ऐसे थे अमिताभ बच्चन को फिल्मों में पहला मौका देने वाले केए अब्बास, कभी पानीपत को नहीं भूले
अमिताभ बच्चन को पहली बार फिल्म में मौके देने वाले केए अब्बास पानीपत को नहीं भूले। उन्होंने इसके बारे में लिखा भी है।
पानीपत [रवि धवन]। अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) को बॉलीवुड में पहली फिल्म देने वाले कौन थे। जवाब है, पानीपत के ख्वाजा अब्बास अहमद (KA Abbas)। क्या आप जानते हैं शाहिद कपूर रिश्ते में इनके पड़नवासे (पड़पोते) लगते हैं। अमिताभ को सात हिंदुस्तानी फिल्म में केएस अब्बास ने काम दिया था। इसके बाद अमिताभ ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
केएस अब्बास को पानीपत से बहुत प्यार था। एक जगह उन्होंने लिखा है, अलीगढ़ रहा, अलीगढ़िया न बन सका। बंबई रहा, बंबइया बन गया। जहां भी रहा, पानीपतिया ही बना रहा। 7 जून, 1914 को पानीपत के ख्वाजा गुलामउल सिब्तैन के घर जन्मे अब्बास खुद मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली के पड़नवासे थे। वही हाली, जिनकी नज्म (मांओं, बहनों, बेटियों, दुनिया की जीनत तुमसे है) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पानीपत की धरती से पढ़ी थी। मौका था बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत का।
अब्बास, ब्लिट्ज अखबार में आजाद कलम नाम से कॉलम लिखते थे। एक बार बाढ़ आने पर उन्होंने पानीपत को भी याद किया। तब उन्होंने जो लिखा, आज भी हालात कुछ वैसे ही हैं। पानी ही तो है। बेचारा पढ़ नहीं सकता कि कहां जाना चाहिए। कहां नहीं जाना चाहिए। हमेशा बायें को चलना चाहिए। जब सिपाही हाथ दिखाए तो रुक जाना चाहिए। मगर सैलाब तो अनपढ़ है न। इस बार गलत जगह भी घुस आया और खुशहाल लोगों को पहली बार अंदाजा हुआ कि सैलाब एक खबर ही नहीं है, जिसके बारे में समाचारपत्रों में सुर्खियां होती हैं, बल्कि एक ऐसा हादसा है, जिसका सामना उन्हें भी करना पड़ सकता है। सूखा और सैलाब। सैलाब और सूखा। यह चक्कर हिंदुस्तान में चलता रहता है। हमेशा से चलता है। क्या चक्कर हमेशा चलता रहेगा।
पानीपत में सैलाब की पहली तस्वीर अब भी मेरी याद में सुरक्षित है। मजलूमों की सूरतें आज भी मेरे दिमाग में चिपकी हुई हैं। कितने सहमे हुए। न जाने कितने घंटे उन्होंने अपने झोंपड़े के छप्पर पर बैठे हुए गुजारे थे। मौत की दहशत उनकी आंखों में थी। न जाने कब से भूखे थे वह बेचारे। जब वह किनारे पर आये तो एक औरत बेहोश होकर गिर पड़ी। उसकी गोद में बच्चा था, मगर वह तो मुर्दा था। हम वापस अपने घर आ गए। और जब मेरी समझ में आया कि हमारे कस्बे की गलियां ऊपर की ओर क्यों उठती जाती थी, इसलिए कि खुशहाल लोग सैलाब से सुरक्षित रह सकें। रहे गरीब किसान तो वह तो गरीब थे। अपनी किस्मत से लड़ नहीं सकते थे। जो गुजरती थी, उसे बर्दाश्त कर लेते थे। उनकी चिंता किसे थी।
घर पर कब्जा हुआ, कोर्ट में केस जीता
अब्बास तो पढ़ाई करने के लिए अलीगढ़ चले गए। इसके बार कॅरिअर बनाने मुंबई पहुंचे। इस बीच विभाजन हो गया। पाकिस्तान से आए एक सिख परिवार ने हाली की हवेली पर कब्जा कर लिया। 1954 में केए अब्बास ने घर खाली करने को कहा था तो इस परिवार ने इन्कार कर दिया। तब मामला कोर्ट में पहुंचा। रमेशचंद्र पुहाल के पिता की गवाही और सुबूतों के आधार पर अब्बास केस जीत गए। तब सिख परिवार ने कहा कि आखिर वे कहांं जाएंगे। वे कुछ रुपये लाए और जगह उनके नाम करने की गुजारिश की। तब अब्बास ने बिना रुपये देखे रजिस्ट्री उनके नाम करवा दी।
हवेली को सहेजना था, पार्क बना दिया
हाली की हवेली पर सिख परिवार रहने लगा। पानीपत में हाली की हवेली को बचाने के लिए हाली पानीपती ट्रस्ट बना। तत्कालीन हुड्डा सरकार के समय घोषणा हुई कि हाली की हवेली को सहेजा जाएगा। यहां पर तीन मंजिला स्कूल बनेगा। सिख परिवार को जगह के बदले नकद राशि और सेक्टर में प्लॉट व घर दिया गया। जिस जगह को आने वाली पीढ़ियों के लिए संजोया जाना था, उस जगह को समतल करके अब पार्क बना दिया गया है। हाली की हवेली का कोई हवाला ही नहीं बचा। क्या अब्बास ने इसलिए कोर्ट में मुकदमा जीता था कि उनकी विरासत को इस तरह गुमनाम कर दिया जाएगा।
चुनौतियों को अवसर में बदला
ख्वाजा अहमद अब्बास ने चुनौतियों को हमेशा अवसर में बदला। फिल्म समीक्षा करते तो उन्हें बॉलीवुड के लोग कहते कि खुद फिल्म लिखकर और बनाकर दिखाओ तब जानेंगे। इस चुनौती को उन्होंने स्वीकारा और न केवल फिल्में लिखीं, बल्कि निर्देशित भी कीं। धरती के लाल, शहर और सपना, सात हिंदुस्तानी और दो बूंद पानी उन्होंने निर्देशित कीं। नीचा नगर, नया संसार, जागते रहो, आवारा, श्री 420, मेरा नाम जोकर, बॉबी और हीना फिल्मों के लेखक और स्क्रीनराइटर रहे। (जैसा रमेशचंद्र पुहाल और एडवोकेट राममोहन राय ने बताया)