दैनिक जागरण ने सांसद रामस्वरूप शर्मा को सौंपी जनता की उम्मीदें, मंडी क्षेत्र के ये मुद्दे किए उजागर
मंडी संसदीय क्षेत्र के सांसद रामस्वरूप शर्मा को सोमवार को उपायुक्त कार्यालय के सभागार में दैनिक जागरण की ओर से चुनावी घोषणापत्र सौंपा गया।
मंडी, जेएनएन। मंडी संसदीय क्षेत्र के सांसद रामस्वरूप शर्मा को सोमवार को उपायुक्त कार्यालय के सभागार में दैनिक जागरण की ओर से चुनावी घोषणापत्र सौंपा गया। लोकसभा चुनाव के दौरान दैनिक जागरण ने मंडी संसदीय क्षेत्र की मुख्य समस्याओं को प्रमुखता से उजागर किया था। कार्यक्रम में सुंदरनगर के विधायक, दैनिक जागरण के राज्य संपादक नवनीत शर्मा, महाप्रबंधक रणदीप सिंह, समाचार संपादक नीरज आजाद, प्रशासनिक अधिकारी व विभिन्न समाजसेवी संगठनों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। राष्ट्रीय, राज्य व स्थानीय स्तर के इन मुद्दों के समाधान की आवश्यकता है, जानिए
- राष्ट्रीय मुद्दे
नहीं हुआ रेललाइन का विस्तार
समस्या/अपेक्षा
जोगेंद्रनगर के शानन में बिजली प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए करीब 91 साल पहले अंग्रेजों ने सीमित संसाधनों में पठानकोट से जोगेंद्रनगर तक रेलवे लाइन का निर्माण किया था। अंग्रेजों को भारत छोड़े 72 साल हो चुके हैं लेकिन रेललाइन एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाई है। रेललाइन न होने के कारण क्षेत्र की जनता बसों में महंगी दरों पर सफर करने को मजबूर है। क्षेत्र के लाखों नौजवान सेना व अर्ध सैनिक बल में कार्यरत हैं। उन्हें देश के अन्य राज्यों में जाने के लिए पठानकोट, अंबाला या ऊना का रुख करना पड़ता है। भानुपल्ली -बिलासपुर-मंडी-मनाली-लेह रेललाइन की घोषणा भी पूरी नहीं हो पाई है। इतने वर्ष बाद भी रेललाइन के विस्तारीकरण का मामला कागजों से बाहर नहीं निकल पाया है।
क्या है कारण
इस रेललाइन के विस्तार में पहाड़ी क्षेत्र बड़ा अवरोध रहा है। कुछ वर्ष पहले तक इसके विस्तार की बातें हुई लेकिन अब इसे धरोहर मानकर छेड़छाड़ न करने की बात कही जा रही है। इस रेललाइन पर चल रही रेलगाड़ी को पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनाने की भी बात कही जा रही है। इस रेललाइन के बदले नई रेललाइन बिछाने की घोषणा तो की गई है लेकिन यह व्यवहारिक दृष्टि से सही नहीं लगता है।
क्या है निदान
रेललाइन के विस्तार के लिए केंद्र व प्रदेश सरकार को गंभीरता से प्रयास करने होंगे। पठानकोट-जोगेंद्रनगर-मंडी और भानुपल्ली-बिलासपुर-मंडी-मनाली-लेह रेललाइन प्रोजेक्ट को राष्ट्रीय प्रोजेक्ट घोषित करना होगा। इस मुहिम को तेजी से आगे बढ़ाने की जरूरत है और इसके लिए सभी स्तर पर बेहतर प्रयास होने चाहिए। रेललाइन के विस्तार से यहां लोगों को आवागमन की बेहतर सुविधा मिलेगी। पर्यटन को भी चार चांद लगेंगे।
अधर में सपनों की सुरंगें
समस्या/अपेक्षा
