय एक फूल से संतुष्ट हो सकते हैं तो वाहनत्रयी के प्रति मोह क्यों? प्रदेश में इतने बोर्ड और निगम हैं, लाभ वाले भी घाटे में चले गए। फिर उनमें राजनीतिक समीकरणों के लिए की जाने वाली नियुक्तियों की अपनी राजनीतिक मजबूरी है। एक संस्था राज्य आपदा प्रबंधन बोर्ड भी है जिसके उपाध्यक्ष का कार्यभार रणधीर शर्मा ने उसी दिन संभाला जिस दिन किन्नौर में कई जिंदगियों पर पहाड़ टूटा था। चादर बड़ी करने का पुरुषार्थ अगर असंभव है तो पैर छोटे बेशक न होते हों, मुड़ तो सकते हैं। आखिर आत्मसम्मान का मामला है, नई पीढ़ियों को कर्ज नहीं अपितु संसाधन देकर जाने का विषय है। आने वाले समय में वेतन आयोग की सिफारिशें भी मौजूदा सरकार की परीक्षा लेने के लिए तैयार बैठी हैं। अपेक्षाओं का अंबार प्रतीक्षारत है।
कभी लघु बचत और सहकारिता में राष्ट्र स्तर पर पुरस्कृत होने वाला हिमाचल कहीं इसलिए कर्ज की आसानी तो नहीं चुन रहा कि उसे मिट्टी से जुड़े रहने का श्रम बोझ लग रहा है? साहिल अहमद की सलाह उपयुक्त है :
बैर न करना मिट्टी से
कर्ज उगेगा जंगल में।
[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]