आधुनिक युग में मिट्टी के घड़ों का स्थान फ्रीज व कैंपर ने लिया
दो दशक पहले तक लोग घड़े (मटके) को गरीब आदमी का फ्रीज कहते थे। लोग जगह-जगह पर मिट्टी के घड़े रखकर प्याऊ लगाते थे।
अनीता सिंहमार, महम :
दो दशक पहले तक लोग घड़े (मटके) को गरीब आदमी का फ्रीज कहते थे। लोग जगह-जगह पर मिट्टी के घड़े रखकर प्याऊ लगाते थे। जहां पर आने जाने वाले राहगीर पानी पीकर प्यास बुझाते थे। घड़े का पानी स्वास्थ्य के लिए भी बहुत अच्छा बताया गया है। उस समय कस्बे व गावों के हर घर में घड़े का पानी पिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। उच्च एवं मध्यम वर्ग के घरानों में घड़ों का स्थान फीज ने ले लिया। वहीं, निम्न वर्ग के लोग घड़ों के स्थान पर कैंपर आदि लेने लगे है। जिसके कारण प्रजापत समाज के लोगों की रोजी रोटी का कार्य और कठिन हो गया है। कारीगर साधु राम, श्यामलाल व रामफल ने बताया कि एक दशक पहले तक भी गर्मी का मौसम शुरू होते ही उनका काम बढ़ जाता था। पूरा परिवार दिन रात मेहनत करके भी माल पूरा नहीं कर पाते थे। लेकिन अब बहुत से बच्चे काम नहीं होने के कारण बेरोजगार होकर अन्य मजदूरी करने पर मजबूर हो गए हैं। पहले एक सीजन में पांच हजार घड़े लगते थे लेकिन अब लगभग 500 घड़े की लगते हैं।
महम क्षेत्र में पिछले कई वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मुश्किल से मिट्टी उपलब्ध हो रही है। बर्तन बनाने में प्रयोग की जाने वाली मिट्टी जिस जगह पर थी। वहां पर अब बिल्कुल विरान हो गया है। मिट्टी की मांग के लिए प्रजापत समाज महम चौबीसी की ओर से उच्चाधिकारियों व एमएलए, एमपी से मिलकर आवाज उठा चुके हैं। लेकिन कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो पाई। जिसकी वजह से महम, ईमलीगढ़ व किशनगढ़ में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले दर्जनों कारीगरों का काम बंद हो गया है। मिट्टी नहीं होने के कारण अब वे बाहर से घड़े लाकर बेचने पर मजबूर हैं। समाज के बहुत से लोग बेरोजगार हो गए हैं। रतना, रामचंद्र, रामकुवार, अर्जुन सिंह, करतार, श्यामा, रामभगत के अनुसार घड़ों की मांग कम होने के कारण आस-पास के गांव निदाणा, फरमाणा व अन्य गांवों से कुछ घड़े (मटके) लाकर बेच रहे हैं। एक दशक पहले तक होती थी हजारों में बिक्री
कारीगर श्यामा ने बताया कि पहले उनके पास मिट्टी की व्यवस्था होती थी। एक परिवार एक सीजन में लगभग 1000 घड़े तैयार कर लेता था। पहले कीमत कम थी लेकिन डिमांड ज्यादा होती थी। अनाज के सीजन में किसानों से कई मण अनाज घड़ों के बदले आ जाता था। ग्रामीण आंचल में किसान फसल के समय ही भुगतान कर देता था। लेकिन अब काम लगभग ठप हो गया है। पूरे सीजन में एक परिवार 50 से 100 के बीच घड़े मुश्किल से बेच पाता है। प्याऊ में प्रयोग किए जाने वाले घड़ों के स्थान वाटर कुलर या कैंपर ने ले लिए हैं।