तब शरीर और आत्मा का होता था गुरु-शिष्य का संबंध, अब वो जज्बा नहीं
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राजेश कुमार, यमुनानगर : प्राचीन काल में गुरु शिष्य का संबंध शरीर और आत्मा का होता था। गुरु आत्मा और शिष्य शरीर था। उस समय गुरुकुल परंपरा थी। इसके तहत बच्चा घर से दूर ऋषियों के आश्रम में रहते थे, जहां पर रहकर उसे गुरुकुल के कायदे कानून की पालना करनी पड़ती थी। जैसे सुबह उठकर स्नान करना, संध्या वंदन करना, खेतों में गाय को चराना, खेतों में काम करना आदि होता था। तब शिष्यों को सेवा भाव सिखाया जाता था। तब अध्यापक केंद्रित शिक्षा होती थी, परंतु अब बाल केंद्रित शिक्षा है। अब बच्चे को जरूरत के हिसाब से शिक्षा दी जाती है। टीचरों के हाथ बंधे हैं जो अपनी तरफ से बच्चे को कुछ भी नहीं पढ़ा सकते। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर प्रभाकर व शास्त्री में गोल्ड मेडलिस्ट एवं राजकीय सीनियर सेकेंडरी स्कूल टोपरा कलां के प्रिसिपल रामस्वरूप शर्मा ने दैनिक जागरण से अपने अनुभव साझा किए।
रामस्वरूप शर्मा ने कहा कि पहले शिष्यों को ब्रह्मचर्य, सादा जीवन, नैतिकता, पौष्टिक भोजन लेने के बारे में सिखाया जाता था, जिससे गुरु शिष्यों की सोच को बदल देते थे। एक तरह से गुरु त्रिकालदर्शी थे। गुरु में त्याग की भावना होती थी, जिसका असर शिष्यों पर पड़ता था। शिष्य गुरु प्रेमी बनते थे। गुरु जो कह देते थे उसे मानना शिष्य के लिए जरूरी होता था। इससे बच्चों की स्मरण शक्ति बढ़ती थी, क्योंकि तब पुस्तकें नहीं होती थी। जो गुरु ने बोल दिया वो साथ-साथ स्मरण करते रहते थे।
पाश्चात्य के चक्कर में अपनी संस्कृति भूल गए
उनका कहना है कि अब समय परिवर्तन हो गया है। आज न तो आत्मा की आवाज है और बच्चे बिना किताबों के पढ़ सकते हैं और न ही टीचर पढ़ा सकते हैं। खान पान, व्यवहार, साधना, कर्म, आचरण, सोच में परिवर्तन आना शुरू हो गया है। यह परिवर्तन राजा, महाराजाओं के युग से शुरू हुआ है। यदि राजा अच्छा होगा तो प्रजा भी अच्छी होती है। राजा विदेश जाने लगे और पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना शुरू कर दिया। जहां हमेशा सुख है वहां दुख भी है ये प्रकृति का नियम है। धीरे-धीरे हम पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने लगे और अपनी ही संस्कृति को भूलने लगे। पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी हो गई। इसका असर केवल गुरु शिष्य पर ही नहीं बल्कि सभी लोगों पर पड़ा। आज भी जहां गुरुकुल हैं वहां के बच्चों की शिक्षा स्कूलों के मुकाबले अलग है। वर्तमान में टीचर का कोई महत्व नहीं रह गया। आज टीचर को कहा जाता है कि उन्हें बच्चे को ध्यान में रखते हुए शिक्षा देनी है। आज टीचरों के हाथ बांध दिए गए हैं। बच्चों को न डांट सकते और न सजा दे सकते।