पहाड़ों व दर्रों को भेदकर बर्फबारी प्रभावित क्षेत्रों की दूरी कम करने की कवायद जमीनी स्तर पर धीमी है। तकनीक के इस दौर में भी शीत मरुस्थल की जनता आधुनिकता में पिछड़ी है। आवागमन कठिन होने के कारण यहां पर विकास की गति भी रफ्तार नहीं पकड़ पाई है। चंबा जिले का पांगी हो, लाहुल स्पीति या कुल्लू जिला का आनी व निरमंड क्षेत्र। छह माह के लिए यहां की जनता बर्फ में कैद होकर रह जाती है। सरकार सुरंगों का निर्माण कर यहां की जनता को इस समस्या से निजात दिलाने के सब्जबाग कई साल से दिखा रही है। सुरंगें बनने से जहां लोगों को आवागमन का साधन सुगम हो जाएगा, वहीं पर्यटन उद्योग को पंख लगेंगे।
क्या है कारण
रोहतांग सुरंग के अलावा अन्य सुरंगें फाइलों से बाहर निकलने का इंतजार कर रही हैं। करीब 8.8 किलोमीटर लंबी रोहतांग सुरंग का कार्य जून 2010 में शुरू हुआ था। उस समय इसकी लागत करीब 1500 करोड़ रुपये आंकी गई थी। अनुमानित लागत बढ़कर अब 4000 करोड़ तक पहुंच गई है। भूभू जोत और जलोड़ी सुरंग को केंद्र सरकार से मंजूरी नहीं मिल पाई है। भरमौर विधानसभा क्षेत्र की पांगी घाटी की जनता छह माह बर्फ की पीड़ा झेलती है। यहां चैहणी पास से सुरंग प्रस्तावित है।
क्या है निदान
प्रदेश व केंद्र सरकारों को मिलकर काम करना होगा। बीआरओ को रोहतांग टनल का अधूरा काम युद्धस्तर पर पूरा करना होगा। भूभू जोत व जलोड़ी जोत में प्रस्तावित सुरंगों के निर्माण को गंभीरता से लेना होगा। रोहतांग सुरंग से साल भर लाहुल-स्पीति के लिए आवाजाही संभव होगी। सभी सुरंगों के निर्माण के लिए मंजूरी के अलावा बजट का प्रावधान करवाना बहुत जरूरी है।
हवा में ही बातें कर रही हवाई सेवाएं
समस्या/अपेक्षा
हवाई सेवाओं के विस्तार व नए एयरपोर्ट के निर्माण की गूंज हर चुनाव में सुनाई देती है। हवाई सेवाओं को लेकर सब्जबाग ही मिले हैं। प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का 60 फीसद भाग मंडी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। छह माह देश व दुनिया से कटे रहने वाले पांगी, लाहुल घाटी व किन्नौर के कई क्षेत्र इसी संसदीय क्षेत्र में आते हैं। हवाई सुविधा के नाम पर यहां भुंतर में एकमात्र हवाई अड्डा है। वहां सिर्फ 70 सीटों की क्षमता वाला विमान उतर पाता है और फ्लाइट भी नियमित नहीं है। हवाई यातायात सुलभ होने से पर्यटक भी यहां बढ़ेंगे, इससे स्वरोजगार के साधन भी बढ़ेंगे।
क्या है कारण
पर्यटन नगरी मनाली, कसोल के लिए हवाई सुविधा न होने के कारण लोग सड़क से ही सफर करने को विवश हैं। सर्दियों में जनजातीय क्षेत्र की जनता सरकार के एकमात्र हेलीकॉप्टर पर निर्भर रहती है। इसके लिए कई दिन तक इंतजार भी करना पड़ता है। भुंतर हवाई अड्डे के विस्तार की कवायद कई साल से चल रही है। मंडी जिला के बल्ह में अंतरराष्ट्रीय स्तर का हवाई अड्डा बनाने के लिए दो दौर का सर्वेक्षण भी हो चुका है लेकिन अभी तक ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं।
क्या है निदान
बेहतरीन हवाई सेवा उपलब्ध करवाने के लिए सरकार को यहां निजी क्षेत्र का सहयोग लेना चाहिए। जनजातीय क्षेत्र के लोगों की सुविधा के लिए नियमित हेलीकॉप्टर सेवा शुरू करनी चाहिए। भुंतर हवाई पट्टी का विस्तार कर यहां बड़ी विमान सेवा शुरू करने की दिशा में प्रयास होने चाहिए। बल्ह क्षेत्र में प्रस्तावित हवाई अड्डे को धरातल पर उतारने के लिए केंद्र के समक्ष दृढ़ता से मुद्दा उठाना चाहिए। इसके साथ ही निजी क्षेत्र से भी बातचीत कर हवाई सेवाएं बढ़ाने के प्रयास किए जाने जरूरी हैं।
