हर दिन नए रूप में दिखता है जुकारू उत्सव
जनजातीय क्षेत्र पांगी में 15 दिन तक मनाए जाने वाला जुकारू उत्सव की हर दि
कृष्ण चंद राणा, पांगी
जनजातीय क्षेत्र पांगी में 15 दिन तक मनाए जाने वाला जुकारू उत्सव की हर दिन विधि विधान से शुरुआत होती है। इस उत्सव को मौनी अमावस्या को सिल्ल के नाम से शुरू किया जाता है और पूर्णमासी को स्वांग मेले के साथ संपन्न हो जात है।
सिल्ल के दूसरे दिन को लोग पडीद के नाम से मनाते हैं। सुबह लोग भगवान सूर्य देव को जल चढ़ाने के बाद घर में भेड़-बकरियों (लक्ष्मी माता) की पूजा-अर्चना के बाद अपनों से बड़ों के घर जाकर के उनके चरण स्पर्श करके उन से आशीर्वाद लेते हैं। सारा दिन यही कार्यक्रम चलता है। किलाड़ में लोग रात को चार बजे तक जुकारू करने के बाद महालियत गांव में प्राचीन शिव मंदिर में भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर के सुख समृद्धि की कामना करते हैं। शुक्रवार को यहां आस्था का सैलाब उमड़ा।
जुकारू उत्सव के दूसरे दिन धरती पूजन किया जाता है। लोग सुबह अपने खेतों में जाकर धरती माता की पूजा करते हैं। खेत में आटे के बैल हल से जोताई की। मान्यता है कि इससे फसल अच्छी होती है और सर्दियों की समाप्ति का आगाज किया जाता है।
तीसरे दिन त्रिदेवो ब्रह्मा, विष्णु और भोलेनाथ की पूजा की जाती है। चौथे दिन चार दिशाओं और चतुर्भुज धारी गणेश के साथ अन्य देवो की पूजा-अर्चना की जाती है। छठे दिन से आठवें दिन तक नाग देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं। नौंवे दिन से देवियों की विधि विधान से पूजा अर्चना के साथ मेलों का आयोजन किया जाता है। 12वें दिन पुरथी में माता मलासनी के मंदिर में नामक मेले का आयोजन किया जाता है। जनश्रुति के अनुसार इसमें माता की आठ बहनों सहित दो भाई बासिग नाग और कालिग नाग मिलने आते हैं। माए का अर्थ आपसी मिल से भी जोड़ा जाता हैं।
पांगी मुख्यालय किलाड़ में उयांन मेले के साथ जुकारू उत्सब का समापन किया जाता है। उयांन मेले का मुख्य आकर्षण स्वांग रहता है, जिसे भगवान शिव का अंश माना जाता है। देंती नाग और प्राचीन शिव मंदिर महालियत के मुख्य चेले ( जगड्डी/ लागड़ी ) को स्वांग बनाया जाता है। मान्यता है कि उयांन के दिन पांगी के पीरपंजाल पहाड़ियों की चोटियों से यह इस दृश्य को देखकर भाग जाते हैं कि मानव समाज ने राजा बलि को अपने बीच में रखा है।
आवासीय आयुक्त पांगी सुखदेव सिंह राणा ने कहा मेले त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इसको संजोएं रखना हमारा कर्तव्य है। इससे हमारे आने वाली पीढि़यों को अपनी संस्कृति की पहचान मिलती हैं।