अब गोरैया को घोंसले की नहीं होगी दिक्कत
प्रयास है लुप्त हो रही गोरैया को बचाने का। उसको सुरक्षित स्थान देने का। घटती संख्या की तलाश करने का। ये बीड़ा हाथ में लिया है नन्हे बाल वैज्ञानिकों ने। शुरुआत की है पॉकेट मनी से बर्ड हाउस बनाकर ताकि गोरैया का खुले आसमान के नीचे खतरनाक पक्षी शिकार न करें।
नितिन शर्मा, यमुनानगर
प्रयास है लुप्त हो रही गोरैया को बचाने का। उसको सुरक्षित स्थान देने का। घटती संख्या की तलाश करने का। ये बीड़ा हाथ में लिया है नन्हे बाल वैज्ञानिकों ने। शुरुआत की है पॉकेट मनी से बर्ड हाउस बनाकर, ताकि गोरैया का खुले आसमान के नीचे खतरनाक पक्षी शिकार न करें। इस हाउस में रुकने के लिए अलावा उनके दाना पानी का इंतजाम किया। बाकायदा इसकी निगरानी के लिए बच्चों ने अपनी ड्यूटी तय की है। ये प्रेरणा बच्चों को दादी की कहानी व विज्ञान क्लब के प्रभारी दर्शन लाल बवेजा से आई है। ये बच्चे सीवी रमन क्लब के सदस्य हैं।
मान बस्तियों के साथ रहती थी गोरैया
एक छोटी सी चिड़िया जो सदियों से मनुष्य के साथ रहती आयी है को ही गोरैया नाम से बुलाते हैं। इसका जूलॉजिकल नाम पासर डोमेस्टिकस है व सामान्य नाम घरेलू गोरैया है। चाहे एशिया हो या यूरोप, ये गोरैया रानी मनुष्य के साथ साथ हर जगह चली। इसके अतिरिक्त पूरे विश्व में अमरीका, अफ्रीका, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया तथा अन्य मानव बस्तियों मे मनुष्य के साथ साथ इसने अपना भी घर बनाया।
ये भी हैं इनकी प्रजाति
गोरैया की 6 प्रजातियां हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो पाई जाती हैं।
नीम के पेड़ पर स्थापित किया बर्ड हाउस
मुकंद लाल पब्लिक स्कूल की छात्रा पार्थवी के नेतृत्व में एक परियोजना कार्य के अंतर्गत कॉलोनी स्थित में नीम के पेड़ पर लकड़ी का नेस्ट यानी बर्ड हाउस व अन्य पक्षियों के लिए जलपात्र व बाजरा पात्र स्थापित किए। उनके साथ संयम, परिणिका, पार्थवी, अर्श सैनी, अंशी, गौतम, जीविशा, छवि, अंशिका, राईना मेहता, नव्या बतरा ने सहयोग प्रदान किया।
आधुनिकता में लुप्त हो रही गोरैया
क्लब प्रभारी दर्शन लाल बवेजा ने बताया कि जैसे गिद्ध लुप्त हो गए वैसे ही गोरैया पर संकट आया। सघन आबादी के आधुनिक बंद घरों में अब आंगन नहीं होते है। इन घरों में गोरैया के रहने के लिए जगह नहीं बची है। पिसा पिसाया थैली वाला आटा ओर पैकेट बंद चावल लाने के कारण घर में अब न तो छतों पर गेहूं ही सूखने डाली जाती हैं। धान भी नहीं कूटा जाता हैं। इस कारण उनको छत पर भोजन नहीं मिलता। आधुनिक युग में बंद डिबिया जैसे घरों में उनके घुसने के लिए खुले रोशनदान नहीं रहे। कृषि में कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ गया है जिसका असर गोरैया के खाद्य चक्र व प्रजनन तंत्र पर पड़ रहा है।
99 प्रतिशत कम हो चुकी हैं शहरी गोरैया
शहरी क्षेत्र में गोरैया की मानव आबादी के साथ उसकी प्रतिभागिता में 99 प्रतिशत तक की कमी आ गई है। वास्तव में 1980 से ही इनकी संख्या में कमी आना शुरू हो चुका था। फिर भी इनके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए। जिले के मात्र कुछ ग्रामीण इलाकों की आबादी में इनका पाया जाना ही रिपोर्ट हुआ है। ऐसा रहा तो हो सकता है कि गोरैया इतिहास की चीज ही न बन जाए और भावी पीढि़यों को गोरैया देखने को भी न मिले।