- राज्य स्तरीय मुद्दे
5जी तो दूर 3जी भी सही नहीं
समस्या/अपेक्षा
तकनीक के मामले में भारत ने खूब तरक्की की है। देश के लोग 5जी जैसी मोबाइल तकनीक के इंतजार में हैं, लेकिन मंडी संसदीय क्षेत्र के तीन जनजातीय क्षेत्रों में आज भी जिंदगी पुरानी पटरी पर ही दौड़ रही है। 5जी के जमाने में जनजातीय क्षेत्र लाहुल-स्पीति, किन्नौर व भरमौर की जनता से 3जी भी कोसों दूर है। यहां डिजिटल इंडिया का नारा बेमानी लगता है। दुनिया जहां दूरसंचार की नई नई तकनीक से जुड़ रही है तो यहां पर यह सुविधा पहुंचने में बरसों लग सकते हैं। किन्नौर हलके की 15 पंचायतों में तो अभी तक टेलीफोन की घंटी भी नहीं बजी है। किन्नौर के साथ तिब्बत की सीमा सटी हुई है। चीन यहां पर लगातार अपना नेटवर्क सुदृढ़ कर रहा है।
क्या है कारण
जनजातीय क्षेत्र होने के कारण यहां पर टावर इत्यादि की सामग्री पहुंचाना आसान नहीं है। महंगी निवेश किए जाने के बावजूद कंपनियों को यहां पर अधिक आय न होना भी प्रमुख कारण है। कई स्थानों पर मोबाइल फोन का नेटवर्क है लेकिन वह काफी कमजोर है। अधिक कीमत होने के कारण कंपनियां बड़े उपकरण नहीं लगा रही हैं। सरकारी कंपनी को छोड़ अन्य मोबाइल कंपनियों के नेटवर्क से क्षेत्र की जनता वंचित है।
क्या है निदान
जनजातीय क्षेत्र में उपभोक्ताओं की संख्या कम है। मोबाइल टावर स्थापित करने का खर्च अधिक है। ऐसे में यहां बीएसएनएल को छोड़ अन्य कंपनियां टावर लगाने से कतराती हैं। यही वजह है कि लोग दूरसंचार सेवा से नहीं जुड़ पाए हैं। लोगों को बेहतर मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध करवाने के लिए मैदानी भागों की तरह अधिक से अधिक टावर स्थापित करने होंगे। तभी यहां के लोग मुख्यधारा से जुड़ सकते हैं।
नासाज भाग्य रेखा
समस्या/अपेक्षा
संसदीय क्षेत्र में फोरलेन हो या राजमार्ग, सभी जगह एक जैसे हालात हैं। पर्यटन नगरी मनाली में हर साल 25 से 30 लाख देशी विदेशी पर्यटक आते हैं। मनाली को एकमात्र चंडीगढ़-मनाली राष्ट्रीय राजमार्ग जोड़ता है। किरतपुर से मनाली तक फोरलेन में तबदील करने का काम साल बाद भी पूरा नहीं हो पाया है। करीब दो साल से काम बंद है। कंस्ट्रक्शन कंपनियां बोरिया बिस्तर समेट कर जा चुकी हैं। पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग को फोरलेन में तबदील करने की घोषणा तो हुई है। कवायद कागजों से आगे नहीं बढ़ पाई है। यही हालत औट लुहरी सैंज मार्ग की है। जनजातीय क्षेत्रों में सड़कों की सबसे दयनीय हालत है। सड़कें सही न होने के कारण ही आए दिन सड़क हादसे होते हैं।
क्या है कारण
सड़कों की दयनीय हालत का प्रमुख कारण फंड का अभाव बताया जा रहा है। इसके अलावा कंपनियों का कार्य को सुचारू न करना भी रहा है। फोरलेन के प्रथम चरण में किरतपुर से नागचला के बीच 84 किलोमीटर फोरलेन बन रहा है। पांच साल में 50 फीसद काम पूरा नहीं हुआ है। द्वितीय चरण में नागचला से मनाली के बीच बन रहे फोरलेन का काम भी धीमी गति से चल रहा है। भाग्य रेखाओं की दयनीय हालत के कारण यहां पर्यटन का पंख नहीं लग पा रहे हैं।
