श्रमिक ही नहीं यहां मासूम भी सुरक्षित नहीं, फैक्ट्रियों के बीच चल रहे स्कूल
औद्योगिक क्षेत्र की फैक्ट्रियों में केवल श्रमिक ही नहीं बल्कि मासूम भी सुरक्षित नहीं है। जिस जगह पर फैक्ट्रियां लगनी चाहिए थी वहां नियमों को ताक पर रखते हुए स्कूल खोल दिए गए हैं। जिन स्कूलों में बच्चे पढ़ रहे हैं उनके चारों तरफ फैक्ट्रियां हैं जिनमें 24 घंटे बायलर और गैस सिलेंडर चल रहे हैं।
राजेश कुमार, यमुनानगर
औद्योगिक क्षेत्र की फैक्ट्रियों में केवल श्रमिक ही नहीं बल्कि मासूम भी सुरक्षित नहीं है। जिस जगह पर फैक्ट्रियां लगनी चाहिए थी, वहां नियमों को ताक पर रखते हुए स्कूल खोल दिए गए हैं। जिन स्कूलों में बच्चे पढ़ रहे हैं, उनके चारों तरफ फैक्ट्रियां हैं, जिनमें 24 घंटे बायलर और गैस सिलेंडर चल रहे हैं। साथ लगती किसी फैक्ट्री में यदि धमका हो गया या फिर आग लगी और इससे बच्चों को कुछ हो गया तो उसका जिम्मेदार कौन होगा।
औद्योगिक क्षेत्र में केवल उद्योग ही चल सकते हैं। यहां तक की इसमें रहने के लिए घर भी नहीं बनाया जा सकता। यहां तो फिर भी स्कूल चल रहे हैं। औद्योगिक क्षेत्र में उद्योग के बजाय स्कूल चलाने की अनुमति जिला नगर योजनाकार ने दी है। वह भी तब जब स्कूल के चारों तरफ खतरा ही खतरा है। इन स्कूलों में बच्चों के खेलने के लिए ग्राउंड तक नहीं है। वहीं नगर निगम ने कैसे इन स्कूलों के भवनों के नक्शे पास किए। केवल वे अधिकारी ही दोषी नहीं, जिन्होंने अपने समय में स्कूलों और शिक्षण संस्थानों को एनओसी दिया, बल्कि वे भी जिम्मेदार हैं, जो जानकार भी इस तरफ ध्यान नहीं दे रहे।
गत वर्ष स्कूल के पीछे फैक्ट्री में लगी थी आग
15 अप्रैल, 2018 को औद्योगिक क्षेत्र में साई मंदिर से पहले पेंट की फैक्ट्री में शार्ट सर्किट से आग लग गई थी। फैक्ट्री के साथ ही नामचीन स्कूल है। जब आग लगी तो दमकल विभाग की आठ गाड़ियों ने कड़ी मशक्कत के बाद आग पर काबू पाया था। गाड़ियों ने पानी के लिए तीन-तीन चक्कर लगाए थे। उस दिन रविवार था। दमकल कर्मचारियों को साथ वाली बिल्डिग पर चढ़कर आग को स्कूल की तरफ जाने से रोका था। यदि उस दिन स्कूल में बच्चे होते और धमका हो जाता तो उसका जिम्मेदार कौन होता।
प्रदूषण से घुट रहा बच्चों का दम
औद्योगिक क्षेत्र में ज्यादातर मेटल उद्योग हैं। जिनमें हर रोज लाखों टन मेटल को पिघलाया और गर्म किया जाता है। फैक्ट्रियों से काला धुंआ निकल रहा है। टूटी सड़कों से धूल उड़ रही है। इस तरह बच्चे हर रोज पता नहीं कितनी मिट्टी, मेटल के कण, धुंआ सांस के माध्यम से अपनी शरीर में जमा कर रहे हैं। वहीं इसके लिए अभिभावक भी कम जिम्मेदार नहीं है। उन्हें न तो बच्चों के साथ होने वाले हादसे की चिता है और न ही उनके स्वास्थ्य की। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी तो अपनी मर्जी से कुछ करेंगे नहीं।
पहले विभागों से एनओसी जरूरी : शिव कुमार
शिक्षा विभाग के डिप्टी डीईओ शिव कुमार धीमान ने बताया कि डीटीपी, नगर निगम, इंडस्ट्री आदि विभागों से एनओसी लेना होता है। इसके बाद ही फाइल डीईओ कार्यालय में आती है। उसे मान्यता के लिए निदेशालय को भेजते हैं। विभिन्न विभागों की एनओसी के आधार पर ही मान्यता मिलती है।