क्या है निदान
सड़कों की हालत सुधरने, नए फोरलेन व मार्गों के निर्माण से लोगों को आवागमन की बेहतर सुविधा मिलेगी। पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। सड़कों की हालत दयनीय होने की वजह से पर्यटन अब भी दूरदराज के रमणीक स्थलों में जाने से कतराते हैं। केंद्र सरकार को फोरलेन के निर्माण को तेजी देने के लिए इस कार्य के लिए पर्याप्त बजट का प्रावधान करना चाहिए। इसके साथ ही एक निगरानी तंत्र की भी स्थापना करनी चाहिए कि वह निर्माण कार्य पर निरंतर नजर रखे ताकि समय पर इनका काम पूरा हो सके।
ब्यास व सतलुज को बचाने की जरूरत
समस्या/अपेक्षा
नदियों के किनारे ही मानव सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। प्रकृति की गोद में रहने वाले हमारे पुरखे नदी-जल की अहमियत समझते थे। निश्चित ही यही कारण रहा होगा कि पूर्वजों ने नदियों को देवी स्वरूप बताया है। वर्तमान पीढ़ी ने नदियों से मुख मोड़ लिया है। जीवनदायिनी ब्यास व सतलुज आज अपना वजूद बचाने को जूझ रही हैं। ब्यास नदी के पानी में बॉयोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड तय मानकों से कम पाई गई है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ब्यास के पानी को जीव-जंतुओं के अलावा मनुष्य के लिए भी ठीक नहीं माना है। नदी के संरक्षण के लिए सरकारी और निजी स्तर पर प्रयास करने की बात सिर्फ दावों तक सिमटकर ही रह गई है।
क्या है कारण
ब्यास नदी का पानी उद्गम से ही दूषित होता जा रहा है। मनाली से लेकर कांगड़ा जिला तक ब्यास के किनारे कई बड़ी पेयजल योजना बनी हुई हैं। होटल, रेस्टोरेंट व उद्योगों से निकलने वाला वेस्ट और सीवरेज की गंदगी सीधी नदी में बहाई जा रही है। प्लास्टिक और कूड़ा कचरा फेंके जाने से प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। नदी के संरक्षण की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कैचमेंट क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण से हालत और पतली होती जा रही है। ऐसी ही स्थिति का सामना सतलुज नदी को भी करना पड़ रहा है। कई जगह यह सिर्फ धारा बनकर बह रही है।
क्या है निदान
ब्यास नदी का अस्तित्व बचाने के लिए संरक्षण के लिए सभी को सतर्क होना होगा। होटल व रेस्टोरेंट से निकली वाली गंदगी को कूड़ा संयंत्रों में ठिकाने लगाना होगा। सीवरेज योजनाओं का निर्माण करना होगा। अवैध खनन रोकना होगा। कंकरीट के जाल पर रोक लगानी होगी। नदी में प्रदूषण फैलाने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। केंद्र सरकार को भी इस संबंध में एक वृहद योजना तैयार करनी होगी ताकि नदियों का संरक्षण किया जा सके। कूड़े कचरे को ठिकाने लगाने के लिए भी उचित कदम उठाए जाने की जरूरत है।
- स्थानीय मुद्दे
उद्योग ही नहीं तो रोजगार कैसा
समस्या/अपेक्षा
रोजगार व उद्योग मंडी संसदीय क्षेत्र में सबसे बड़ा मुद्दा है। उद्योग स्थापित कर उसमें हजारों बेरोजगारों को रोजगार देने की बात हर चुनाव में होती है। लेकिन चुनाव के बाद उद्योगों का मुद्दा गौण हो जाता है। क्षेत्र में कोई बड़ा उद्योग न होने से यहां बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है। हालांकि इस संसदीय क्षेत्र में सबसे अधिक बिजली प्रोजेक्ट हैं, लेकिन रोजगार के नाम पर स्थानीय लोगों से हमेशा छलावा हुआ है। 1500 मेगावाट की नाथपा झाकड़ी, पार्वती, 800 मेगावाट की कोल डैम, 990 मेगावाट की बीएसएल पनविद्युत परियोजना प्रमुख हैं। सुंदरनगर सीमेंट संयंत्र की तरह गुम्मा नमक संयंत्र वादों की फेहरिस्त में घुल गया। सुंदरनगर के खतरवाड़ी में प्रस्तावित 50 मीट्रिक टन क्षमता का सीमेंट संयंत्र 30 साल से सियासी पालने में झूल रहा है।
क्या है कारण
सरकार ने उद्योगों व प्रोजेक्टों में 70 फीसद हिमाचलियों को रोजगार देने का कानून भी बना रखा है लेकिन धरातल पर इस कानून का पालन कहीं होता। कई परियोजनाएं क्षेत्र में संचालित हो रही हैं जबकि नमक उद्योग व सीमेंट कारखाने स्थापित किए जाने की तो घोषणा हुई लेकिन धरातल पर अभी कुछ खास नहीं हो पाया है। कभी पर्यावरण का पेंच रास्ते में बाधा बन जाता है तो कभी अन्य औपचारिकताएं। यहां के जनप्रतिनिधियों ने भी प्रमुखता से इस मुद्दे को राज्य व केंद्र सरकार के समक्ष नहीं है। इनके राह में आ रही बाधाओं को गंभीरता से दूर करने के प्रयास नहीं किए हैं।
क्या है निदान
बेरोजगारी की समस्या से पार पाने के लिए केंद्र व प्रदेश सरकार को यहां उद्योग स्थापित करने के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे। सीमेंट व नमक आधारित संयंत्र स्थापित करने की दिशा में कदम उठाने होंगे। बिजली प्रोजेक्टों में हिमाचली लोगों को रोजगार सुनिश्चित करने के लिए कानून को धरातल पर सख्ती से लागू करना होगा। समय-समय पर बड़ी परियोजनाओं की जांच की जानी चाहिए कि स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर दिए गे हैं या नहीं।
संस्थान हैं, चिकित्सक नहीं
समस्या/अपेक्षा
संसदीय क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर सरकारी क्षेत्र में संस्थान तो बहुत हैं लेकिन चिकित्सकों व उपकरणों के अभाव में आज भी लोगों को निजी अस्पतालों या फिर चंडीगढ़ जैसे शहरों का रुख करना पड़ रहा है। अस्पतालों में चिकित्सकों के 30 से 35 फीसद तक पद रिक्त हैं। स्त्री रोग विशेषज्ञ का अभाव है। क्षेत्र में एक मेडिकल कॉलेज, तीन जोनल अस्पताल 20 से अधिक नागरिक अस्पताल और सैकड़ों सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, लेकिन उनमें मरीजों को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। यहां एक भी एमआरआइ मशीन नहीं है। अल्ट्रासाउंड के लिए पांच से छह माह बाद की तारीख मिलती हैं। एक्सरे व अन्य टेस्ट के लिए मरीज निजी प्रयोगशालाओं का रुख करने को विवश हैं।
क्या है कारण
प्रदेश के क्षेत्रफल का 60 फीसद भाग मंडी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। इस क्षेत्र में जनजातीय इलाका भी है। पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं न होने के कारण यहां लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। यहां स्वास्थ्य संस्थानों में स्त्री रोग विशेषज्ञों की भारी कमी है। केंद्र से भी यहां पर स्वास्थ्य सुविधाएं सुदृढ़ करने के लिए विशेष योगदान का अभाव रहा है। स्वास्थ्य संस्थानों में चिकित्सकों समेत अन्य स्टाफ के सैकड़ों पद रिक्त हैं। जनजातीय क्षेत्र होने के कारण भी यहां पर चिकित्सक व अन्य स्टाफ सेवाएं देना नहीं चाहते हैं।
क्या है निदान
क्षेत्र के बड़े अस्पतालों, जोनल व नागरिकों अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाएं सुदृढ़ होने से मरीजों को राहत मिल सकती है। सीएचसी व पीएचसी में भी छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज की सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी। चिकित्सकों, पैरामेडिकल स्टाफ व उपकरणों से लैस करना होगा। जनजातीय क्षेत्रों में सेवाएं देने वाले चिकित्सकों व पैरा मेडिकल स्टाफ को अतिरिक्त वेतन के साथ-साथ तमाम सुविधाएं दी जानी चाहिए।
कचरा ठिकाने लगाना पहाड़ जैसी चुनौती
समस्या/अपेक्षा
स्वच्छ पर्यावरण के लिए स्वच्छता अहम है लेकिन इस संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले कस्बों व शहरों में कूड़ा कचरा ठिकाने लगाने की कोई योजना नहीं है। यही कारण है कि यहां पर कूड़ा नदियों व पहाडिय़ों पर ठिकाने लगाया जा रहा है। इससे जहां पर्यावरण दूषित हो रहा है वहीं पर्यटन पर भी बुरा असर पड़ रहा है। कुल्लू व मनाली में रोजाना 260 टन, नगर परिषद रामपुर में तीन टन कचरा पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। मंडी जिला की विंद्राबणी डंपिंग साइट में 1.20 लाख टन कचरा डंप किया गया है। केंद्र व राज्य सरकार से अपेक्षा है कि स्वच्छता अभियान की सफलता के लिए कचरे को ठिकाने लगाने की योजना बनानी चाहिए।
क्या है कारण
क्षेत्र के लोग स्वच्छता के प्रति जागरूक तो हुए हैं लेकिन कचरा ठिकाने लगाए जाने के कोई इंतजाम नहीं होने के कारण ही कूड़ा-कचरा यहां-वहां बिखरा रहता है। कई जगह ब्यास के किनारे कचरे के ढेर लगे हैं। बारिश होने पर कचरे का रिसाव ब्यास में घुल रहा है। मंडी जिला के कई कस्बों से एकत्र कचरा बिंद्रावणी में ही डंप किया जा रहा है। सभी कस्बों में कचरा डंप करने की व्यवस्था नहीं है। घर-घर से कचरा उठाने और उसे सही तरीके से ठिकाने लगाने की बात तो होती है, लेकिन धरातल पर ठोस प्रयास न होने से समस्या जस की तस खड़ी है।
क्या है निदान
नगर निकायों को अपने स्तर पर कचरे के निष्पादन के लिए कारगर कदम उठाने होंगे। हर निकाय में घर-घर से गीला व सूखा कचरा अलग-अलग उठाने की कवायद शुरू करने होगी। लोगों को जागरूक करना होगा। गलने सडऩे वाले कचरे से खाद तैयार करने के लिए लोगों को प्रेरित करना होगा। प्रशासन को नई डंपिंग साइट चिहिन्त करनी होंगी व आधुनिक तकनीक के कूड़ा निस्तारण संयंत्र लगाने होंगे। इसके लिए केंद्र सरकार से आर्थिक मदद के प्रयास करने होंगे।